वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 126
From जैनकोष
चउगइं संसारगमणकारणभूयाणि दुक्खहेऊणि।
ताणि हवे बहिरप्पा बत्सु सरूवाणि भावाणि।।126।।
बहिरात्मा के दुःख हेतु रूप भाव मूर्तिपना―नरक तिर्यंच, मनुष्य देव इन चार गतियों के भ्रमण करने के कारणभूत जितने भी दुःख के कारण हैं वे सब बहिरात्मा के भाव हैं। बहिरात्मा का अर्थ है बाहर के भावों में अपना सत्त्व स्वीकार करना। यह ही सबसे बड़ा भारी अज्ञान है। जीव जो भी दुःखी हैं वे इस अज्ञान से दुःखी हैं। लोक में धन मिल जाय क्या उससे दुःख मिटता है? लोक में कोई बड़ा देश पद मिल जाय, क्या उससे कष्ट मिटता है? अथवा नाना प्रकार के विषयसाधन मिल जायें क्या उससे कष्ट मिटता है? कष्ट है अज्ञान। अज्ञान हटे और आनंद धाम ज्ञानघन अविकार निज सहज स्वरूप की अनुभूति बने वहाँ कष्ट नहीं रहता। इसके लिए अपने ही भावों में से बड़े त्याग की आवश्यकता है। बाह्य त्याग की बातें नहीं कर रहे। बाह्य त्याग हो जाना तो साधारण बात है। जिसके अंदर विभावों का त्याग हो गया उसके लिए बाह्य का त्याग तो अत्यंत सुगम है। त्याग चाहिए यहाँ कि मैं चैतन्य स्वभाव मात्र हूँ। इस मुझ में जो भी अड़चन मलिनता विभाव विकार होते हैं वे मेरे स्वरूप से नहीं होते। मेरे स्वरूप की कला ही नहीं है ऐसी कि निज में अपने आप सहज विकारभाव हो जाय ऐसा सहज शुद्ध ज्ञानभाव का परिचय न होने से बहिरात्मा के सब भाव दुःख रूप हैं। कर्मविपाक रस का उपयोग में प्रतिफलन―यह सब कर्मानुभाग की छाया है। जैसे यह जीव इतने पदार्थों को निरखता है तो इसका आकार पड़ा ना भीतर। जिसे कहते हैं ज्ञेयाकार। तो जैसे ये बाह्य पदार्थ ज्ञेयाकार होते ऐसे ही अंदर जो कर्मविकार होते हैं अपनी स्थिति पर कर्म में से उसका अनुभाग खिलता हुआ जो यहाँ से जाता है तो उस खुले हुए कर्म का ज्ञेयाकार यहां बना। अंतर इतना है कि हम बाह्य ज्ञेयाकारों को जब जानें उपयोग लगायें तब हुआ। अगर यहाँ हम उपयोग न लगायें न जावें तो भी यह ज्ञेयाकार झलकता है। बाह्य ज्ञेयाकारों में फोटो आता, इन ज्ञेयाकारों से उपयोग का आलंबन हो जाता और अंदर में कर्मरस के ज्ञेयाकारों से आच्छन्न हो जाना इन दो में अंतर इतना है कि हम कर्म रस को जाने या न जाने, वहाँ तो ऐसा निमित्त नैमित्तिक भाव है कि कर्म विपाक रस उदय में आया कि उसको प्रतिफलित होना ही पड़ेगा। बाह्य ज्ञेयाकारों में हम उपयोग बसाते हैं तो यह ज्ञेयाकार झलकता है। अगर बहिरात्मा की और परमात्मा की एक होड़ लगाते हो तो यहाँ होड़ देख लीजिए। परमात्मा के ज्ञान में तीन लोक अलोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थ अवश होकर उनको झलकने पड़ते हैं। परमात्मा कहीं जानने की चाह नहीं करता, किंतु वहाँ ऐसा ही सहज योग है कि समस्त लोक अलोक के पदार्थों को झलकना पड़ता है। तो हे बहिरात्माजन तुम भी परमात्मा से शान के साथ कहो कि मुझमें भी जो