वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 167
From जैनकोष
जस्स हिदयेणुमत्तं वा परदव्बम्हि बिज्जदे रागो ।
सो ण विजाणदि समयं सगस्स सव्वागमधरोवि ।।167।।
राग में ज्ञान की अवरोधकता―जिस पुरुष के हृदय में, परद्रव्यों के संबंध में अणुमात्र भी राग है वह आत्मा को नहीं जानता है । चाहे वह समस्त आगम का भी ज्ञाता हो, समस्त सिद्धांतरूपी समुद्र के पार भी पहुंचा हुआ हो फिर भी जिसके हृदय में राग की रेणु की कणिका भी अर्थात् राग की धूलीकण रंच भी जीवित हो रहा हो वह पुरुष रागद्वेषरहित शुद्ध चैतन्यस्वरूप मात्र स्वसमय को ही जानता है । तब स्वसमय की सिद्धि के लिए क्या उपाय करना चाहिए? उपाय यही होना चाहिए कि अरहंत सिद्ध मुनि आदिक के विषय में भी क्रम-क्रम से रागरेणु को दूर करना चाहिए ।
रागनिवारणपद्धति―जैसे रुई धुनने वाला जो एक पींजना होता है तो उससे रुई धीरे-धीरे धुन-धुन कर उसको पूरा धुन दिया जाता है । रुई चुनने वाले लोग जैसे 5 सेर रुई धुनना है तो 5 सेर रुई इकट्ठी ही रखकर उसमें पींजना नहीं लगाते, किंतु थोड़ा-थोड़ा उस पींजना से धुन-धुन कर उसे धुन दिया जाता है । एक बार गुरु जी सुनाते थे कि हम एक रजाई लेकर गये धुनिया के पास, एक दूसरा आदमी भी गया । आमने सामने दो धुनिया रहते थे । हमने एक धुनिया को रजाई दिया और दूसरे ने दूसरे धुनिया को दिया । दो-दो सेर रुई भरानी थी । तो हमारा धुनिया आधी-आधी छटांक रुई लेकर धुने और दूसरे का धुनिया सीधा दोनों सेर रुई लेकर धुने । तो हमने कहा कि तुम तो देर कर रहे हो, थोड़ी-थोड़ी लेकर धुनते हो, देखो वह दूसरा धुनिया इकट्ठी सारी ,रुई रखकर धुन रहा हैं । तो वह धुनिया बोला कि तुम्हें इसका तजुर्बा नहीं है । तुम तो देखते रहो, उससे पहिले और उससे बढ़िया हमारी रूई धुन जायगी । आखिर ऐसा ही हुआ । तो जैसे रुई धुनने का तरीका थोड़ी-थोड़ी क्रम से धुनने का है, इसी प्रकार अरहंतादिक भगवंतों के प्रति जो रागरेणु उठ रही है उसके दूर करने का तरीका धीरे-धीरे क्रम से है।
अशुभ राग से हटकर शुभ राग से हटने का उपदेश―कहीं शुभोपयोग की बंधहेतुता का प्रकरण सुनकर कोई ऐसा न कर बैठे कि इसमें तो यह लिखा है कि भगवान की भक्ति बंध का कारण है, इसे हटावो । प्रभुभक्ति और साधुसेवा आदिक ये सब बंध के कारण हैं और लिखा है कि इन्हें दूर करना चाहिए, पर यह भी तो मर्म समझना चाहिए कि इसके दूर करने का तरीका कैसा होना चाहिए? क्रम-क्रम से दूर करें । जैसे एक बहुत तेज प्रवाह को यों ही उसका बिना मार्ग बनाये या बिना क्रम बनाये रोके तो वह बांध तो फट जायगा । ऐसे ही इस प्रभुभक्ति के राग को अभी से बिल्कुल दूर करें तो इसका अर्थ यही है कि अन्य रागों में फिर लगे वह । इस तरह रुई धुनने के तरीके की तरह अरहंत आदिक के विषय में भी रागरेणु दूर करना चाहिए ।
