वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 852
From जैनकोष
आरंभो जंतुघातश्च कषायाश्च परिग्रहात्।
जायंतेऽत्र तत: पात: प्राणिनां श्वभ्रसागरे।।
परिग्रह के संबंध से आरंभ और प्राणिघात जैसे अनर्थों की संभूति- जीवों के परिग्रह से इस लोक में क्षोभ होता है। परिग्रह से क्या क्या अनर्थ होते हैं, इस बात को इस छंद में बता रहे हैं। प्रथम तो क्षोभ होता है, साधुजन हैं, उनके पास कोई परिग्रह नहीं तो वे आरंभ क्या करेंगे, चीज ही कुछ नहीं है। न बर्तन हैं, न पैसा है, न भोजनसामग्री है, कुछ भी चीज तो पास नहीं है। उनको शीत सताये तो अग्नि जलाकर ताप भी तो नहीं सकते। केवल शरीरमात्र जिनका परिग्रह है, अन्य कुछ भी पास नहीं है तो ऐसे साधु संत आरंभ क्या करेंगे? आरंभ होता है परिग्रह से। परिग्रह हो तो उससे हिंसा होती है, प्रथम तो किसी भी बाह्यवैभव में परिणाम रखना यह ही एक हिंसा है। हिंसा का तात्पर्य है अपने आपके प्राणों का घात करना। अपने प्राण है ज्ञानदर्शन, चैतन्यप्राण। उसका विघात करना सो हिंसा है। जिसके परिग्रह की मूर्छा लगी है उसने अपने चैतन्यप्राण का घात किया। अपना विकास रोक दिया, यही तो हिंसापरिग्रह के संबंध में होता है।
परिग्रह के संबंध से कषायों का उद्वेक- परिग्रह के संबंध से कषाय उत्पन्न होती है। किसी के क्रोध जगे तो उसका भी कारण इस परिग्रह की मूर्छा है। अभिमान प्रकट हो तो उसका भी कारण परिग्रह है। इस परिग्रह को दौलत कहते हैं, अर्थात् उसके दो लात हैं। जब यह वैभव आता है तो छाती में लात मारता है जिसके कारण एकदम छाती अकड़ जाती है, अर्थात् जिसके पास धन वैभव होता है वह अभिमान करके छाती फुलाकर चलता है। तो हुआ क्या? इस धन वैभव ने, लक्ष्मी ने आते ही छाती पर लात लगाया और जब यह वैभव नष्ट हो जाता है तो उस मनुष्य की कमर झुक जाती है तो पीठ पर लात मारकर जाती है अर्थात् जब निर्धन हो जाता है तो उस मनुष्य की कमर झुक जाती है। फिर वह छाती फुलाकर अभिमान से नहीं चलता है। तो अभिमान जगता है तो इस परिग्रह के संबंध से जगता है। लोग कहते हैं ना किसी को यदि ठंड नहीं लगती तो कहते हैं कि इसके जेब में रुपया पड़ा होगा उसकी गर्मी लग रही है। तो इस परिग्रह के संबंध से अभिमान जगता है। मायाचार जो दुनिया में फैला हुआ है उसका भी कारण यह परिग्रह है। परिग्रह का संबंध न हो तो सब एक प्रकार के हो गए। तो परिग्रह के संबंध से मायाचार जगता है और परिग्रह के ही संबंध से लोभ कषाय जगती है। यह वैभव जितना मिले उतना ही लोभ बढ़ता जाता है। और उस तृष्णा की धारा में बहकर यह जीव सँभलना भी तो नहीं चाहता कि चलो जो है वही बहुत है। इससे आगे अब हमें और कुछ न चाहिए। सबसे महान कार्य इस मनुष्य जीवन में आत्महित करने का है। आत्महित में ही हमारा जीवन लगे ऐसी भावना किसी ज्ञानी पुरुष के ही हो पाती है।
परिग्रह के संबंध से अनेक दोष धारण होने से दुर्गतिवास का क्लेश- जहाँ परिग्रह का संबंध है वहाँ ही यह सब विवेक उड़ जाता है। तृष्णा कषाय जगती है, यों परिग्रह का आरंभ बनता है, हिंसा होती है, कषाय जगती हैं और फिर नरकों के दु:ख भोगने पड़ते हैं। तो जो परिग्रह है वह अनर्थ का मूल है। उस परिग्रह के रहते सनते कोई सुख का मार्ग निकाल लेना, शांति का रास्ता निकाल लेना यह तो अशक्य है। परिग्रहों में मूर्छा न रहे तो उपयोग विशुद्ध रहेगा, और विशुद्ध उपयोग ही आत्मा की ओर ध्यान लगा सकता है। जिन्हें आत्मध्यान की इच्छा है उन पुरुषों का सर्वप्रथम कर्तव्य है कि समस्त परिग्रहों से मूर्छा भाव को दूर करें। पास में परिग्रह हो तो उसमें मूर्छा न रखें। सुख शांति चाहने वाले पुरुषों को इस परिग्रह की उपेक्षा करनी होगी।