वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1258
From जैनकोष
स्वयमेव प्रजायंते विना यत्नेन देहिनाम्।
अनादिदृढसंस्कारा द्दुर्ध्यानानि प्रतिक्षणम्।।1258।।
ये जो खोटे ध्यान हैं सो जीव को अनादिकाल से संस्कार से बिना ही यत्न के स्वयमेव होते हैं। इष्ट का वियोग हो जाय तो उसके फल में स्वयं ही बड़ा दु:ख मानते हैं, अनिष्ट के संयोग में दु:ख मानते हैं। कोई बच्चे को सिखाता है चलना फिरना या विद्या पढ़ना आदिक क्या? अरे ये सब तो उसके अनादि के संस्कार हैं, होते हैं। विषयों के अनुभवन में मौज मानना उसे कोई सिखाता है क्या? तो यह आर्त और रौद्रध्यान जीवों को बिना सिखाये, बिना यत्न के अनादि काल के संस्कारों से ये सब चलते जाते हैं। पर धर्मध्यान शुक्लध्यान उत्कृष्ट विचार, सम्यक्त्व का लाभ ध्यान की प्राप्ति इन सबमें उद्यम करना होता है। सिखाते हैं, गुरुजन बताते हैं तब इसकी सिद्धि होती है। यह आर्त और रौद्रध्यान बिना यत्न के ही जीवों के साथ अनादिकाल से अपनी परंपरा बनाते चले जा रहे हैं, पर जो अनादि से चला आया है वह अच्छा ही हो यह नियम तो नहीं। जैसे किसी काम में लोग कहने लगते हैं कि यह तो वर्षों से बात चल रही है। पर बात यदि ठीक है तो ठीक है अन्यथा कितनी ही पुरानी परंपरा से रूढ़ि चली जाय उसमें भलाई नहीं है तो ठीक नहीं है। तो यों ही अनादिकाल से मिथ्यात्व, मोह, अज्ञान, दुर्ध्यान ये सब चले आ रहे हैं पर पुरानी परंपरा से चले आये इस कारण वह ठीक हो यह नियम नहीं है। तो ये अनादि वासना के संस्कार ये जीवों को बिना यत्न के ही प्राप्त होते रहते हैं। यह कठिन है, पर छोड़ना इसे जरूर होगा। तो उपयोग अपना निर्मल बनायें, अपने गुणों का चिंतन करें, ज्ञानप्रकाश के निकट रहें वहाँ तो इस जीव को धर्मलाभ है, शांतिलाभ है और इसके अतिरिक्त किन्हीं बाह्यपदार्थों के निकट बसें, राग करके अथवा द्वेष करके तो यह बात कब तक निभेगी? ये दुर्ध्यान त्याग ने योग्य हैं।