वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1246
From जैनकोष
आच्छिद्य गृह्लांति धरां मदीयां कन्यादिरत्नानि च दिव्यनारीम्।
ये शत्रव: संप्रति लुब्धचित्तास्तेषां करिष्ये कुलकक्षदाहम्।।1246।।
जो बैरी मेरे पृथ्वीरत्न को अथवा कन्यारत्न को सुंदर स्त्री को लुब्ध चित्त होकर छीनकर ले जायगा उसके कुलरूपी वन को दग्ध करूँगा। जो मुझ पर दबाव देकर मेरा धन लूटता है अथवा लूटवाता है अथवा कन्या को छीनता है उसके कुल को मैं समूल नष्ट करूँगा। पहिले समय में स्वयंवर हुआ करते थे। तो कोई स्वयंवर की अवहेलना करके यों ही किन्हीं उपायों से कन्यारत्न को छीनकर ले जाते थे और उस समय उनका भयंकर युद्ध होता था। पहिले लोग कन्या की सगाई करते थे। लोग कहते थे कि अपनी पुत्री की सगाई मेरे पुत्र से कर दो, सगाई मायने अपनी बना लेना, बाद में विवाह होता था। तो पहिले समय में कन्या आदिक को लोग रत्न मानते थे। तो कोई मेरे वैभव में बाधा डाले, राज्य में बाधा दे, कन्या आदिक रत्नों को छीन ले जाय, ऐसे पुरुष को मैं निर्मूल नष्ट करूँगा― इस प्रकार का संकल्प करना यह विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान है। कुछ लोग सोचते होंगे कि इसमें क्या रौद्रध्यान है? यह तो कर्तव्य है कोई मेरे धन को छीन ले जाय और मैं उसके कुल के विनाश का यत्न करूँ यह तो अपना कर्तव्य है इसमें क्यों रौद्रध्यान कहा? लेकिन यह देख लीजिए कि जहाँ धर्मध्यान नहीं, आत्मदृष्टि नहीं, शांति का रास्ता नहीं, पर की ओर ही दृष्टि है, विरोध है, पराधीन जिसकी वृत्ति है उस समय उसके भी रौद्रध्यान ही तो है। अपने आपके प्रभु की ओर से क्रूर चित्त हो गया अतएव वह रौद्रध्यान है। इसके बचने के लिए फिर क्या करे? गृहस्थी में रहकर तो बचा नहीं जाता। यह रौद्रध्यान तो पंचम गुणस्थान तक पाया जाता है, मगर इस रौद्रध्यान की ओर से खेद करना चाहिए, चित्त तो धर्मध्यान की ओर होना चाहिए। गृहस्थी में तो गृहस्थों जैसा ही काम निभेगा। आजीविका करना, धन कमाना, कुटुंब को पोषण करना, अपने को सावधान बनाना, कहीं ठग न जायें, बहुत से काम करने होते हैं पर आशय प्रोग्राम, लक्ष्य होना चाहिए धर्मध्यान का। अन्य सब कामों को तो यों समझना चाहिए जैसे कि एक कहावत में कहते हैं गले पड़े बजाय सरे। कुछ मित्र लोग आपस में मजाक कर रहे थे, एक मित्र के गले में किसी ने एक ढोल डाल दिया तो उसकी हँसी हो गयी। अपनी हँसी मिटाने के लिए उसने क्या किया झट दो लकड़ियां उठा ली और बजाना शुरू कर दिया। लो उसकी हँसी मिट गयी। यों ही समझिये अपने को जो गृहस्थी मिली है, परिग्रह के बीच रहना पड़ता है तो इसे एक कला सहित संरक्षण करने से ही निपट पायेंगे लेकिन ध्यान यह रहना चाहिए कि यह जो कुछ किया जा रहा है यह अपने आपके प्रभु पर मजाक किया जा रहा है। इसमें प्रभु की प्रभुताई नष्ट हो रही है। यथार्थ प्रकाश चित्त में रहना चाहिए। तो विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान होता है पंचम गुणस्थान तक, लेकिन आशय में क्रूरता ज्ञानी जीव के नहीं रहा करती है।