वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1244
From जैनकोष
बह्वारंभपरिग्रहेषु नियतं रक्षार्थमम्युद्यते,यत्संकल्परंपरां वितनुते प्राणीह रौद्राशय:।
यच्चालंब्य महत्वमुन्नतमना राजेत्यहं मन्यते,तत्तुर्यं प्रवदंति निर्मलधियो रौद्रं भवांशसिनाम्।।1244।।
अब परिग्रहानंद नाम का चौथा रौद्रध्यान बतलाते हैं। यह प्राणी क्रूर चित्त होकर बहुत प्रकार के आरंभ परिग्रहों में रक्षार्थ उद्यम करते हैं और उसमें ही संकल्प की परंपरा का विस्तार बना है ऐसा परिग्रह के प्रति चिंतन बनाया सो परिग्रहानंद रौद्रध्यान है। इसका पूर्ण विशुद्ध नाम है विषयसंरक्षणानंद। 5 इंद्रिय और मन इन 6 का जो विषय है उस विषय के संरक्षण करने में आनंद मानना विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान है। जैसे कल्पना करो― कोई घर में पति-पत्नी बड़े आनंद से रहते हैं। बहुत वैभव है, खूब मौज से रहते हैं। न किसी का बुरा तकें, न किसी को सतायें, किसी से कुछ भी काम नहीं है अपने घर में मौज से रहते हैं, सभी प्रकार का आराम है तो यह बतलावो कि वहाँ भी पाप का बंध हो रहा हे या नहीं? चूँकि विषयों के संरक्षण में आनंद मान रहे हैं और विषयों में मौज समझते हैं तो उनके पाप का बंध बराबर चल रहा है। वे परस्पर में प्रेम से, मोह से रहते हैं तो मोह का, अज्ञान का, मिथ्यात्व का महापाप बराबर चल रहा है। यदि कोई यह सोचे कि मैं किसी को सताता नहीं, किसी की हिंसा भी नहीं करता, झूठ भी नहीं बोलता, चोरी भी नहीं करता, केवल एक अपने परिग्रह में आनंद मानना, विषयों के संरक्षण में खुश होना, अपने वैभव को जोड़ जोड़कर निरख निरखकर खुश हो रहे, ये सब विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान हैं। उनके संरक्षण में मौज मानना रौद्रध्यान है। और मन का विषय है इज्जत, नामवरी, कीर्ति, प्रतिष्ठा इनके भी संचय में जो संकल्प करना है, उद्यम करना हे वह रौद्रध्यान है। रौद्रचित्त होकर ही महत्ता का अवलंबन करके कोई अपने को महान उन्नत माने कि मैं राजा हूँ ऐसे परिणाम को ऋषि संतों ने चतुर्थ रौद्रध्यान कहा है। आर्तध्यान और रौद्रध्यान ये दोनों आत्मा के सम्मुख उपयोग लगाने के विरोधी हैं अतएव ये सब पाप हैं, शांति का मार्ग तो आत्मा अपने स्वरूप को निरखे उस ही में मग्न रहने का यत्न रखे शांति वहाँ मिलती है। यह तो एक वैज्ञानिक प्रयोग है। जिसका उत्सुकता हो वह परीक्षा करके निरख ले। जब परपदार्थों का कहीं भी विकल्प न रखेगा और बड़े विश्राम से अपने आपमें ही नम्र बन जायगा तो उसको विशिष्ट आनंद प्राप्त होगा। और जब जानेगा कि शांति का उपाय तो यही है, यही है जो मुझमें है शांति का उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है उस रूप परिणति, उस काल में रहे, थोड़ा अनुरागवश निर्वाध पुण्य का बंध होता है। धर्म मार्ग में कोई चले तो कर्मों की निर्जरा भी होती जाती और विशिष्ट पुण्य का बंध भी होता जाता है। धर्म की महिमा कोई मुख से कह नहीं सकता। आज हम आप मनुष्यभव में हैं, श्रावककुल में जैन शासन की परंपरा में हैं तो समझ लीजिए कि यह किसी विशिष्ट पुण्य का फल है। जो ऐसे अहिंसा के शासन में हैं, जहाँ अपने आपके स्वरूप की बहुत-बहुत सुध होती रहती है यह विशिष्ट धर्म का फल है। तो यह पुण्य इतना विशिष्ट मिलता है अथवा और भी विशेष धर्म समाज सहित मनुष्य का होना मिलता है धर्म के प्रसाद से। धर्म का फल तत्काल प्राप्त होता है और पाप का भी फल तत्काल प्राप्त होता है। धर्म का फल है शांति, पाप का फल है अशांति। धर्म करने से लोग ऐसा सोचते हैं कि परभव में इसका फल मिलेगा। इस पुण्य में तो ऐसा हो सकता है कि पुण्य करने का फल परभव में मिले, किंतु धर्म का फल तो जिस क्षण धर्म किया जा रहा है उसी क्षण उसका फल मिल रहा है। निर्मलता जगना, शांत होना, निष्तरंग होना यह धर्म का फल है और ये ही धर्म के फल हैं और ये ही धर्म के स्वरूप हैं। इस धम्र से विमुख करने वाला यह विषयसंरक्षणानंद नामक रौद्रध्यान है।