वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2084
From जैनकोष
इत्यसौ संतताम्यासवशात्संजातनिश्चय: ।
अपि स्वप्नाद्यवस्थासु तमेवाध्यक्षमीक्षते ।।2084।।
ज्ञानस्वभाव के संतत अभ्यास में परकृत चेष्टाओं से क्षोभ का अभाव―मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ, सबसे निराला अपने आपमें आनंद स्वभाव को लिए हुए हूँ । इस प्रकार ज्ञानमात्र अपने आत्मा के चिंतन का अभ्यास होने से उसको पूर्ण निश्चय अपने आपके बारे में हो जाता है कि, मैं ज्ञानमात्र हूँ । यह निश्चय इतना दृढ़ हो जाता है कि कोई सम्मान करे अथवा अपमान करे, इन दोनों में उसकी यह दृढ़ प्रतीति है कि मैं तो ज्ञानमात्र हूँ । ये लोग किसी दूसरे के बारे में सम्मान अपमान आदि की बातें कर रहे हैं । जैसे कोई पुरुष समझ लेता है कि अमुक आदमी दूसरे के बारे में निंदा की बात करता है तो उस निंदा करने वाले का विरोध नहीं होता, इसी प्रकार यह ज्ञानी अपने को ऐसा लख रहा है कि मैं तो शाश्वत ज्ञानमात्र हूँ और लोग जो कुछ भी रागद्वेष आदिक के व्यवहार करते हैं वे किसी दूसरे का लक्ष्य कर के करते हैं । ये मुझे कुछ नहीं कह रहे । ये स्वयं ऐसे व्यवहार के कारण स्वयं अपने में क्षुब्ध हो रहे दौड़े होंगे । यह बात संभव ही है कि कोई ज्ञानी पुरुष अपने बारे में ज्ञानस्वरूप का विश्वास लेता है और दूसरे लोग कुछ प्रतिकूल क्रियायें करें, तो वह ज्ञानीपुरुष जानता है कि ये लोग मेरा कुछ भी नहीं कर रहे । इनकी ये सारी चेष्टायें किसी अन्य को लक्ष्य में लेकर हो रही हैं ।
ज्ञान के सतताभ्यास से स्वप्नादिक अवस्थाओं में भी तत्त्व के दर्शन―मैं तो ज्ञानमात्र हूँ, इस प्रकार अपने आपके ज्ञानमात्र स्वरूप का निरंतर अभ्यास होने से एक निश्चय उत्पन्न होता है, फिर वह योगी स्वप्न आदिक अवस्थावों में भी इस ही तत्त्व को प्रत्यक्षरूप से देखता है । जिसका निरंतर अभ्यास किया है स्वप्न में वही इस योगी को दिख जाता है । यह रूपातीत ध्यान का वर्णन है । मुद्रामंडल आकार प्रकार से जो परे है ऐसा यह परमात्मतत्व कारणसमयसार अथवा सिद्ध प्रभु हैं कार्य समयसार । वह है रूपातीत स्वरूप । रूपातीत ध्यान में परमात्मा को निरखा तो प्रभाव अपने पर आता है और अपने स्वभाव को निरखा तो अपने पर आया ही । यों निरंतर अभ्यास करता है ज्ञानानुभव का । इसके प्रताप से स्वप्न आदिक अवस्थावों में भी यह तत्व प्रत्यक्ष दिखता है ।