GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 163 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, सूक्ष्म परसमय के स्वरूप का कथन है ।
सिद्धि के साधन-भूत ऐसे अर्हंतादि भगवन्तों के प्रति भक्ति-भाव से, १अनुरंजित चित्त-वृत्ति वह यहाँ 'शुद्ध-सम्प्रयोग' है । अब, २अज्ञान-लव के आवेश से यदि ज्ञानवान भी 'उस शुद्ध-सम्प्रयोग से मोक्ष होता है' ऐसे अभिप्राय द्वारा खेद प्राप्त करता हुआ उसमें (शुद्ध-सम्प्रयोग में) प्रवर्ते, तो तब तक वह भी ३रागलव के सद्भाव के कारण ४'परसमयरत' कहलाता है । तो फिर निरंकुश रागरूप क्लेश से कलंकित ऐसी अंतरंग वृत्तिवाला इतर जन क्या परसमयरत नहीं कहलाएगा ? (अवश्य कहलाएगा ही) ॥१६३॥
१अनुरंजित = अनुरक्त; रागवाली; सराग ।
२अज्ञानलव = किन्चित अज्ञान; अल्प अज्ञान ।
३रागलव = किन्चित राग; अल्प राग ।
४परसमयरत = परसमय में रत; परसमयस्थित; परसमय की ओर झुकाववाला; परसमय में आसक्त ।