GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 28 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, सिद्ध के निरुपाधि ज्ञान, दर्शन और सुख का समर्थन है ।
वास्तव में, ज्ञान, दर्शन और सुख जिसका स्वभाव है ऐसा आत्मा संसार-दशा में, अनादि कर्म-क्लेश द्वारा आत्म-शक्ति संकुचित की गई होने से, पर-द्रव्य के संपर्क द्वारा (इन्द्रियादि के सम्बन्ध द्वारा) क्रमश: कुछ-कुछ जानता है और देखता है तथा पराश्रित, मूर्त (इन्द्रियादि) के साथ सम्बन्ध-वाला, सव्याबाध (बाधा-सहित) और सान्त सुख का अनुभव करता है;
किन्तु जब उसके कर्म-क्लेश समस्त-रूप से विनाश को प्राप्त होते हैं तब, आत्म-शक्ति अनर्गल (निरंकुश) और असंकुचित होने से, वह असहाय-रूप से (किसी की सहायता बिना) स्वयमेव युगपद् सब (सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव) जानता है और देखता है तथा स्वाश्रित, मूर्त (इन्द्रियादि) के साथ सम्बन्ध रहित, अव्याबाध और अनंत सुख का अनुभव करता है ।
इसलिए सब स्वयमेव जानने और देखनेवाले तथा स्वकीय सुख का अनुभवन करनेवाले सिद्ध को (कुछ भी) प्रयोजन नहीं है ॥२८॥