वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 188
From जैनकोष
विहाय कल्पनाजालं स्वरूपे निश्चलं मन:।
यदाधत्ते तदैव स्यान्मुने: परमसंवर:।।188।।
स्वरूपनिश्चलता में परम संवर―जिस समय समस्त कल्पनासमूह को छोड़कर अपने स्वरूप में यह मन निश्चल होकर रहता है उसही समय मुनि के उत्कृष्ट संवर होता है। इस जीव के विभाव का और कर्मों के आने का कैसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है―जैसे ही यह जीव रागद्वेष मोह भावरूप परिणमता है उसी समय ये कर्म इस आत्मा में बँधते हैं और उनकी स्थिति और फलदान शक्ति निश्चित हो जाती है और जब ही यह ज्ञानी पुरुष कल्पनाओं को त्यागता है जिनके आधार पर मोह रागद्वेष हुआ करते है, कल्पनाओं को त्यागकर जैसे ही अपने आपके स्वरूप में मग्न हो जाता है, वैसे ही याने उसी समय यहाँ कर्मों का संवर हो जाता है। फिर कर्म नहीं आते।
कर्तव्यस्मरण―भैया ! इस जीव को करने का यही काम उत्कृष्ट पड़ा हुआ है, अपना ज्ञान सही बनाये और अपने ज्ञान को अपने स्वरूप में मग्न कर दे, ऐसा किए बिना जीव का उत्थान नहीं हो सकता। अपराध करने वाला पुरुष यदि अपने अपराध को समझता रहेगा तो ये अपराध कभी दूर भी किए जा सकते है। एक अपराधी अपराध भी कर रहा है और अपराध मान नहीं रहा है तो उसका अपराध कैसे दूर हो? ऐसे ही मोह रागद्वेष करने के अपराधों को यदि अपराध समझते रहे, घर में या संपदा में हमारा जो प्रीति का परिणाम रहता है यह दोष है, यह कलंक है, मेरा अहितरूप है। मेरा कुछ वास्ता नहीं, ऐसा यदि सही ज्ञान बनाये रहे तो कभी यह अपराध दूर हो जायेगा और कोई अपराध तो माने नहीं, किंतु परिजन के, वैभव के राग करने को ही एक अपना कर्तव्य समझता रहे, मैं बहुत चतुर हूँ, मैं बहुत महान् हूँ ऐसी ही परिणति बनाये रहे तो उसका यह अपराध कैसे दूर होगा? जब तक अपराध दूर नहीं होता तब तक आत्मा को शांति नहीं प्राप्त हो सकती। राग के करने में इसे शांति कब मिले? कितना ही धन वैभव जुड़ जाय किंतु इस जीव को चैन तो कभी मिलती नहीं क्योंकि परपदार्थों पर दी हुई दृष्टि विकल्प तरंगे ही उत्पन्न किया करती है। शांति का वह मार्ग नहीं है।
प्रभुपूजा स्वरूपस्मरण की प्रयोजिका―हम देव अरहंत सिद्ध को क्यों पूजते हैं? इस कारण कि उनका स्मरण करके हमें यह निश्चय होता है कि करने योग्य काम तो यही है जो इन प्रभु ने किया। बस अपने इस सत्य कर्तव्य के स्मरण में सहायक है प्रभु की पूजा। जब यह मन किसी अन्य प्रकार से अपने आपके स्वरूप में निश्चल हो जाता है उस समय कर्म रुकते हैं। इन कर्मों के निरोध में मुख्य उपाय है संयम, अपने मन को संयमित करें, अपने आचरणों को संयत बनायें तो संयत के प्रताप से कर्म रुकते हैं। अब परमसंवर की महिमा बताते हुए इस प्रकरण में यह अंतिम छंद कह रहे हैं―