वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 75
From जैनकोष
एकस्य भोक्ता न तथा परस्य चितिद्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव || 75 ||
720―भोक्तृत्व अभोक्तृत्व के विकल्प से अतिक्रांत पुरुष को समयसारानुभव का अधिकार―प्रकरण यह चल रहा है कि जो नय पक्षों के विकल्प से अतिक्रांत होकर मायने गुजर कर जो एक निज सहज स्वभाव में गुप्त होता हुआ अपने में विश्राम पाता है वही इस सहज परमात्मतत्त्व अमृत का पान करता है । इस संबंध में कुछ विषय ऊपर के कलशों में कहा ही गया है । अब यह कह रहे हैं कि एक दृष्टि में तो यह जीव भोक्ता है और एक दृष्टि में यह जीव भोक्ता नहीं है । ऐसा इस चेतन में दो दृष्टियों के दो नयपक्ष हैं, उन दोनों से जो अतिक्रांत हो जाता है वही साक्षात् समयसार अमृत का पान करता है । क्या पक्ष आया? व्यवहार नय के पक्ष में यह जीव भोक्ता है तो इसमें यह नहीं समझना कि व्यवहारनय यह कह रहा हो कि जीव पर वस्तु का भोक्ता है । पर वस्तु का भोक्ता कहना यह उपचार से है, व्यवहारनय से नहीं । व्यवहारनय से यह जीव अपने राग-द्वेष सुख दु:ख ज्ञान विकल्प आदि के जो परिणाम करता है उन परिणामों को भोगता है ।
721―निश्चयनय, व्यवहारनय व उपचार के कथन का विश्लेषण―एक बात सर्वत्र ध्यान से समझना चाहिए कि वर्णन होता है मुख्यतया तीन भाषाओं में । (1) निश्चयनय, (2) व्यवहारनय और (3) उपचार । निश्चयनय और व्यवहारनय ये दोनों प्रमाण के अंश हैं । इस कारण जैसे निश्चयनय प्रमाण का अंश होने से सत्य है, किंतु जो उपचार है वह उपचार पर-स्वामित्व पर-कर्तृत्व की बात कहता है, इस कारण वह मिथ्या है । जैसे मेरा मकान यह है, पर पदार्थ और अपना बतलावे तो यह उपचार भाषा है, प्रयोजन तो यहाँ भी देखा जायेगा । इस समय की पर्याय में यह जीव इस मकान में रहा करता है इस कारण ऐसा कहा जा रहा है । तो प्रयोजन देखना और बात है और उपचार भाषा में जैसा बोला जाता है उसी तरह कोई उपादान दृष्टि से समझे तो वह मिथ्या है । अब एक सावधानी हर जगह बर्तनी पड़ेगी कि व्यवहारनय के कथन व्यवहार के शब्द से कहे गए हैं और उपचार भाषा के कथन भी व्यवहार शब्द से कहे गए हैं । तो जहाँ भी यह वर्णन मिलेगा खूब निगाह से देखते जाना, जिस व्यवहार को मिथ्या कहा है वह व्यवहार उपचार वाला है व्यवहारनय के विषय वाला व्यवहार नहीं । यह बात आपको समस्त सिद्धांत में मिलेगी । तब फिर बात क्या बन गई है । जैसे कि दूध दूध सब होते हैं । गाय के दूध को भी दूध कहते, भैंस, बकरी आदि के दूध को भी दूध कहते और आक के दूध को भी दूध कहते, मगर आक के दूध पीने से मृत्यु होती है । तो ऐसा सुनकर एकदम यह बात सब जगह न बोलना चाहिए कि दूध जितने होते हैं वे सब प्राणघातक होते हैं । वहाँ यह विवेक रखना होगा कि आक का दूध पीने से प्राणघात होता है, पर गाय, भैंस, बकरी आदि का दूध तो प्राणघातक नहीं, वह तो पौष्टिक होता है । तो सर्वत्र यह सावधानी बर्तनी होगी कि उपचार वाला व्यवहार मिथ्या है और व्यवहारनय का जो व्यवहार है वह प्रमाण का अंश है । यह बात सूक्ष्मता से मनन करते हुए जब अध्ययन करेंगे तो आप