कर्मानुभाग विपाकरस उदित होते हैं उनको भी मुझमें झलकना पड़ता है। हम उन्हें जाने अथवा न जाने, अर्थात् बुद्धि पूर्वक हम उनको समझकर झलकायें या न झलकायें ऐसा कहलाता है। यह निमित्त नैमित्तिक योग। निमित्त नैमित्तिक भाव के यथार्थ परिचय से विकार भावों को हटा सकने की उमंग―अब यहाँ एक शंका की जा सकती है कि जब ऐसा निमित्त नैमित्तिक योग है तो कर्म उदय में आयेंगे। यहाँ रागभाव बनेगा फिर स्वयं होगा उदय योग। राग भाव बनेगा तो इसको छूटने का मौका ही न मिलेगा। तो समाधान देखिये पहली बात तो यह जानें कि मुझमें उठने वाले ये विकार भाव नैमित्तिक है, औपाधिक हैं मेरे मात्र स्वरूप की कला नहीं है, परिणमा तो यह जीव है विकार भाव रूप, मगर कर्म विपाक कर्म अनुभाग का निमित्त पाकर हुआ है अतएव यह नैमित्तिक है और नैमित्तिक है इसलिए ये हट सकते हैं। अगर स्वरूप में से उठे होते, स्वरूपतः हुए होते तो ये मिटाये न जा सकते थे। चूँकि ये औपाधिक हैं, पर भाव हैं। निमित्त पाकर हुए हैं अतएव ये मिटाये जा सकते हैं। पहली उमंग तो यह लें निमित्त नैमित्तिक भाव के परिचय से साथ ही यह समझना कि निमित्त मेरी परिणति नहीं करते अगर ऐसा करते होते तो मेरा कुछ वश न था तो ऐसी कायरता भी न सोचना। निमित्त मुझमें विकार परिणति नहीं करता, इस कारण से मेरा वश चल सकता है यह उमंग लावें वस्तुस्वातंत्रय के ज्ञान से और निमित्त नैमित्तिक भाव के ज्ञान से यह उमंग लाइये कि चूँकि ये नैमित्तिक हैं, औपाधिक हैं इसलिए ये हटाये जा सकते हैं। नदी प्रवाह कम होने पर नदी पार कर लेने के अवसर की भाँति कर्मानुभाग मंद उदित होने पर संसार पार कर लेने के प्रारंभिक उद्यम के अवसर का लाभ―अब दूसरी बात देखिये कर्म का बंध होता है तो जैसे मानो अबसे 1॰॰ साल पहले हुए थे और हुए थे मानो एक लाख वर्ष के लिए तो आबाधा काल का थोड़ा समय छोड़कर बाकी जितना एक लाख वर्ष है, उन सब समयों में एक समय का बँधा हुआ कर्म बट जायगा। जैसे-जैसे दूर-दूर का समय है कर्म परमाणु थोड़े-थोड़े मिलेंगे पर उनमें अनुभाग शक्ति अधिक-अधिक पड़ेगी इसका बटाव भी देखिये कैसा वैज्ञानिक है आखिर वैज्ञानिक भी तो यह देखते हैं कि जितने सूक्ष्म स्कंध होंगे उतना ही उसमें सामर्थ्य होगा। यहाँ भी यह ही क्रिया प्रक्रिया है। एक समय में बँधे हुए कर्म सारी स्थिति के समयों में बट जाते हैं। तो आगे-आगे कर्म परमाणु कम मिलते हैं, पर शक्ति अधिक होती जाती है। अच्छा उसके एक मिनट के बाद के बँधे हुए कर्म वे भी बट गए लाखों वर्षों तक, उसके बाद के तीसरे चौथे आदिक समयों में बँधे हुए कर्म वे भी बँट गए। अब किसी समय अनुभाग शक्ति सामर्थ्य विपाकरस कितना होगा कि उन सब बची हुई शक्तियों का अनुपात जो बैठेगा वह उदय में होगा। जैसे 1॰ औषधियों की लेकर एक गोली बनाया, उसमें कोई औषधि ठंडी प्रकृति की होती कोई गर्म प्रकृति की, कोई वायु विनाशक, कोई कैसी ही, पर गोली में क्या