वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 11
From जैनकोष
दाणुण धम्मुण चागुण भोगुण वहिरप्पजो पयंगो सो।
लोहकसायग्गिमुहे पडियो मरियोण संदेहो।।11।।
दानादि कर्तव्यविमुख गृहस्थ की लोभकषायाग्निपतितता―श्रावकों के कर्तव्य के संबंध में कह रहे हैं कि उनके कर्तव्यों में दान, धर्म, त्याग और न्यायपूर्वक दान, ये चार बातें सही होनी चाहिए। यदि इनमें त्रुटि है, इनसे विमुख हैं श्रावक तो वह बाह्य पदार्थों को आत्मा ही जान रहा है तब ही तो विमुख है। आत्मा का आदर नहीं और बाह्य पदार्थों का आदर है तो इसका कारण यह ही तो हुआ कि उसने बाह्य को आत्मा माना। सो जो पुरुष बाह्य पदार्थों का महत्त्व आँकता है, उनकी ओर ही आसक्त रहता है वह तो दीपक पर पड़ने वाले पतिंगे की तरह मरा हुआ ही समझिये। पतिंगा तो दीपक पर पड़ता है और यह कर्तव्यहीन श्रावक लोभकषाय के वश होकर अग्नि में गिर रहा है। सो जैसे वह पतिंगा दीपक में गिरकर मर जाता है ऐसे ही लोभ कषाय में गिरकर यह गृहस्थ भी अपना जीवन बिता डालता है। जीव को दुःख देने वाला केवल लोभ है, तृष्णा है और लोभ तृष्णा का ऐसा संस्कार होता है कि रात दिवस उसको शांति नहीं मिलती और धार्मिक कर्तव्यों के लिए फुरसत नहीं। वह ऐसा दिमाग को बिगाड़ता है, लोभकषाय के काम भी नहीं, फिर भी धर्म कार्यों के लिए उमंग नहीं, फुरसत नहीं, तो जैसे पतिंगा दीपक पर गिरकर मर जाता है ऐसे ही कर्तव्यहीन श्रावक लोभ कषाय की अग्नि में गिरकर मरा हुआ ही समझिये और अंत में मर जाता है। ज्ञानी गृहस्थ की लोभविमुखता―जो ज्ञानी गृहस्थ है, जिसने सारभूत अपने अंतस्तत्त्व का परिचय किया है, जो आनंदमय ब्रह्मस्वरूप है उसका प्रसाद पाया है वह तो मिले हुए बाह्य वैभव को भार समझता है। वह जानता है कि इससे मेरे आत्मा को क्या लाभ है। आत्मा का लाभ तो अपने आपके चैतन्यस्वरूप की दृष्टि में है। जो भव्य इस चैतन्य स्वरूप की आराधना का जितना अभ्यास कर लेगा वह उतना ही सहज आनंद पाता है। तो ऐसे ज्ञानी पुरुष को बाह्य वैभव धन संपदा मिले तो क्या वह उन्हें व्यसनों में पड़कर खो देगा? अरे व्यसन तो उसके पास फटकते भी नहीं। वह तो अपने आत्मा में उस धन संपदा को बरबाद करेगा। उसे अपने आराम का भी ख्याल नहीं आता। आराम के मायने हैं जो भी अनावश्यक बातें की जा रही हैं उनको ही लोग आराम कहते हैं। जैसे यत्र तत्र घूमना, सिनेमा आदिक का व्यसन लगना, अन्य भी खोंटे व्यसन लगना, शतरंज या चौखट जुवा खेलना, अपने मकान को बहुत सजाकर रखना, इन सब को आवश्यक बनाना, उनको ही लोग आराम बनाते हैं, उनसे ही मौज मानते हैं पर ज्ञानी श्रावक को इनमें मौज नहीं मालूम देता। ज्ञानी की वैभवविरक्तता―ज्ञानी को अपने आपके ज्ञानानंदस्वरूप की दृष्टि की धुन है और उसे मिल जाय वैभव मिलता ही है तो उसका त्याग ही श्रेयस्कर समझता है। जो वैभव से विरक्त होता है उसको वैभव अधिकाधिक मिलता है। संसार में रहने तक उस जीव को ऐसा संगम हुआ करता है जिसके लिए कविजन अलंकार में कहते हैं कि भगवान ने, तीर्थंकर ने, अरहंत ने पहले सब परिग्रहों का त्याग किया, वीतराग बने, सर्वज्ञ हुए, उनके पाप परमाणु तो रहे नहीं। 