सर्वत्र यह बात पायेंगे । जैसे आत्मा पर पदार्थों को भोगता है, इन विषयों को भोगता है, ऐसा कहना उपचार है और यह मिथ्या है क्योंकि आत्मा अपने ज्ञान विकल्प को भोगता है, पर पदार्थों को नहीं भोग सकता, लेकिन ऐसा कहा क्यों जाता है? उपचार में प्रयोजन हुआ करता है, वह जरूर समझ लेना चाहिए । जैसे किसी ने कहा घी का घड़ा उठा लावो तो घी का घड़ा, ऐसी सही बात तो नहीं है । अर्थात् घी से घड़ा बना तो नहीं है जिससे वह घी का घड़ा हो जावे पर प्रयोजन पर दृष्टि तो दो । देखो रोज काम होता है, रोज बोलते हैं घर में किसी बालक से कहते हैं बेटा घी का घड़ा उठा लावो तो वह बालक भूल तो नहीं करता, वह घी का घड़ा उठा लाता है जिसके लिए संकेत किया, समझ गया वह बालक । अब घी का बना है वह घड़ा, ऐसा तो वह बालक भी नहीं समझता । तो प्रयोजनवश उसमें उपचार हुआ करता है, पर प्रयोजन उपचार की शैली में व्यक्त होता है । जिस तरह बोला जाये वैसा ही मानना मिथ्या है । जब यह कहा जाये कि जीव विषयों को भोगता है, तो वहाँ प्रयोजन देखें, याने विषयभूत पदार्थों का आश्रय करके यह जीव अपने ज्ञान विकल्प को भोगता है, इतना प्रयोजन लेकर समझें तो उपचार का उसने प्रयोजन जाना, और प्रयोजन को छोड़कर ऐसा कोई समझे कि जीव इन बाहरी पदार्थों को भोगता है तो यह बात मिथ्या है ।
722―विकल्प और विकल्पातिक्रांत की स्थिति का दिग्दर्शन―भोगने का क्या अर्थ है? अनुभवन । अनुभवन किसका होता है । तो यहाँ जो दो दृष्टियाँ रखी गई हैं कि जीव भोक्ता है और एक दृष्टि में जीव भोक्ता नहीं है तो उससे क्या बात समझना कि जीव अपनी परिणतियां भोगता है । यह बात कही व्यवहारनय ने और शुद्धनय ने क्या बतलाया कि जीव भोक्ता है ही नहीं, क्योंकि शुद्धनय निरख रहा है उस परिणत परम भाव को उस सहज चैतन्यस्वभाव को, उस अनादिअनंत अहेतुक भाव को, तो उसमें तरंग ही नहीं । दृष्टि में तरंग नहीं, वस्तु में तरंग नहीं, यह बात नहीं कही जा सकती । आत्मा में तरंग तो है क्योंकि आत्मा एक वस्तु है और वह द्रव्य पर्याय दोनों के बिना नहीं उठ सकती । अगर आत्मा के स्वभाव को निरखा जाये तो वह निस्तरंग दिखता है, अविकार जैसे कि आरती में पढ़ते हैं―ॐ जय-जय अविकारी । तो उस अविकारी स्वभाव की दृष्टि में जीव भोक्ता नहीं है, यह निश्चयनय का विषय है ऐसे दो पक्ष रखे गए । इस आत्मा में व्यवहार विकल्प नहीं हो, जो व्यवहार को न माने और निश्चय के पक्ष को माने तो उसने एक पक्ष का तो उल्लंघन किया, मगर दूसरे का तो नहीं कर सका । और पक्षों का अतिक्रमण हुए बिना जीव कभी समयसार का अनुभव नहीं कर पाता । कोई निश्चयनय के पक्ष को तो न माने, व्यवहार के पक्ष से तो मानो वह पहले से ही बरी हुआ रह रहा था और व्यवहारनय के पक्ष का विकल्प कर बैठे तो वह कैसे निज का अनुभव करेगा? तो यह जानना कि व्यवहार का पक्ष और शुद्धनय का पक्ष इन दोनों पक्षों से जो च्युत है, अतीत है ऐसा भव्य जीव ही तो साक्षात् अमृत का पान करता है । यहाँ कुछ अनुभव से अपनी घटनाओं पर दृष्टिपात करो । आप हर जगह देखेंगे कि व्यवहारनय और निश्चयनय दोनों एक साथ निहित हैं ।
