GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 56 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, जीव के औदयिकादि भावों के कर्तृत्व-प्रकार का कथन है ।
जीव द्वारा द्रव्यकर्म व्यवयहारनय से अनुभवमें आता है; और वह अनुभव में आता हुआ जीवभावों का निमित्तमात्र कहलाता है । वह (द्रव्यकर्म) निमित्तमात्र होने से , जीव द्वारा कर्तरूप से अपना कर्मरूप (कार्यरूप) भाव किया जाता है । इसलिये जो भाव जिस प्रकार से जीव द्वारा किया जाता है, उस भाव का उस प्रकार से वह जीव कर्ता है ॥५६॥