8वें गुणस्थान से पाप प्रकृतियाँ पुण्य रूप में होने लगती हैं। पाप प्रकृतियाँ रही सही हों तो वे यों समझो कि जानरहित। वहाँ तो पुण्य का ही अभ्युदय है, भगवान हैं मगर अभी अघातिया कर्म तो साथ हैं। वेदनीय, साता, असाता वेदनीय, सुभग, यशकीर्ति ऐसी बढ़िया-बढ़िया प्रकृतियां तो उनमें अब भी पड़ी हुई हैं। पुण्य के प्रताप से लक्ष्मी मानो समवशरण के रूप में आयी है और प्रभु को छूना चाहती है। वह लक्ष्मी उत्तम गंधकुटी बन गई। उस पर सिंहासन हो गया। प्रभु को वह लक्ष्मी छूना तो चाह रही मगर प्रभु उससे चार अंगुल ऊँचे स्थित हैं। तो मानो लक्ष्मी ने सोचा कि नीचे से तो हमारा वश चला नहीं। हम ज्यों-ज्यों नीचे से छूना चाहते त्यों-त्यों ये प्रभु ऊँचे उठते हैं। अब नीचे से छूने न चलूँगी, अब तो ऊपर से गिरूँगी, फिर देखें कहाँ जायेंगे। सो तीन छत्र के बहाने लक्ष्मी भगवान के ऊपर से टपकी मगर वहाँ से चार अंगुल ऊपर ही छत रह गए। वह भी भगवान को छू न सके। देखो छाया होती हैं, उस छाया को मनुष्य पकड़ता है तो छाया उसके हाथ में पकड़ में नहीं आती, वह छाया उससे विमुख होकर आगे जाती है, और जब वह पुरुष उस छाया से विमुख होकर चलता है तो छाया उसके पीछे-पीछे चलती है। तो ज्ञानी पुरुष को इन वाह्य सत्तावान पदार्थों के प्रति ऐसा दृढ़ निर्णय है कि इन सबकी सत्ता मुझसे अत्यंत पृथक् है। यह मैं जीव एक सत् हूँ, बाकी अन्य समस्त पदार्थ मुझसे निराले हैं। समस्त पुद̖गल द्रव्य मुझसे निराले हैं। धर्म अधर्म, आकाश, काल इन सर्व द्रव्यों से मैं निराला हूँ। यह मैं ज्ञान मात्र चैतन्यस्वरूप परमार्थ सत् हूँ। स्वयं कुछ ज्ञान पाये बिना ज्ञानियों की करतूत की अच्छता पर अज्ञानियों को संदेह―ज्ञानीजन क्या करते हैं, कैसा विमुख रहते हैं, कैसी उनकी धुन रहती है, इस बात को अज्ञानी जन नहीं समझ पाते। किंतु जिनको विवेक है और आत्मतत्त्व का कुछ भी ज्ञान है, चित्रण हैं, उनकी समझ में आता है कि प्रभु ने जो किया वह सब ठीक किया। नहीं तो मोहीजन ऐसा सोच डालते हैं कि इसके दिमाग में क्या फितूर उठा। ऐसी कमायी छोड़ी, ऐसा घर बार छोड़ा ......। भले ही लोकरूढ़ि से सब विनय कर रहे तो यह भी विनय कर रहा मगर भीतर में उसके यह श्रद्धा नहीं बस सही कि प्रभु ने जो किया वह बिल्कुल ठीक किया था और अब जिस स्थिति में है सो बिल्कुल सही स्थिति है। यह बात अज्ञानियों के चित्त में बस नहीं पाती तब ही तो कोई त्यागी अकेला बैठा हो, कोई अधिक भीड़भाड़ न लगती हो, या कोई उसके पास न आता जाता हो तो लोग कहते हैं कि देखो इस बेचारे के पास कोई आता ही नहीं, उसे लोग बेचारा कहकर संबोधते हैं। बेचारे का अर्थ है बिना सहारा के, याने जिसका कोई सहारा नहीं, कोई चारा नहीं। और इधर बेचारा कहने वाला पुरुष अपने को परिवार के बीच रखकर, खूब हरा भरा, भरा पूरा, शरणसहित, सहारे सहित समझ रहा है। वह जानता है कि मुझे सब प्रकार का मौज है। मैं शरण सहित हूँ, मेरे को सब चारा है और यह है बेचारा। फिर भगवान तो उस त्यागी साधु संत से भी ज्यादह अकेले हैं। यहाँ तो फिर भी समाज का कुछ प्रसंग है। शरीर कर्म विभाग ये भी साथ हैं। प्रभु के साथ तो कुछ भी नहीं हैं तो उसे अब कितना बेचारा कहेंगे? अज्ञानियों को ज्ञानियों की करतूत में आस्था नहीं होती कि ये ठीक