723―उपभोगविकल्प के आश्रयभूत पदार्थ की भिन्नता के कारण जीव द्वारा बाह्य पदार्थ के उपभोगने की असंभवता―जब कभी कोई चीज खाते हैं जैसे कोई मिठाई ले लो या कोई फल ले लो, तो उसके खाते समय में एक कुछ मौज सा मानते हैं और उसके संबंध में कुछ ऐसा समझते कि मैं इसे भोग रहा हूँ पर वहाँ एक बात तो बतलाओ कि जिस चीज को खाया जा रहा है वह पुद्गल है ना? आत्मा खाता है या नहीं इसकी एक अलग कथा है, मगर जो खाना चल रहा है उसकी बात पूछ रहे हैं कि जो खाने में आ रहा है वह तो पौद्गलिक पदार्थ है ना? याने जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श हैं वे ही हैं ना? तो स्वाद किसमें है? उस फल में उसका स्वाद, उसमें किसमें तन्मय है? उस मिठाई में । रूप, रस, गंध, स्पर्श ये किसमें तन्मय हुआ करते हैं? उस ही पुद᳭गल में जिसका रूप, रस, गंध, स्पर्श हो । देखो भेद कहीं सीमा का अतिक्रमण करके नहीं होता है । एक आपको दृष्टांत बता रहे । बौद्धों ने और अधिक भेद किया मानो भेद विज्ञान में वे अपनी एक हद से आगे बढ़ गए । कैसे बढ़ गए? यहाँ तो माना जाता है कि प्रत्येक परमाणु रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड है याने परमाणु चतुष्टयात्मक है पर बौद्ध ऐसा नहीं मानते । वे यह कहते हैं कि रूप परमाणु अलग है, रस परमाणु अलग है, गंध परमाणु अलग है और स्पर्श परमाणु अलग है । एक अणु में चारों पाये जाते हों ऐसा नहीं मानते वे वितर्क करके और आगे अतिक्रमण करके बढ़ गए । यहाँ तर्क को तो स्थान है मगर विपरीत कुतर्क को यहाँ मार्ग में बाधक बताया गया है । अच्छा, और चलो । जैन शासन में तो द्रव्य ही स्वतंत्र सत् है, वह एक सत् है, वह गुणपर्यायमय है । बताया ही गया ‘गुणपर्ययवद᳭द्रव्यं,’ गुणपर्यायमय द्रव्य है । बाकी द्रव्य हैं एक-एक । निश्चय शक्ति से देखा तो, गुण नजर आये और व्यतिरेक से देखा तो पर्याय नजर आयी मगर इस बात को और कुतर्क करके और आगे बड़े तो मीमांसकों ने क्या रचा कि द्रव्य स्वतंत्र सत् है, गुण स्वतंत्र सत् है । क्रिया स्वतंत्र सत् है, सामान्य स्वतंत्र सत्, विशेष स्वतंत्र सत् और अभाव स्वतंत्र सत् । उन्होंने 7 पदार्थों को स्वतंत्र मान डाला, मगर थोड़ा उन्होंने बचाव किया, क्या कि सत्ता गुण का समवाय द्रव्य गुण और क्रिया में होता है । प्राय: पर्याय को वे क्रिया बोलते हैं और बाकी ये हैं अपने आप । बढ़ते गए वे भेद में तो मीमांसकों के 7 पदार्थों की रचना हो गई परंतु यहाँ पुद्गल में ऐसा नहीं बढ़ना है ।
724―द्रव्य की अविभागिता व स्वतंत्रता―एक अणु में रूप, रस, गंध, स्पर्श अणु पाये जाते । आज कल के वैज्ञानिक भी कुछ-कुछ इसके अतिक्रम की बात को कहते हैं । वे देखते हैं इनर्जी वह सत् से एक पृथक चीज है, वह पदार्थ नहीं है, उससे सूक्ष्म एक इनर्जी है और उस इनर्जी के भी विभाग वे बतलाते हैं मगर कोई निराधार शक्ति भी हो सकती है क्या? वे द्रव्य के उस सूक्ष्म अणु को नहीं पहिचान सके । वैज्ञानिक कोई अमूर्त तत्त्व पर तो उतर नहीं आये । तो वहाँ अणु स्वरूप के प्रथम प्रयोजन में आने के लिए जो सूक्ष्म स्कंध है उसे ही अणु मान लेते हैं और बोलते अणुबम, पर