राग की बंधहेतुता―यह राग निरुपराग परमात्मतत्त्व के विरुद्ध भाव है और निरुपराग परमतत्त्व विकार के विरुद्ध भाव है । राग स्वस्वरूप को नहीं जानने देता अथवा अनुभव नहीं करने देता, इस कारण विषयों का राग तो पहिले त्याग करना ही चाहिए । उसके पश्चात् जैसे-जैसे गुणस्थानों में ऊपर चढ़ते जाते हैं उस क्रम से रागरहित निज शुद्ध आत्मतत्त्व में ठहरकर विशुद्ध विश्राम मिलता है तब अरहंतादिक के विषय में भी राग त्याज्य हो जाता है । यहाँ यह सब बातें इसलिए कही जा रही हैं कि हम आप सबके निर्णय में यथार्थ बात तो रहना ही चाहिए । विषयानुराग और शुभानुराग । विषयानुराग का तो इनमें प्रथम ही त्याग होना चाहिए―पर शुभानुराग भी क्रम -क्रम से दूर करें और एक अपना शुद्ध परिणमन बनाएँ । इस गाथा में इस बात का समर्थन किया है कि जब स्वसमय की उपलब्धि नहीं है तब वह रोग भी बंध का हेतु बन जाता है ।
आगम का बोझ―इस गाथा में समस्त आगम का धारण करने वाला भी होकर रागरेणु वश स्वसमय का जाननहार नहीं होता, यह बताया है । इस संबंध में एक आशंका की जा सकती है कि जो समस्त आगम का ज्ञाता होगा वह तो श्रुतकेवली है और श्रुतकेवली नियम से सम्यग्दृष्टि होता है, फिर इस गाथा का अर्थ कैसे ठीक बैठेगा? समस्त आगम का धारण करनेवाला होकर भी परद्रव्यों में अणुमात्र भी राग होने पर स्वसमय को जाननहार नहीं कहा है, यह कैसे ठीक बैठेगा? इसका समाधान सुनिये―प्रथम तो स्वसमय का जानन पूर्णरूप से जान लिया जाय तो उसका अनुभव करना अर्थ कर दीजिए । तब आगम का भी कोई ज्ञाता हुआ, सम्यग्दृष्टि हुआ, श्रुतकेवली हुआ, किंतु उसका भी परिस्थितिवश किसी मुनि में शास्त्रादिक में कहीं उपयोग से राग पहुँच रहा हो तो उस काल में वह स्वयं को अनुभव नहीं कर रहा, प्रथम तो यह बात समझिये । दूसरी बात यह जानो कि यहाँ कहा है सर्व आगम का धारण करने वाला । तो धारण शब्द एक बोझ को सिद्ध करता है । समस्त आगम का बोध लादने वाला भी यदि परद्रव्य में अणुमात्र राग करता है तो वह स्वसमय को नहीं जानता है । इस आगम में बोझ के रूप में धारण करने की बात कहने से स्वयं ही यह सिद्ध हो गया कि वह आगम इतना ले लीजिये कि जितना सम्यक्त्व हुए बिना भी अधिक से अधिक ज्ञात किया जा सकता है । जैसे 11 अंग और 9 पूर्व की प्रसिद्धि तो है हो । इस आगम का जाननहार होकर भी वह सम्यग्दृष्टि न भी हो मिथ्यादृष्टि के भी इतना ज्ञान हो सकता है और मिथ्यादृष्टि में ही क्या, अभव्यजीव के भी उतना ज्ञान हो सकता है ।
निरुपराग आत्मतत्त्व की भावना―इस गाथा का भाव यह है कि परसमय के विषय रंचमात्र भी राग हो तो वह भी बंधनरूप है । वह राग भी त्याज्य है । इस तरह निरुपराग शुद्ध आत्मस्वरूप की ओर प्रवृत्ति करने का उत्साह देने के लिए शिक्षा दी गई है कि प्रशस्त रागविकल्प त्यागकर निरुपराग निज शुद्ध समयसार का अनुभव करना चाहिए ।