कर रहे हैं। पर विवेक कुछ भी जगे, थोड़ा भी ध्यान पहुँचे अपने आप की ओर तो यथार्थ समझ बनती है कि प्रभु ने ठीक किया। उत्तम दान क्या? कि समग्र वैभवों का परिहार करके निर्ग्रंथ होकर अपने आप में ही रमण करना यह कहलाता है उत्तम दान। इससे ऊँचा दान अन्य कुछ नहीं हैं और ऐसा न कर सके तो याने समस्त वैभवों का त्याग न कर सके तो उस वैभव का उचित काम में उपयोग करना, त्याग करना यह है दान। तो जहाँ दान नहीं हैं उन श्रावकों की स्थिति ऐसी हैं कि जैसे अग्नि में गिरने वाले पतिंगे की। वह लोभ कषाय की अग्नि में गिरकर मर जाता है। जिंदा रहते हुए भी मरे की तरह है। और तद्भव मरण में तो उस भव से मरा कहा ही गया। धर्मकर्तव्य विमुख भावक की लोभकषायाग्निपतितता―इसी प्रकार धर्म, धर्म नाम तीन जगह प्रयुक्त होता है, शुभ क्रियावों में भी धर्म का नाम चलता है और निश्चय से तो रागद्वेषरहित जो आत्मा का शुद्ध उपयोग है उसे धर्म कहते हैं। और, श्रावकजनों का यह प्रकरण है। उस वीतराग धर्म का प्रयोग तो सदा के लिए मुख्यतया है और श्रावकों के लिए प्रारंभ से ही कुंदकुंदाचार्य कहते आ रहे हैं कि ‘‘दाणं पूजा मुक्खो’’ श्रावकों का मुख्य कर्तव्य दान और पूजा है। इसके मायने यह नहीं कि ध्यान और अध्ययन तो श्रावकों का काम ही नहीं। काम तो है। जो आत्मा का हित चाहने वाला है उसका काम वह है ध्यान और अध्ययन मुख्यतया मगर श्रावक ने जिस स्थिति को अंगीकार किया है गृहस्थ की परिस्थिति में उसमें रहकर ध्यान और अध्ययन की मुख्यता नहीं बन सकती। वह स्थिति ही ऐसी है, पद है ऐसा, अतएव उनको दान और पूजा की मुख्यता है। इसी तरह आत्मश्रद्धा रखते हुए जो कुछ भी धर्म के लिए प्रयोग रूप आता है वह सब पुण्य विशेष से संबंधित चलता है। तो जो भी कर्तव्य बताये गये हैं जिनेंद्रदेव के शासन में उन धार्मिक कर्तव्यों को जो न करे वह श्रावक दीपक में पड़ते हुए पतिंगे की तरह है, याने लोभ कषाय की अग्नि में पड़ता है और अपनी आयु खोता है। श्रावक यह नहीं कर सकता कि आज त्याग की बात चल रही है, दान की बात चल रही है तो सब कुछ दूसरों को दे-दे, अपने पास कुछ न रखें......, गृहस्थी में रहकर ऐसा न निभ सकेगा। उत्तम दान करना तो जिन दीक्षा लेना है, यदि जिनदीक्षा का पक्का निर्णय हो तो सर्व सन्न्यास करे, मायने सबका त्याग करे और गृहस्थी में रहते हुए अगर सबका त्याग कर दे तो उससे ऐसा निभता नहीं है। फिर भी धन के प्रति अगर रंच भी श्रद्धा हो गृहस्थी में कि यह मेरे लिए हितरूप है तो वह अभी धर्म मार्ग में नहीं है। उसके तो तीव्र मोह का उदय है जो इन भिन्न सत्ता वाले पदार्थों से अपनी भिन्नता नहीं समझ सकता तो जिन श्रावकों के धर्म नहीं है वे श्रावक लोभ कषाय की अग्नि में गिरते हैं और मरते हैं। त्याग के अभाव में अज्ञानी की लोभ कषायायग्निपतितता―श्रावक के त्याग धर्म भी बताया है। जहाँ जो आवश्यक है उस कार्य के लिए अपने मन, वचन, कार्य की प्रवृत्ति को त्यागना और यथाशक्ति धन को त्यागना याने परोपकार के लिए और अपने उपकार के लिए जो स्व का अतिसर्ग होता है वह है त्याग। व्रतनियम विषयों की आशा का त्याग उपवास, शक्ति नियम को निभाना आदिक करने में एक मन के बेग का या कषाय का त्याग