वास्तव में मात्र अणु कितना होता है, वह अभी वैज्ञानिकों के ध्यान में नहीं आता । जो जैन शासन हजारों वर्षों से कह रहा है, धीरे-धीरे वैज्ञानिकों के जब प्रयोग में आता है, तो बराबर उस बात को पा लेते हैं । तो रूप अणु, रस अणु अलग नहीं हैं । पुद्गल तो रूप, रस, गंध स्पर्शात्मक है । जो खाने में आया वह पुद्गल ही तो है और पुद्गल का रस पुदगल में है । क्या वह रस मेरे आत्मा में तन्मय हो सकता है । अगर आत्मा में तन्मय हो सकता तो यह तो पुद᳭गल ही है पर क्या मैं पुद᳭गल हूं? मैं आत्मा हूं, मैं पुद᳭गल न होऊंगा । मैं पुद्गल नहीं हो सकता जो स्वाद है वह पुद᳭गल में तन्मय है, पर मीठा इस आत्मा को अच्छा क्यों लगता, भीतर में वह मौज क्यों मानता? यों मानता कि जीव ने जो स्वाद को ज्ञान किया कि यह मीठा है राग संस्कार से ऐसा माना कि मेरे को मीठा है तो रागमिश्रित उस ज्ञानविकल्प का अनुभव किया, उसकी मौज मान रहा ।
725―बाह्य पदार्थों से आत्मा में ज्ञान आने की असंभवता―अभी कल परसों ही आपने एक भजन सुना था ‘सुख हम ही में था नहि जानी ।’ इस जगत में जीवों की दशा क्यों इतनी भ्रांत बन गई? क्यों इतनी खराब चल रही है? वे अपना सुख और ज्ञान बाहर में खोज रहे । बाहर से सुख नहीं आता, बाहर से ज्ञान नहीं आता । यहाँ कोई उपदेष्टा बड़ी अच्छी विधि से स्याद्वाद―सम्मत विधि से प्रवचन कर रहा हो मगर वह क्या कर रहा? वह अपने में उन शब्दों का वाच्य बनाकर अपने भीतर ही तो ज्ञान कर रहा है । मास्टर क्या करता है ? लोग तो यों कहते हैं कि मास्टर ज्ञानदान दे रहा है, मगर मास्टर यदि अपना ज्ञान दूसरों को देता फिरे बाँटता फिरे तो मास्टर तो कोरा ठूठ (बिना ज्ञान का) रह जायेगा, मास्टर किसी को अपना ज्ञान बाहर कहीं दे नहीं सकता । हुआ क्या कि मास्टर ने जो वचन व्यवहार किया उसे सुना शिष्य ने और उसका वाच्य अर्थ समझा और अपने ही ज्ञानबल से उसे व्यक्त परिचित किया और शिष्य को ज्ञान मिल गया । तो शिष्य ने अपने ही ज्ञानबल से अपना ज्ञान प्रकट किया । कहीं मास्टर से ज्ञान लेकर ज्ञान नहीं किया । तो इसी तरह दुःख सुख की बात है ।
726―पर पदार्थ से आत्मा में सुख दुःख आने की असंभवता―दुःख सुख कहीं बाहर से नहीं आते । कहीं दो आदमी मिलकर एक काम कर रहे, उसमें मानों दोनों सुखी हो रहे तो कहीं ऐसा नहीं है कि एक का सुख दूसरे ने पाया हो उसका दूसरे ने । कभी दोनों मिलकर दुःखी होते हैं तो वहाँ भी कहीं ऐसा नहीं है कि एक के दुःख से दूसरा दुःखी हो रहा । अभी देखा होगा कि किसी के घर जब कोई बड़ा आदमी गुजर जाता तो उसके घर फेरा देने के लिए (शोक मनाने के लिए) बड़ी दूर-दूर से रिश्तेदार लोग आते हैं । तो आप सुनो उन रिश्तेदारों की भी कहानी । मानो वे इकट्ठे 4-6 आदमी आये किसी ट्रेन से तो वे ट्रेन में खूब तास खेलते हुए, हँसते हुए आये, मगर जब यहाँ के स्टेशन पर उतरे तो झट उतरते ही अपनी रोनी सी सकल बना लेते । भैया वह भी एक कला है कि हंसी खुशी से आये, पर समय आये तो रोनी शकल बना लेते और वे जब घर पहुंच जाते तो वहाँ एक दूसरे को देखकर खुद रोने लगते । अब आप यह बतलावें कि वहाँ एक ने दूसरे को दु:खी