GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 119 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, व्यवहार-जीवत्व के एकांत की १प्रतिपत्ति का खंडन है (अर्थात जिसे मात्र व्यवहार-नय से जीव कहा जाता है उसका वास्तव में जीव-रूप से स्वीकार करना उचित नहीं है ऐसा यहाँ समझाया है) ।
यह जो एकेन्द्रियादि तथा पृथ्वीकायिकादि, 'जीव' कहे जाते हैं, अनादि जीव-पुद्गल का परस्पर अवगाह देखकर व्यवहार-नय से जीव के प्राधान्य द्वारा (-जीव को मुख्यता देकर) 'जीव' कहे जाते हैं । निश्चय-नय से उनमें स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तथा पृथ्वी आदि कायें, जीव के लक्षण-भूत चैतन्य-स्वभाव के अभाव के कारण, जीव नहीं हैं, उन्हीं में जो स्व-पर को ज्ञप्ति रूप से प्रकाशमान ज्ञान है वही, गुण-गुणी के कथंचित अभेद के कारण, जीवरूप से प्ररूपित किया जाता है ॥११९॥
१प्रतिपत्ति = स्वीकृति, मान्यता ।