करना पड़ता है। वह भी त्याग है। तो अभक्ष्य का त्याग, अनावश्यक वस्तुओं के संग्रह का त्याग और तन, मन, धन, वचन का सही जगह उपयोग, यह सब त्याग है। यह वृत्ति जिनमें नहीं है वे लोभ कषाय की अग्नि में गिरते हैं और मरते हैं जैसे कि पतिंगे दीपक पर गिरते और मरते हैं। एक बार एक साधु प्रवचन कर रहा था कि त्याग से संसार समुद्र पार कर लिया जाता है और उसका बड़े विवरण के साथ उपदेश कर रहा था। रोज-रोज का यही उपदेश देने का काम था, और श्रोताजन रोज-रोज सुनने आया करते थे। एक बार उस साधु को किसी दूसरे गाँव जाने की भावना हुई और चल दिया। बीच में एक नदी पड़ती थी सो नदी के उस पार नाव से ही जा सकते थे। नाव भी किनारे लगी थी। उस साधु ने नाव में बैठने को कहा तो नाविक बोला कि इसका तो दो आने किराया है। अब साधु के पास दो आने पैसे कहाँ? वे पैसे तो रखते छूते नहीं सो उन्होंने सोचा कि चलो उस पार न सही, इसी किनारे सही। आखिर वह उसी पार बैठकर धर्मसाधना करने लगा इतने में कोई श्रोता उधर से निकला, साधु को बैठे देखा और पूछा―महाराज आप यहाँ कैसे बैठे हुए हैं? तो साधु बोला―हम नदी के उस पार जाना चाहते हैं। नाविक हमसे दो आने पैसे माँगता है। हमारे पास पैसे कहाँ, सो हम यहीं बैठ गए। वह श्रावक श्रोता बोला―महाराज आप हमारे साथ चलिये, हम नाविक को पैसे दे देंगे। आखिर वह साधु उस श्रावक के साथ नदी पार हो गया। नदी पार हो जाने पर श्रावक बोला―महाराज जी आप तो अपने प्रवचन में बहुत-बहुत बोल रहे थे कि त्याग से संसार समुद्र पार कर लिया जाता है। पर आप तो एक छोटी सी नदी भी पार न कर सके। तो साधु बोला―सेठ जी अभी आप भूल में हैं। यदि आपने चार आने पैसों का त्याग न किया होता अंटी में बाँधे रहते तो कहाँ से हम तुम दोनों नदी पार कर पाते? अच्छा अब एक बात और भी देखो―हम आपको संसार का जो भी सुख मिल रहा है वह भी त्याग से मिल रहा है। पहली बार तो यह है कि पूर्व भव में त्याग निभाया, उससे जो पुण्यबंध हुआ उसके उदय में ये समागम मिल रहे। विषयसुख त्यागे बिना विषयसुख भोगने की भी अपात्रता―आप सबके अनुभव की बात यह है कि आप को इच्छा है भोजन की तो अब आप खूब रात दिन भोजन करते रहो, सो ऐसा किया भी नहीं जा सकता। जब आप भोजन का कुछ घंटों का त्याग कर देते हैं तभी आपको एक मीठी सी भूख लगती है और भोजन आपको प्रिय लगता है। खूब मौज मानते हुए खा लेते हैं। तो भोजन करने लायक आप कब रहे, जबकि भोजन का त्याग किया। नहीं तो आप भोजन करने के लायक न रहते। जो भोजन के आशक्त लोग हैं, भोजन को जो रातदिन छोड़ते ही नहीं। भले ही जब उनके गले में भोजन न उतरे तब वे बंद करें तो ऐसा करने वालों के होता क्या है? प्रायः देखने में आता कि उनका दस्त साफ नहीं होता, कभी सिर दर्द बना रहा करता कभी पेट दर्द। अनेक प्रकार की बीमारियाँ भी उनके शरीर में घर पर जाया करती हैं। तो जैसे भोजन का त्याग किए बिना भी उसका सुख नहीं पाया जा सकता उसी प्रकार सब इंद्रियों की बात समझ लो। यदि इंद्रिय के विषयों में आप बराबर लगे रहें तो आप का जीवन बरबाद हो जायगा। आप उन इंद्रिय विषयों में मौज मानने लायक भी न रहेंगे। विषय भोग का त्याग कर दिया तो कुछ समय बाद आप उस विषय का भोग कर