किया क्या? अथवा एक का दुःख किसी दूसरे में गया क्या? अरे वहाँ जिसके उपर दुःख का प्रभाव है उसका प्रभाव उस ही पर है उसके दुख का प्रभाव किसी दूसरे पर नहीं होता । अच्छा कभी-कभी ऐसा हो तो जाता है कोई सोचे कि एक को दु:खी देखकर दूसरा ही दुःखी हुआ, उस दूसरे के दुःख से उसमें दुःख हुआ ना? तो ऐसी बात नहीं उसके दुख से वह ही दु:खी हुआ । उस दुःखी को देखकर उसने रागवश अपने में एक नया दु:ख उत्पन्न कर लिया । तो कोई किसी दूसरे को भोगने वाला नहीं, किंतु बाह्यपदार्थों का आश्रय करके उसमें उपयोग जुटाकर ज्ञान विकल्प करके दुःखी होता है ।
727―निमित्तकारण व उपचरितकारण का विश्लेषण―दु:खी होने में निमित्त कारण क्या है? असाता कर्म का उदय । बंधाधिकार में खूब लिखा है कि यह जीव साता असाता के उदय में सुखी दु:खी होता वह निमित्त कारण है क्योंकि उसका प्रतिफलन हुआ । उसका निमित्त पाकर जीव ने अपने में अपना प्रभाव बनाया । ये बाह्य पदार्थ ये विषयभूत पदार्थ ये निमित्त कारण नहीं, कहलाते हैं उपचरित कारण, आश्रयभूत कारण । उपचरित कारण उन्हें कहते हैं जो वास्तव में कारण तो न हो मगर जिनमें उपयोग जुटाने से प्रभाव बनता है कषाय का । उन पदार्थों में कारणपने का आरोप किया जाता है । यहाँ भी एक सावधानी बर्ते । सर्वत्र यही बात मिलेगी । जैन दर्शन में सब विषय इतना विशद है कि उस कुंजी के अनुसार चलें तो उनके स्वाध्याय में संशय को कहीं स्थान नहीं । अब निमित्त शब्द की बात देखो जैसे उपचार शब्द दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ करता है व्यवहार के लिए और उपचार के लिए और इसी तरह से निमित्त शब्द आरोपित कारण के लिए भी व्यवहृत होता है । जैसे दुःख हुआ तो कहते हैं कि भाई कर्मोदय से दुःख हुआ याने कर्मोदय का सन्निधान पाकर यह दुःख हुआ, यह तो हुई वास्तविक कारण की चर्चा, मगर कोई कहे कि इस फलाने ने दुःखी कर दिया तो यह है आरोपित कारण की बात, तो आरोपित कारण को भी निमित्त शब्द से कहते हैं कि उस आदमी के निमित्त से इसको बड़ा कष्ट हुआ तो आरोपित कारण के लिए भी निमित्त का प्रयोग होता है और केवल एक लोकव्यवहार में ही नहीं, ग्रंथों में भी किया गया है । जैसे कहा गया है कि मूर्तिदर्शन से, देवर्द्धिदर्शन से अथवा वेदना के अनुभव से सम्यग्दर्शन होता है, ये सम्यग्दर्शन के निमित्त कारण हैं । धवल की छठी पुस्तक में अंत में, चूलिका में इस बात का विस्तृत वर्णन है, और आप समझें कि इस काल में श्रुत की जो रचना हुई है वह सर्वप्रथम षट्खंडागम में हैं । जितना भी श्रुत है उसमें करणानुयोग की रचना सबसे पहली रचना है जिसके ऊपर श्रुत पंचमी का पर्व मनाया गया । तो वहाँ करणानुयोग के ग्रंथों में भी लिखा है कि भाई जिनबिंब दर्शन से सम्यग्दर्शन हो जाता मगर क्या यह वास्तविक निमित्त की बात है? लिखा है, तहाँ पर भी विवेक करना होगा । वहाँ दूसरे ढंग का विवेक करना होगा जो हम बनावेंगे । तो विवेक क्या है वहाँ? जैसे मूर्ति दर्शन से सम्यग्दर्शन हुआ तो इसका अर्थ क्या है? मूर्ति दर्शन तो जीव के ऐसे शुभोपयोग का आरोपित कारण है कि जिस शुभोपयोग के सिलसिल में शुभोपयोग छूटकर सम्यग्दर्शन हो जाये । खूब ध्यान से सुनने की बात है । तो एक दृष्टि से देखा तो वहाँ मूर्तिदर्शन आदिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने से पूर्व जो शुभोपयोग हुआ, उसका आरोपित कारण है और वास्तविक कारण कर्म का क्षयोपशम आदिक है ।
