वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2023
From जैनकोष
युक्त्या वृषभसेनाद्यैर्निर्धूयासाधुवल्गितम् ।
यस्य सिद्धि: सतां मध्ये लिखिता चंद्रमंडले ।।2023।।
उच्च योग में सर्वज्ञता का निरूपण―प्रभु में वीतरागता और सर्वज्ञता मुख्य गुण हैं, जिनका महत्व आंककर तीनों लोकों के इंद्र और विद्वत् जन, योगी जनप्रभु के चरणों में आकर परमतत्त्व की उपासना किया करते हैं । ऐसे महत्वपूर्ण वीतरागता के संबंध में भी बहुत कहा गया और सर्वज्ञता के संबंध में भी वहाँ गया । किंतु एक याद दिलायी गई है इस असंग में कि उस सर्वज्ञ की सिद्धि वृषभसेन आदिक गणधरों ने एक निर्मल चंद्रमंडल में, शुद्ध वातावरण में लिखा है । जो कुनय के पक्षपाती हैं उनके द्वारा कहे गये विचारों का खंडन करके अथवा उन्हें समझा करके उन गणधरों ने सर्वज्ञ की सिद्धि लिखी है । यहाँ बताया है कि चंद्रमंडल में लिखा है । इसका क्या अर्थ हो सकता है? रात्रि में लिखा है यह बात तो कुछ फबती नहीं है । ज्योतिष के हिसाब से जिन दिनों में कुछ चंद्र की महिमा आंकी जाती हो उन दिनों में लिखा अथवा चंद्र स्वर में लिखा है । मनुष्य की नासिका में दोनों छिद्रों से जो वायु निकलती है तो दाहिने छिद्र से श्वास निकालने को कहते हैं सूर्य स्वर और बांई ओर के छिद्र से श्वास निकलने को कहते हैं चंद्रस्वर । यही चंद्रमंडल कहलाता है जो शांति का प्रतिपादन होता है । जो साम्य भाव का वर्णन होता है, धीर और शांत तत्व का दर्शन होता है ऐसी स्थिति को एक सौम्य शांत स्थिति कहा जाता है । ऐसी सौम्य स्थिति चंद्रस्वर में हुआ करती है । तीव्र एवं चर कार्य तो सूर्यस्वर में करना चाहिए और शांत एवं स्थिर कार्य चंद्रस्वर में करना चाहिए । आचार्यदेव उस सर्वज्ञ सिद्धि की निर्दोषता को जानकर यह कह रहे हैं कि उस पावन प्रतिपादन से मालूम होता हें कि यह सब निरूपण चंद्रमंडल में किया है जबकि एक सौम्य स्थिति थी । इससे यह जाहिर किया कि प्रभु को सर्वज्ञ मानना, यह कपोलकल्पित बात नहीं है । बड़े अनुभवों और उच्च सांसारिक वैभवों को भोगकर त्यागने वाले योगीश्वरों ने निर्मल तपश्चरण के वातावरण में अनुभव कर के लिखा है ।