वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1280
From जैनकोष
कानिचित्तत्र शस्यंते दूष्यंते कानिचित्पुन:।
ध्यानाध्ययनसिद्धयर्थं स्थानानि मुनिसत्तमै:।।1280।।
ध्यान की और शास्त्र अध्ययन की सिद्धि के लिए आचार्यों ने अनेक स्थान तो सराहें हैं और अनेक स्थान दूषित बताये हैं। कोई स्थान ऐसे हैं जहाँ ध्यान की सिद्धि बनती है और कोई ऐसे दोषयुक्त स्थान हैं कि जहाँ ध्यान की सिद्धि नहीं बनती है। आत्मा है ज्ञानमात्र और धर्म पाया जा सकता हे ज्ञान से ही और ज्ञान के ये दो साधन हैं― ध्यान और अध्ययन। ध्यान में भी ज्ञान की ही विशुद्धि है और आंतरिक वृद्धि है और अध्ययन में ज्ञान की प्रगतिरूप वृद्धि है? तो ध्यान और अध्ययन की सिद्धि के लिए कौनसे स्थान उत्तम हैं और कौनसे स्थान खोटे हैं। इसका वर्णन किया जायगा। तो मुनिजनों ने कुछ स्थान योग्य बताये और कुछ स्थान अयोग्य बताये। इसका कारण क्या है उसे इस श्लोक में कहते हैं।