वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 161
From जैनकोष
यदीदं शोध्यते दैवाच्छरीरं सागरांबुभि:।
दूषयत्यपि तान्वेयं शोध्यमानमपि क्षणे।।161।।
शरीर के शोधन की अशक्यता―यह शरीर इतना अपवित्र है कि इस शरीर को समुद्र के जल से भी शुद्ध किया जाय तो यह शरीर उसी क्षण समुद्र के जल को भी अशुद्ध कर देता है। जल पदार्थों को शुद्ध करने का कारण है। तो जो शुद्ध करने का साधन है। वह भी इस शरीर के संबंध से अशुद्ध बन जाता है। किसी बड़े बर्तन में कोपरा में बड़े भगोने में आप बैठकर नहा लीजिए, उस जल से आप अपने शरीर को धो डालें तो उसके बाद में कोई दूसरा उस जल से स्नान कर सकता है क्या? बल्कि नहाते समय में किसी दूसरे पर छींट भी पड़ जाये तो वह उस छींट पर नाराज होने लगता है, आप अच्छी तरह क्यों नहीं नहाते, हम पर पानी की छींट आ रही हैं। उस समूचे नहाये हुए पानी की बात तो दूर रही, किंतु छींट भी एक घृणा को उत्पन्न करती है। तो जिस जल से इस शरीर का शोधन किया जाय वह जल ही इस शरीर के संबंध से अशुद्ध हो जाता है, फिर जो अन्य वस्तु को अपवित्र कर दे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?
शरीर के स्पर्श से पदार्थों की अपवित्रता―लोग शुद्ध होने के लिए लोगों से बचते हैं, किसी का कपड़ा न भिड़ जाय, वहाँ बात है क्या कि दूसरे का कपड़ा भी क्या, खुद के शरीर पर पहिना हुआ कपड़ा इस शरीर के संबंध से अशुद्ध हो जाता है और फिर बिना नहाये हुए शरीर से संबद्ध कपड़े से और विशेष जुगुप्सा उत्पन्न कर ली जाती है। आज जो कपड़ा पहिन लिया यह कल रसोई के काम न आयेगा, ऐसे ही बिना धुले हुए। उसका अर्थ ही यह है कि इस शरीर के संबंध से ये वस्त्र भी अशुद्ध हो जाया करते हैं। सिर पर चंदन लगाया तो यदि चंदन ज्यादा लग गया तो उसे छुटाकर कोई दूसरा भी मस्तक पर लगा सकता है क्या? घृणा उत्पन्न होगी। अच्छा चंदन की भी बात जाने दो, तेल एक बार किसी के शरीर में लग जाय तो उस तेल को पोंछ कर कोई अपने शरीर में भी लगाता है क्या? उसकी भी बात जाने दो। फूलों की माला किसी को पहिना दी जाय तो फूल माला पहिनने के बाद उस फूल माला को कोई दूसरा अपने कंठ में नहीं रखना चाहता। उसकी भी बात जाने दो। जो चमकीले रेशम के या चटक मटक के हार मिलते हैं बाजार में उसे पहिना दिया जाय किसी दूसरे को और फिर किसी दूसरे महापुरुष के सम्मान के समय पहिले का पहिनाया हुआ हार ही पहिना दिया जाय और उसे मालूम पड़े तो वह उसमें अपना सम्मान नहीं किंतु अपमान समझता है। तो शरीर का संबंध पाकर ये सभी वस्तुएँ अपवित्र हो जाती हैं, ऐसा है निंद्य अशुचि यह शरीर।
शरीर की मोह में ही प्रीतिपात्रता―इस शरीर से मोहीजन ही प्रीति रखते हैं। जिन्हें अपने आत्मा के शुचि स्वभाव का परिचय नहीं है वे बेचारे अपने विकारों का विश्राम कहाँ करायें, स्वयं विश्राम पाने की तो योग्यता है नहीं तब यह उपयोग भ्रम-भ्रमकर दौड़-दौड़कर इंद्रिय के विषयों में ही विश्राम करना चाहता है। यह सब अज्ञान का प्रताप है। विषयों के साधन अज्ञान में ही सुहावने लगा करते हैं। समस्त विपदायों से बचने का भाव हो तो अपने ही अंतरंग में विराजमान आंयंतिक शुचि पवित्र निर्मल विकलमष निर्लेप अखंड स्वभाव से लगाव लगाइए, प्रीति कीजिए उसका ही उपयोग कीजिए। इस शुचि आत्मस्वभाव को निरखकर इस अशुचि अशुचि से विरक्त हूजिए। जैसे जो लोग बेकार नहीं हैं, काम-धंधे में लगे हुए हैं, कमाने के अथवा सेवाओं के काम में लगे हुए हैं ऐसे पुरुषों का चित्त अधिक बिगड़ता नहीं है, अधीर नहीं होता, किंतु जो लोग बेकार हैं, जिनके पास कुछ काम नहीं है उनके चित्त में सैकड़ों प्रकार के विकल्प उत्पन्न होते हैं तब ये विषयों की प्रवृत्ति में अधिक रहना चाहते हैं, ऐसे ही जिनको अपने परम अर्थ का लक्ष्य नहीं बना, संसारसंकटों से मुक्त होने का जिनका उद्देश्य नहीं बना है उनका इन विषयसाधनों में ही जो अहित है, छलपूर्ण हैं, निकट भविष्य में क्लेश उत्पन्न करने वाले हैं उनकी ओर चित्त जाता है। अपना काम लगा रहे, आत्महित की रुचि जग जाए, परिचय हो जाए तो उसे तो यह बड़ा काम पड़ा हुआ है कि हमें अपने सहजस्वरूप को जानना है और यों ही जानते रहना है। इस काम का अब कब अंत आये, सदा के लिए यह काम पड़ा हुआ है, तो ऐसे कमंठ पुरुषों के, उद्योगी जीवों के इन अशुचि शरीरों में प्रीति नहीं जगती है।