अनुभाग आयगा? जो खायगा सो, वह एक-एक दवाई वाली बात न आयगी, उसका मिलकर जो अनुभाग बैठेगा वह सामर्थ्य होगा। तब ही तो वैद्य अगर कहता है कि ये 8 चीजें हैं इनका काढ़ा बनाकर पीलो, तो क्या ऐसा करता है कि एक-एक चीज का काढ़ा बना ले 8 अलग-अलग कटोरियों में और उन्हें पीता रहे तो उसमें वह बात नहीं आ सकती, तो ऐसे ही जो अनुपात में अनुपात हुआ वह कर्म विपाक में होता है तो ऐसा अवसर आता है कि जिस समय वह अनुभाग बहुत ही हीन सामर्थ्य में हुआ और मिला मन तो उनकी बुद्धि चलती है। विवेक चलता है और जहाँ एक बार रास्ता तो मिला फिर यह ज्ञान बल उन कर्मों को निर्बल करने का निमित्त होता चला जाता है, यह दूसरी बात हुई। अविकार सहज ज्ञानस्वभाव के अनुभाव से प्राप्त ज्ञान बल का महत्त्व―अब तीसरी बात देखिये इस जीव में अनेक भव-भव के बँधे हुए कर्म उदय में आ रहे। बहुत से कर्म उदय में आ रहे मगर इसका बिगाड़ है मोहनीय कर्म के उदय में मानो वीर्यांतराय का उदय है। ताकत कम है बनी रहे, उसका क्या नुकसान है, अगर मोहनीय कर्म का प्रबल उदय न हो तो उसका क्या नुकसान है? रहो नाम कर्म के उदय में शरीर कुरूप मिल गया बेढंगा मिल गया, बौना मिल गया, जैसा चाहे मिल जाय, मोहनीय कर्म का तीव्र उदय न हो तो उसका कोई नुकसान नहीं। जीव का नुकसान है मोहनीय कर्म के विपाक से। उस मोहनीय कर्म के विपाक का जो प्रतिफलन होता है जीव में उस प्रतिफलन में अगर उपयोग लगे तब तो उसको विडंबना बढ़ती हैं और प्रतिफलन हो और उपयोग उसमें न लगे तो विडंबना नहीं बढ़ती। तो जब ज्ञानी ने एक बार अविकार सहज ज्ञानस्वरूप अनुभव पाया तो अब उसमें इतना बल आया कि जब कभी वह सबसे हटाकर अपने अविकार सहज ज्ञान स्वरूप में ले जायगा। अनुभूति प्रतीति और इस स्थिति के बल से जब उन कर्म विपाक में उपयोग न लगेगा तो वह अव्यक्त होकर खिर जायेगा उससे बल यह मिलता है और यह जीव कर्मों का ध्वंस कर अपने कैवल्य को पा लेता है यह भी भाव अंतरात्मा का है। आत्मज्ञान के अभाव में आत्मविडंबना―जिसने अंतस्तत्त्व का भाव नहीं पाया वह जगत में कोट्याधीश भी हो तो भी दरिद्र है क्योंकि संतोष की कुँजी तो उसे नहीं मिली। बाहरी साधनों में वैभवों में संतोष माने मौज माने यह तो उसका अज्ञान है। संतोष रखा कहाँ? और यह ही कारण तो है कि कोई मनुष्य कभी मौज मानता है तो थोड़ी देर में कष्ट मानता है। ज्ञानी पुरुष का यह निर्णय है। वह समझता है कि कष्ट है क्या? बाह्य पदार्थ है, उनका परिणमन है बाह्य जीव है, उनकी कषाय के अनुसार परिणमन है उनका उनमें परिणमन है वे मेरे में नहीं आते और फिर उस अमूर्त ज्ञान मात्र अविकार चैतन्य स्वरूप। इसमें पर के प्रवेश का कोई प्रश्न ही नहीं है। उसमें किसी का दखल नहीं है पर अज्ञानी जीव दखल देता रहता है। इसे कहो इकतरफा बुराई जैसे कहते हैं ना पार्श्वनाथ और कमठ में कई भवों के झगड़े में देखो तो कमठ इकतरफा क्रोध करता