वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 231
From जैनकोष
यत्पर्याप्तस्तथा संज्ञी पंचाक्षेऽवयवान्वित:।
तिर्यक्ष्वपि भवत्यड्.गी तन्न स्वल्पाशुभक्षपात्।।231।।
असैनी पंचेंद्रियपने की प्राप्ति की दुर्लभता―अभी तक यह जीव बराबर तिर्यंचगति में है। निगोद भी तिर्यंचगति का जीव कहलाता है और स्थावर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति ये भी तिर्यंचगति के जीव हैं। दोइंद्रिय तीनइंद्रिय चार इंद्रिय हुआ, ये भी तिर्यंचगति के जीव हैं। अब इन ही तिर्यंचगति में कुछ आगे और बढ़ा तो पंचेंद्रिय हुआ। पंचेंद्रिय में यदि यह जीव अपर्याप्त रहा तो अपना क्या कल्याण कर सकता है? तिर्यंच भी हुआ पंचेंद्रिय किंतु पर्याप्त होना दुर्लभ है। पर्याप्त उसे कहते हैं कि आहार, शरीर, इंद्रिय, स्वासोछवास, भाषा ये पर्याप्तियाँ जिनकी पूर्ण हो गई हैं, अभी संज्ञी नहीं हुआ इसलिए मन:पर्याप्ति की बात छोड़ दो। पर्याप्त होना ही दुर्लभ है और पर्याप्त भी हो गया और मनरहित रहे तो करेगा क्या?
अपर्याप्तसैनी की असामर्थ्य―मन से ही तो शिक्षा ग्रहण की जाती है। मन से ही सब निर्णय हुआ करता है। मनरहित हो तो यह करेगा क्या? इन सब बातों को सुनकर अपने पर यह घटित करते जाइये कि हमें अनंतानंत जीवों के मुकाबले कितनी बढ़िया स्थिति पायी है, लेकिन मोही जीव आगे की और तृष्णाओं की बात मन में रखते हैं और जो इस समय पाया है उसे भी सुख से नहीं भोग सकते, और न इस अच्छे वातावरण का सदुपयोग कर सकते हैं। धर्म मार्ग में नहीं लग सकते। यह जीव पंचेंद्रिय भी हुआ और असैनी रहा तो कुछ विशेष बात नहीं बनती। हाँ, पंचेंद्रियों से उत्पन्न अज्ञान और सुख के भोगने की सामर्थ्य आये लेकिन हेय बुद्धि का हित अहित का यह कुछ भी विवेक नहीं कर सकता। तो संज्ञी होना दुर्लभ है, मनसहित हो तो वहाँ भी यह अपर्याप्त की विडंबना लगी है, सैनी जीव भी यदि अपर्याप्त हो तो क्या करेगा? जैसे मनुष्य भी असंख्याते अपर्याप्त होते हैं वे कैसे होते हैं? वे दिखते नहीं हैं किंतु स्त्रीजनों के काँख आदि के स्थानों से ही से उत्पन्न होते रहते हैं बिना वजह और उनके न दर्शन हैं, न पकड़ में भी आ सकते हैं और संज्ञी हैं वे किंतु लब्धपर्याप्त हैं, उनमें मनुष्यों की वैसे ही जन्म-मरण की दशा होती रहती है जैसे निगोद जीव की होती है। ‘नाम बड़े और दर्शन खोटे।’ नाम तो हो गया कि मनुष्य बन गया, सैनी बन गया पर क्या बन गया? यदि ऐसे तिर्यंचों में भी पंचेंद्रिय तिर्यंच भी हो गए और सैनी भी हो गए किंतु अपर्याप्त हो गए तो कुछ नहीं कर सकते।
पर्याप्त सैनीपने की दुर्लभता―तो सैनी बना और पर्याप्त बना, यह उत्तरोत्तर दुर्लभ है। यह जीव निगोद से, स्थावरों से, दो इंद्रिय से, तीन इंद्रिय से, चार इंद्रिय से और अपर्याप्त तिर्यंच पंचेंद्रिय से अपर्याप्त संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंचों से निकलकर यह संज्ञी भी हुआ, पर्याप्त भी हुआ तो इतना होने पर भी उसके अवयव सही होना, पूर्व अवयव संयुक्त होना दुर्लभ है। ऐसे ही तिर्यंच में संज्ञी तिर्यंच पर्याप्त और सामर्थ्य वाला होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। तिर्यंचों में भी इतना ज्ञानबल जग जाता है कि वे सम्यक्त्व उत्पन्न कर लेते हैं और देशसंयम भी धारण कर लेते हैं। ये हाथी, सिंह, भैंसा, बैल, सूकर, बंदर, नेवला, सांप आदि सैनी पंचेंद्रिय तिर्यंच भी उस चैतन्यस्वरूप का अनुभव कर लेते हैं। अब बतलाओ आत्मा की बात, ज्ञान की बात तो ज्ञान के साथ है, वहाँ मन की आवश्यकता थी। इन फँसाव की स्थिति में मन मिल गया।
पर्याप्त संज्ञी के भेदविज्ञान की योग्यता―तो यह सामर्थ्य जग गयी कि वह भेद विज्ञान की बात अनुभव कर ले। इस देह से भी न्यारा चैतन्यस्वरूप मैं हूँ ऐसा अनुभव जैसा कि विवेकी पुरुष बड़ा प्रयत्न करके विद्या सीख कर किया करते हैं, ये तिर्यंच बिना पढ़े लिखे हैं, अक्षर पढ़ना लिखना तो नहीं जानते लेकिन ऐसा उत्कृष्ट मन हो जाता है किन्हीं-किन्हीं पशुओं का पक्षियों का कि वे इस देहमात्र से भिन्न इस चैतन्यस्वभाव का अनुभवन कर लेते हैं। यह मैं हूँ, ऐसा अपने आपके स्वरूप का प्रत्यय कर लेते हैं, और संज्ञी होना बहुत दुर्लभ बात है। अब इसके बाद मनुष्य हुआ तो वहाँ क्या-क्या चीज उत्तरोत्तर दुर्लभ है इस बात को बतावेंगे। इस बोधिदुर्लभ भावना में मनुष्यों को समझाना है ना, तो तिर्यंच के बाद मनुष्यों की बात कह रहे हैं। यद्यपि नरकगति और देवगति के जीव भी होना दुर्लभ है। नारकी भी तो आखिर मन सहित है। तीर्थंकर जितने भी बनते हैं, वे या तो नरकगति से मरकर जन्म लेकर बनते हैं या देवगति से मरकर जन्म लेकर बनते हैं। मनुष्यगति से आकर मनुष्य बनकर तीर्थंकर बन इनकी संख्या बहुत कम है, तो नरकगति और देवगति में भी कितना उत्कृष्ट मन है, वह भी दुर्लभ है। यह बात इस प्रकरण में समझकर आगे मनुष्य की बात सुनिये।