728―उपचरित कारण के कथन में मात्र प्रयोजन परिचय का महत्त्व―अब बड़ी गहरी चर्चा न करके प्रकृत बात पर आयें, भोक्ता की बात कही जा रही है । बाह्य पदार्थों का यह जीव भोक्ता नहीं है । बाह्य पदार्थों का भोगना उपचार से कहा जाता है । कोई यह कहे कि उपचार से यों ही क्यों कहा जाता? और ढंग से क्या नहीं कहा जाता? प्रश्न तो यों हो सकता ना? रसोई घर में घी का डिब्बा उठा लावो ऐसा व्यवहार क्यों होता है? देखो उपचार कहीं अटपट नहीं हुआ करता, क्योंकि उपचार में प्रयोजन पड़ा हुआ है । रोज-रोज कहते हैं ना ऐसा कि घी का डिब्बा लावो । अब कोई इसे उपादान दृष्टि से अर्थ लगाये तो वह मिथ्या है, और प्रयोजन सब समझते हैं, जब कहा कि घी का डिब्बा लावो तो उठा लाते । वहाँ कोई यह भ्रम नहीं करता कि अरे घी का डिब्बा कहाँ होता? घी से बना डिब्बा उठाकर कहां लाया जा सकता? सबको उसका प्रयोजन ज्ञात है । आपके घर में तो जिस लोटे में पानी भरकर आप या कोई संडास जाते उसे कहते हैं ना टट्टी का लोटा । अब भला बतलावो वह टट्टी का (टट्टी से निर्मित) लोटा है क्या? ऐसा तो कोई नहीं समझता । जहाँ टट्टी का लोटा कहा तो झट समझ जाते । देखो―उपचार भाषा में कोई विसंवाद नहीं जगता, क्योंकि सब लोग उसका प्रयोजन समझते हैं कि जिस लोटे में पानी भरकर संडास में ले जाते उसे कहते हैं टट्टी का लोटा । बहुत से संडास कमाने वाले भंगीजन होते हैं, वे इस बात का गर्व रखते कि हम इतनी हवेलियाँ कमाते हैं वे आपस में जब हिसाब लगाते कि हम कितनी हवेली कमाते, अन्य लोग कितनी-कितनी हवेली कमाते तो वे गर्व के साथ कहते कि हमारे पास 10 हवेली है, हमारे पास 20 हवेली है, 6-6, 7-7 खंड की हवेली है । ऐसी तो वे बात करते हैं, पर करते क्या हैं? संडास कमाने का काम करते हैं, कभी-कभी तो वे आपकी हवेलियों को आपस में गिरवी रख देते हैं । उस गिरवी का क्या अर्थ है कि अब इतने दिन तक तुम इनमें कमाई करोगे । तो व्यवहार में कितनी ही बातें ऐसी बोली जाती हैं । अब इसमें कोई केवल शब्दों पर ध्यान दे, उसका प्रयोजन न समझे तो उसकी यह बात मिथ्या हो जाती है । प्रयोजन सब समझते हैं । उपचार की भाषा में जो बात बोली जाये उसे उपादान दृष्टि से अर्थ लगाकर न समझे, नहीं तो वह बात मिथ्या हो जायेगी । जैसे किसी ने कहा कि अमुक ने इस मकान को किया तो यह जीव है अमूर्त । यह मकान को करेगा क्या । अगर उपादान दृष्टि से यह बात समझ ले तो गलत है । उसका मकान है, इस जीव का यह मकान है, अगर इसको परस्वामित्व की दृष्टि से समझ ले तो वह सब गलत है । तो प्रयोजन जानकर आगे बढ़े विवाद में न पड़े ।