रहा। पार्श्वनाथ के जीवन तो कभी क्रोध नहीं किया और कमठ का जीव जिस-जिस भव में गया उस-उस भव में क्रोध करके उसको कष्ट पहुँचाया तो ऐसे ही यहाँ देखिये ये बाहरी पदार्थ कोई भी मुझ में बुराई न करेंगे कर ही नहीं सकते उनका सामर्थ ही नहीं। किसी भी बाह्य पदार्थ का मुझ में प्रवेश ही नहीं। मैं ही खुद अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत होकर बाह्य पदार्थों को विषय बनाकर कल्पनायें करके विरोध करते हैं तो दो के प्रसंग में याने ज्ञान और एक बाह्य ज्ञेय इन दो के प्रसंग में यह ज्ञान वाला जीव ही इकतरफा बुराई कर रहा है दूसरा पदार्थ कुछ भी बुराई नहीं कर रहा है। बहिरात्मा की चतुर्गति दुःख हेतुभूत अज्ञान भावमयता―यहाँ बतला रहे कि यह बहिरात्मा जीव उन-उन सब भावों स्वरूप है। जो-जो भाव चार गति रूप संसार में भ्रमण करने के कारण होते हैं। जैसे किसी ने पूछा कि हमको धर्म तो बताओ क्या है? तो आप उसे प्रभु के पास लावो ओर दिखाओ कि यह बैठा है धर्म वह धर्म स्वरूप है अच्छा वह न मिले तो किसी ज्ञानी साधु के पास जावो और बता दो कि यह बैठा हुए धर्म। और कोई पूछे कि पाप किसे कहते? तो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा पर संकेत करके बता दें कि यह है पाप। अज्ञान ही महा पाप है जैसे सरोवर भरा है पर उसके ऊपर एक कोई चादर बिछा दे एक कल्पना करो कि थोड़े जल में सही थोड़ा उसके ऊपर कोई कपड़ा डाल दें तो अब वह नहाये कहाँ? अंतर तो जरा सा है पर नहा नहीं सकते तो ऐसे ही यह आत्मा ज्ञान सरोवर है और उसके ऊपर भ्रम की चादर पड़ी है तो मगर भ्रम की चादर आड़े आने से अब यह उपयोग अब यह आत्मा इस ज्ञान सरोवर में स्नान नहीं कर पाता। कितना अंतर है मूल में। क्या अंतर हैं? हाथ में कोई चीज लिए हो सोने की अगूँठी ही सही और ख्याल आ जाये कि अंगूठी भूल आये। बस इस ख्याल ने इस उपयोग को ऐसा आच्छन्न कर दिया कि वह दूसरे जगह-जगह तलाशता है संदूक भी खोलेगा तो वह दूसरे हाथ से ही खोलेगा, कभी उसी हाथ से भी खोले तो मुट्ठी बाँधे ही खोलेगा। उस अज्ञान ख्याल से ऐसा दब गया है कि वह ऐसी सुध नहीं कर पाता कि उस मुट्ठी को खोलकर देखे कि इसमें बँधा क्या है? ऐसे ही जिसको आत्मा के सहज स्वरूप का ख्याल नहीं है भूल गया अपने को है खुद और खुद को भूल गया तो यह जगह-जगह ढूंढ़ता है पर ऐसा अपने आप में अपने भीतरी प्रकाश का खेल नहीं देखता है कि आखिर जो जाननहार है वह कौन है? बाह्य पदार्थों से जानेगा, उमंग से जो जानेगा उन में बल पूर्वक जानेगा पर जाननहार कौन है? यह जीव पर भ्रम छाया है तो उसकी हालत क्या होगी? दुःख रूप। अज्ञान बसा है तो उससे ये सब कार्य आटोमैटिक चल रहे। पशु पक्षी बने ममता करे प्रीत करे हाय-हाय करें दूसरे के ध्यान में अपने आप को आकुलित करें यह सब विडंबना होना आटोमैटिक है। जब ऐसा ही योग है तो होता ही है सो जितने भी दुःख भाव हैं वे सब बहिरात्मा के भाव है।