GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 116 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, इंद्रियों के भेद की अपेक्षा से कहे गये जीवों का चतुर्गति सम्बन्ध दर्शाते हुए उपसंहार है (अर्थात यहाँ एकेन्द्रिय- द्वीइंद्रियादिरूप जीव भेदों का चार गति के साथ सम्बन्ध दर्शाकर जीवभेदों का उपसंहार किया गया है) ।
देव-गति-नाम और देवायु के उदय से (अर्थात देव-गति-नाम-कर्म और देवायु-कर्म के उदय के निमित्त से) देव होते हैं, वे भवन-वासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक ऐसे १निकाय-भेदों के कारण चार प्रकार के हैं । मनुष्य-गति नाम और मनुष्यायु के उदय से मनुष्य होते हैं, वे कर्म-भूमिज और भोग-भूमिज ऐसे भेदों के कारण दो प्रकार के हैं । तिर्चंच-गति-नाम और तिर्यंचायु के उदय से तिर्यंच होते हैं, वे पृथ्वी, शंबूक, जूं, डाँस, उरग,पक्षी, परिसर्प, चतुष्पाद (चौपाये) इत्यादि भेदों के कारण अनेक प्रकार के हैं । नरक-गति-नाम और नरकायु के उदय से नारक होते हैं, वे २रत्न-प्रभा-भूमिज, शर्करा-प्रभा-भूमिज, बालुका-प्रभा-भूमिज, पंक-प्रभा-भूमिज, धूम-प्रभा-भूमिज, तमः-प्रभा-भूमिज और महा-तमः-प्रभा-भूमिज ऐसे भेदों के कारण सात प्रकार के हैं ।
उनमें देव, मनुष्य और नारकी पंचेन्द्रिय ही होते हैं । तिर्यंच तो कतिपय पंचेन्द्रिय होते हैं और कतिपय एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय भी होते हैं ॥११६॥
१निकाय = समूह ।
२रत्न-प्रभा-भूमिज = रत्नप्रभा नाम की भूमि में (-प्रथम नरक में) उत्पन्न ।