वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 148
From जैनकोष
जोगणिमित्तं गहणं जोगो मणवयणकाय संभूदो ।
भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरागदोसमोहजुदो ।।148।।
आस्रव और बंध का कारण―इस गाथा में बंध के बहिरंग कारणों पर विचार किया गया है । द्रव्यकर्म का ग्रहण योग के निमित्त से होता है । जीव के प्रदेशों में परिस्पंद होने का नाम योग है और उस योग का निमित्त पाकर कर्मों का आस्रवण होता है । यह योग मन, वचन, काय के परिस्पंद से उत्पन्न होता है । यह तो बताया आस्रव की पद्धति । इस ही प्रकरण में जहाँ कि निमित्तनैमित्तिक भावों का वर्णन चल रहा है किसी कारण से क्या हुआ वहाँ यह जानना कि मन, वचन, काय की क्रियावों के निमित्त से आत्मप्रदेशों में परिस्पंद हुआ और इस योग के निमित्त से नवीन कर्मों का कर्मत्व का आस्रवण हुआ । यहाँ तक तो आस्रव की बात कही अब बंधकी बात सुनिये।
बंध में स्थिति की प्रमुखता―कार्माणवर्गणाओं में कर्मत्वपरिणमन हुआ, इसके साथ ही उस कर्म का स्थितिबंध बंधन हुआ कि इतने दिनों तक यह ठहरेगा । एक समय से अधिक समय ठहरने का नाम बंधन है । यद्यपि वह बंधन प्रथम समय से ही हुआ है, पर यह बंधन है, ऐसा जाहिरापन इस विधि से हुआ जब यह ज्ञात हुआ कि यह एक समय से ज्यादा भी ठहर गया । ऐसा यह बंधन जीव के भाव के निमित्त से होता है । वह कौनसा जीवभाव है जिस जीवभाव का निमित्त पाकर कर्मों में इस प्रकार का बंधन हुआ करता है । वह भाव है रागद्वेषमोह युक्त आत्मा का अध्यवसाय परिणाम । कर्मपुद्गल का जीवप्रदेश में रहने वाले कर्मस्कंधो में प्रवेश हो जाने का नाम ग्रहण है । वह होता है योग के निमित्त से और योग नाम है मन., वचन, काय की क्रिया वर्गणावों का, कर्मवर्गणाओं का आलंबन लेकर आत्मप्रदेशों का परिस्पंद होना । मन, वचन, काय के कारण योग नहीं होते, किंतु मन, वचन, काय की कर्मवर्गणावों के निमित्त से आस्रव होता है, योग होता है ।
वर्गणा―वर्गणा एक नाप का भी नाम है । उसे द्रव्य में भी लगाओ, क्षेत्र में भी लगाओ काल में भी लगाओ और भाव में भी लगाओ । जैसे कोई पिंडरूप वस्तु सामने रखी हो तो उसमें अनेक वर्गणाएँ हैं और किसी वस्तु में क्रिया हुई तो क्रियावों का भी नाप वर्गणावों से लगा लो । तो मन, वचन, काय को जो क्रिया वर्गणायें हैं अर्थात् कर्म हैं, क्रिया हैं उनका आलंबन लेकर जो आत्मप्रदेश परिस्पंद हुआ है उसका नाम योग है । एक वस्तुस्वातंत्रय की दृष्टि से जो यह कथन हुआ करता है कि जीव में इच्छा और ज्ञान हुआ उस इच्छा और ज्ञान की प्रेरणा पाकर आत्म-प्रदेशों में हलन-चलन हुआ और उस योग का निमित्त पाकर ओंठ, हस्त आदिक अंगों में क्रियाएँ हुई, उसके बाद वचन या अन्य पदार्थों का ग्रहण परिहार हुआ । इस कथन में और इस प्रकरण के कथन में कोई विरोध नहीं है । इच्छा की प्रेरणा पाकर जो आत्मप्रदेशों में योग हुआ है वह मन, वचन, काय की क्रियावों का आलंबन पाकर हुआ है, क्योंकि यह जीव अकेला नहीं है इस प्रसंग में । जो जितना मन, वचन, काय का आलंबन पाकर यह योग हुआ है इस योग से जो शरीर में वायु चली कि शरीर की क्रियायें हुईं वे वायु और क्रियाएँ जुदी चीज हैं।
क्रियावर्गणा―क्रियावर्गणा व योग के प्रसंग में कुछ ऐसा भी समझिये जैसा कि ध्वनि निकलती है तो ध्वनि निकलने में 2 प्रकार की वर्गणावों में संबंध होता है―एक महास्कंध और एक भाषावर्गणा स्कंध । जीभ, ओंठ, दांत, तालु के टक्कर से शब्द प्रकट नहीं हुआ है, किंतु यह तो है महास्कंध, जो पकड़ने में आता है, दिखने में आता है, इन महास्कंधों का तो संघट्ठन हुआ और उनके-उनके संघट्टन का निमित्त पाकर जो भाषावर्गणा के स्कंध हैं, जो आँखों नही दिखते, पकड़ में नहीं आ रहे उन भाषावर्गणा के स्कंधों से शब्द ध्वनि निकली है, इन ओठों से नहीं । यहाँ यह समझिये कि इच्छा की प्रेरणा पाकर मन, वचन, काय का आलंबन पूर्वक योग होता है । अब इस योग से योग के माफिक इस इच्छा के अनुकूल शरीर में वायु का स्पंद हुआ, उससे अंग चले, अथवा एक पद्धतिभेद से जुदे-जुदे भी भावदृष्टि में ला सकते हैं । यह है योग । इससे तो कर्मों का आस्रवण होता है ।
बंधविधान व उसकी प्रतिक्रिया―अब बंध जो होता है वह किस विधान से होता है? इसे सुनिये । कर्मपुद्गल का, विशिष्ट शक्तिरूप परिणमन से ठहर जाना ऐसा जो कब होता है ? वह जीवभाव के निमित्त से होता है । वह जीवभाव क्या है? जीव के शुद्ध चैतन्यप्रकाश के परिणमन से विपरीत ये कषाय मिथ्यात्व आदिक परिणमन हैं । इन परिणमनों के निमित्त से कर्मो का बंध हुआ है । मोहनीय कर्मों के उदय से जो विकार जगता है वह विकार कर्मबंध का कारण 'है । यहाँ यह बात समझना कि पुद्गल के ग्रहण का कारण होने से योग तो बहिरंग कारण है इस बंध में और विशिष्ट शक्ति, विशेष स्थिति जो उन वर्गणावों में पड़ी है उसका कारण है कषायभाव, जीवभाव । वह जीवभाव अंतरंग कारण है । वह बंध नामक हेय तत्त्व की व्याख्या चल रही है । हम आप पर यह बंध की विपदा पड़ी हुई है । इस जीवन की काल्पनिक विपदावों को छेदने में ही अपने उपयोग को लगा दें तो बुद्धिमान नहीं है । सब विपदावों का कारणभूत जो यह कर्मत्व की विपदा है उसके छेदने का यत्न करना चाहिए । वह यत्न है आत्मस्वरूप की दृष्टि । जैसा अपना स्वरूप है वैसा अपने को मानना, उस ही में रमना यह है बंध के विनाश की पद्धति । इसका हम यत्न करें और इसके लिए वस्तुस्वरूप का ज्ञान करें, ज्ञानार्जन करें तो इस ही उपाय से हमें सब उपाय बनाना आसान हो जायगा ।