सकने के पात्र हो सकेंगे। एक नासिका इंद्रिय का ही विषय ले लो। नासिका इंद्रिय ये यदि कोई बहुत-बहुत तेल फुलेल पुष्पादिक से उसकी सुगंध लेता रहे तो वह उस सुगंध से ऊब जायगा। उस सुगंध का आनंद खतम हो जायगा। इस बात को तो शायद आप लोगों ने करके भी देखा होगा। और बीच-बीच में कुछ घंटों के लिए उस सुगंध का त्याग कर दिया तो फिर वहाँ आप को गंध सुहावनी लगेगी। तो त्याग के बिना संसार का सुख भी नहीं भोगा जा सकता। इसी संबंध की बात और भी सुनें। चक्षुइंद्रिय की बात--आँखों को जो प्रिय लगे―जैसे सनीमा या जो कुछ, आप टकटकी लगाकर खूब लगातार देखते रहें तो एक तो उस आनंद में भी कमी आ जायगी, दूसरे―आप ऐसा लगातार कर भी नहीं सकते। आप की पलक गिरेगी, उस देखने का त्याग करना पड़ेगा, फिर आप देखने के पात्र हो सकेंगे। ऐसे ही कर्णेंद्रिय की बात सुनें―मान लो कोई बड़ा अच्छा गाने वाला हो। उसकी राग रागनी में आप को बड़ा आनंद मिल रहा हो, वह शाम को मानो 7 बजे गाने के लिए बैठ जाय, सारी रात आप उसके गाने सुनते रहे। मान लो रात्रि के 2-3 बज गए तो वहाँ आप गायन सुनते-सुनते खूब ऊब जायेंगे और अंत में कह उठेंगे कि भाई अब तो अपना गायन बंद कर दो। लगातार कोई बहुत समय तक सुनता रहे तो उसके आनंद में कमी आ जायगी। यदि कुछ समय के लिए उस राग रागनी का सुनना बंद कर दे, तो फिर उसे उसमें आनंद मिलेगा। ऐसा ही मन का भी विषय है। मान लो आपको खूब मन माफिक यश कीर्ति प्रशंसा की बात मिल रही, आपका बहुत-बहुत स्वागत हो रहा, यही बात निरंतर चलती रहे तो आप उससे भी ऊब जायेंगे, और कभी कुछ साधारण सी स्थिति आ जाय, उस यश कीर्ति प्रशंसा की बात में कुछ कमी आ जाय, बाद में फिर वैसी ही बात आप को देखने को मिले तो उसमें आपको विशेष आनंद मिलता है। तो बिना त्याग के कोई इंद्रिय सुख भी अच्छी तरह नहीं भोगा जा सकता। त्याग बिना कुछ बात अच्छी नहीं बनती। जिन श्रावकों के त्याग धर्म नहीं है वे श्रावक दीपक में गिरते हुए पतिंगे की तरह लोभकषाय की अग्नि में गिरते हैं और मरते हैं। अन्यायपूर्वक भोगपरिहार किये बिना प्राणी के कल्याण का अपात्रपना―इसी तरह एक अंतिम बात सुनें―भोगों को न्यायपूर्वक भागें, यह श्रावकों का एक कर्तव्य है। यदि श्रावक के न्यायपूर्वक भोगों का भोगना न रहा, अन्याय अनीति से ही अपने इंद्रिय और मन को पोषता रहा तो वह लोभ कषाय की अग्नि में गिरता है और अपने आत्मा का घात करता है। न्यायपूर्वक भोग भोगने वाला गृहस्थ भी प्रशंसा के योग्य है। गृहस्थ धर्म भी मोक्षमार्ग में है, मुनिधर्म भी मोक्षमार्ग में है, और आज के समय में तो दोनों की एक सी स्थिति है। श्रावक तो आजकल मोक्ष जा नहीं सकते। किंतु आज के मुनि भी मोक्ष नहीं जाते और जितने ऊँचे पद तक देव-गति में स्वर्ग तक मुनि जा सकते हैं उतने ऊँचे स्वर्ग तक सही श्रावक भी जा सकते हैं। आज स्थिति दोनों की समान है पर मुनि धर्म की विशेषता यों चलती है कि यदि वह अच्छे भावों का वातावरण बनाये रखे तो उसे यह बात सुगमता से बन जाती है। इसके लिए उपयोगी है, पर न्यायपूर्वक भोग भोगने वाला गृहस्थ मोक्षमार्ग से भ्रष्ट नहीं है। जो अन्याय से भोगो वह भ्रष्ट है और वह लोभ कषाय की अग्नि में पतित होकर मरता है।