729―शुद्धनय विषय के आलंबन की महिमा―यह जीव पर पदार्थों का भोक्ता है, विषयों का भोक्ता है यह बात उपचार से कही जाती है, व्यवहार नय से नहीं । व्यवहारनय से तो खुद की परिणति का भोक्ता है जिसका नाम है अशुद्ध निश्चयनय । अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार नय है, शुद्ध निश्चयनय भी व्यवहारनय है । केवल एक अखंड अवक्तव्य सहज चैतन्य स्वभाव को विषय करने वाला है शुद्धनय शुद्धनय कभी व्यवहारनय नहीं बनता बाकी तो जिसे आप निश्चयनय कह रहे उस अगर अंतर्दृष्टि मिल गई तो वह व्यवहार बन जायेगा । यह निश्चयनय पलटता है मगर शुद्ध नहीं पलटता । तो यह जीव एक दृष्टि में तो भोक्ता है मायने अपनी परिणतियों का भोगने वाला है यह भी एक विकल्प है । जीव एक दृष्टि में भोक्ता है ऐसा नहीं, यह निश्चयनय भी एक विकल्प है । इन विकल्पों में रहकर समयसार का अनुभव नहीं कर सकता यह जीव । और यह जीव उन परिणतियों का भी भोक्ता नहीं । इस विकल्प में भी यह जीव उस सहज चैतन्यस्वभाव का अनुभव क्यों नहीं कर सकता, बात यह है कि निषेध तो किया कि यह जीव इन परिणतियों का भोक्ता नहीं मगर इस निषेध में परिणतियाँ तो नजर में आयेगी । जैसे किसी ने कहा कि भाई अब रात्रि के 11 बजे हैं मगर एक बहुत जरूरी काम आ गया स्टेशन चले जावो । वह स्टेशन था कोई वहाँ से दो तीन मील दूर । मगर देखो तुम निश्चित रूप से जाना रास्ते में किसी बात का भय न मानना । यहाँ से थोड़ी दूर जाकर एक बरगद का मिलेगा पेड़ उसमें लोग झूठ मूठ में कहते हैं कि भूत रहता है पर भूतवूत नहीं है, आप मन में किसी तरह की शंका न लाना निश्चित होकर जाना । ठीक है । चल दिया । कुछ दूर जाकर वह बरगद का पेड़ मिला । अब चूँकि उसके उपयोग में था भूत नहीं है । नहीं है तो बाद की बात है पहले उपयोग में बसा था भूत । सो वह उस जगह गया और डर गया । अरे भाई उस निषेध की बात को वहाँ कहा ही क्यों? उस भूत विषयक विकल्प बनाने का कारण तुमने रखा ही क्यों? बिना उसकी बात कहे स्टेशन भेजते । ऐसे ही यह जीव भोक्ता हैं, इसमें तो परिणतियों के भोगने की बात कही गई एक यह विकल्प है जो इस निर्विकल्प समयसार की अनुभूति का रूपक नहीं बन पाता उस काल में और एक की दृष्टि में यह है कि यह जीव परिणतियों का भोक्ता नहीं और जो इस शुद्धनय की ओर विषय चल रहा उस स्वभाव को देखता भर रहता, इस विधि की भी निषेध की भी कोई बात न कहते तो भला था । इस ही उपाय से यह जीव उस शुद्धस्वरूप में उतार पाता । तो यह प्रक्रिया बतायी जा रही है साक्षात् समयसार के अनुभवने की । यह बात है तो अधिक कठिन किंतु कुछ परख हो जाने पर पहले जब वस्तु का निर्णय हो जाये तब वस्तु है द्रव्य है, गुण है, पर्याय है, कौन है, कैसा है, कहाँ प्रभाव होता है इस सबका निर्णय होने पर ये चर्चायें चलती हैं और इस दृष्टि से वह अपने इस कारण समयसार, साक्षात् समयसार, ओघसमयसार इसमें वह अपना प्रवेश करता है ।
730―विषयकषायरूप कर्मरस से हटकर स्वानुभूतिरस में रचने का अनुरोध―देखो भैया, अपने को क्या लक्ष्य करना है कहाँ रमना है जिससे अपना कल्याण हो, शाश्वत आनंद हो । सो समझ ही गये होंगे वह है सहज परमात्मतत्त्व किंतु निज सहज भगवान आत्मा की सुध नहीं रखते, इससे कितना अनर्थ हो रहा है । जिस आत्मा भगवान के प्रसाद से निगोद से निकल कर अन्य-अन्य योनियों को पार करके आज मनुष्यभव में आये हैं तो मनुष्य बनकर बड़ी कला से यह इस आत्मा भगवान पर प्रहार कर रहा है । देखो ये पशु गाय, भैंस, बैल बकरी आदिक ये जब इंद्रियों के विषय भोगते हैं तो न ये कोई महफिल बनाते हैं, न राग रागनी के शब्दों का अलाप सुनते हैं न नृत्य देखते हैं जब ही वेदना हुई कि वे अपनी प्रवृत्ति कर लेते हैं, उस प्रवृत्ति के बाद बहुत समय तक को शांत हो जाते हैं, मगर इस मनुष्य को तो बड़े-बड़े संगीत प्रोग्राम भी चाहिए खूब राग-रागनी के अलाप चाहिए नृत्य चाहिए । आजकल तो किशोर पाणिग्रहण के लिए स्त्री भी ऐसी ढूंढ़ते जो हाव भाव विलासपूर्ण हो बल्कि पहले से ही यह पता भी लगा लेते कि वह लड़की नृत्य गायन भी जानती है कि नहीं । भला बतलाओ जो कान मिले थे जिनवाणी के शब्दों का श्रवण करने के लिए उनका सदुपयोग करने के लिए उनका कैसा दुरुपयोग किया इस मनुष्य ने । विषयों में प्रेरित होने के लिए ये मनुष्य नाना प्रकार की कलावों का प्रयोग करते । (यह बात विषय कषायों की कर रहे हैं) तो यह आत्मा भगवान पर प्रहार है कि नहीं? इस प्रहार के फल में इसे घोर दुःख होगा । देखो जो अधिक बढ़ बढ़कर चलेगा वह अवश्य गिरेगा । अमुक भाई के पास कार है मेरे पास क्यों न हुई? अमुक भाई के पास इतना धन है मेरे पास क्यों न हुआ? अमुक भाई के पास इतनी हवेलिया है मेरे पास क्यों न हुई? यों बढ़-बढ़कर जो चलेगा वह अवश्य गिरेगा । ऐसा यहाँ बोलते हैं लोग । यहाँ संसार के मोही प्राणी भगवान से भी बढ़कर चलना चाहते हैं । आप कहेंगे कि यह बात आपने कैसे कही कि ये संसारी प्राणी भगवान से भी बढ़कर चलना चाहते, जरा समझाओ तो? ....अच्छा सुनो । भगवान कैसा जानते हैं?....जो जैसा है उसे वैसा ही जानते हैं । एक-एक अणु एक-एक जीव जिसकी जो पर्याय है, जिसका जो गुण है जिसका जो अस्तित्व है उसे वैसा जान रहे हैं और यहाँ ये मोही प्राणी उससे अधिक बढ़-बढ़कर जान रहे जैसा नहीं वैसा ये जानना चाहते । मकान मेरा है क्या? नहीं, लेकिन ये जानते कि यह मकान मेरा है । और सारी बातें समझ लो । इज्जत पोजीशन आदि कुछ मेरे हैं क्या? नहीं, लेकिन भगवान तो भाई ऐसा जानने में असमर्थ हैं, भगवान में इतनी ताकत नहीं है कि वे समझ जाये कि यह मकान इसका है और यहाँ संसार के लोगों में इतनी बड़ी ताकत है कि जो भगवान में नहीं है । उस ताकत का ये अभिमान करते । मकान मेरा है, इज्जत-प्रतिष्ठा मेरी है, धन वैभव मेरा है । तो भगवान से जो बढ़कर चढ़ेगा उसकी दुर्गति होगी । अरे जैसे भगवान चल रहे हैं, जो जैसा है वैसा जान रहे हैं, एक पदार्थ दूसरे पदार्थ का मालिक नहीं, एक का दूसरा कारणहार नहीं, एक का दूसरा भोगनहार नहीं, यह जान रहे भगवान । ऐसा ही हम जानें तो तीन लोक के अधिपति हो जायेंगे । यह एक बात कहा है । वास्तव में भगवान से बढ़कर कोई बन नहीं सकता है । तो सत्य ज्ञान का जो महत्त्व है बस वही एक वैभव है सत्यज्ञान । सत्यज्ञान ही मेरा सर्वस्व है, बाहरी पदार्थ मेरे कुछ नहीं हं, ऐसा श्रद्धान लावें और इस तत्त्व ज्ञान के मार्ग में आगे बढ़े तो अपूर्व ज्ञानप्रकाश मिलेगा और यह जीवन भी शांति में जायेगा और अंत में परम शांति प्राप्त होगी ।