GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 5 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यहाँ, पाँच अस्तिकायों को अस्तित्व किस प्रकार है और कायत्व किस प्रकार है वह कहा है ।
वास्तव में अस्तिकायों को विविध गुणों और पर्यायों के साथ स्वपना (अपनापन / अनन्यपना) है । वस्तु के १व्यतिरेकी विशेष पर्यायें हैं और २अन्वयी विशेष गुण हैं । इसलिये एक पर्याय से प्रलय को प्राप्त होनेवाली, अन्य पर्याय से उत्पन्न होनेवाली और अन्वयी गुण से ध्रुव रहनेवाली एक ही वस्तु को ३व्यय-उत्पाद-धौव्यलक्षण अस्तित्व घटित होता ही है । और यदि गुणों तथा पर्यायों के साथ (वस्तु को) सर्वथा अन्यत्व हो तब तो अन्य कोई विनाश को प्राप्त होगा, अन्य कोई प्रादुर्भाव को (उत्पाद को) प्राप्त होगा और अन्य कोई ध्रुव रहेगा -- इसप्रकार सब ४विप्लव प्राप्त हो जायेगा । इसलिये (पाँच अस्तिकायों को) अस्तित्व किस प्रकार है तत्सम्बन्धी यह (उपर्युक्त) कथन सत्य-योग्य-न्याययुक्त है ।
अब, (उन्हें) कायत्व किस प्रकार है उसका उपदेश किया जाता है :- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, और आकाश यह पदार्थ ५अवयवी हैं । प्रदेश नाम के उनके जो अवयव हैं वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होने से ६पर्यायें कहलाती हैं । उनके साथ उन (पाँच) पदार्थों का अनन्यपना होने से कायत्व-सिद्धि घटित होती है । परमाणु (व्यक्ति-अपेक्षा से) ७निरवयव होनेपर भी उनको सावयवपने की शक्ति का सद्भाव होने से कायत्व-सिद्धि ८निरपवाद है । वहाँ ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है कि पुद्गल के अतिरिक्त अन्य पदार्थ अमूर्तपने के कारण अविभाज्य होने से उनके सावयवपने की कल्पना न्याय विरुद्ध (अनुचित) है । आकाश ९अविभाज्य होनेपर भी उसमें 'यह घटाकाश है, यह अघटाकाश (पटाकाश) है' ऐसी विभाग-कल्पना दृष्टिगोचर होती ही है । यदि वहाँ (कथंचित्) विभाग की कल्पना न की जाये तो जो घटाकाश है वही (सर्वथा) अघटाकाश हो जायेगा; और वह तो इष्ट (मान्य / साध्य) नहीं है । इसलिये कालाणुओं के अतिरिक्त अन्य सर्व में कायत्व नाम का सावयवपना निश्चित करना चाहिये ।
उनकी जो तीन लोकरुप निष्पन्नता (रचना) कही वह भी उनका अस्ति-कायपना सिद्ध करने के साधन रूप से कही है । वह इस प्रकार है --
- ऊर्ध्व-अधो-मध्य तीन लोक के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वाले भाव, कि जो तीन लोक के विशेष-स्वरूप हैं, भवते हुए (परिणामित होते हुए) अपने मूल-पदार्थों का गुण-पर्याय युक्त अस्तित्व सिद्ध करते हैं । (तीन लोक के भाव सदैव कथन्चित सदृश रहते हैं और कथंचित बदलते रहते हैं वे ऐसा सिद्ध करते हैं की तीन-लोक के मूल-पदार्थ कथंचित सदृश रहते है और कथंचित परिवर्तित होते रहते हैं अर्थात उन मूल पदार्थों का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य वाला अथवा गुण-पर्याय वाला अस्तित्व है)
- पुनश्च,
- धर्म, अधर्म और आकाश यह प्रत्येक पदार्थ ऊर्ध्व-अधो-मध्य ऐसे लोक के (तीन) विभागरूप से परिणमित होने से उनके कायत्व नाम का सावयव-पना है ऐसा अनुमान किया जा सकता है ।
- प्रत्येक जीव के भी ऊर्ध्व-अधो-मध्य ऐसे तीन लोक के विभाग-रूप से परिणमित लोकपूरण अवस्था-रूप व्यक्ति की शक्ति का सदैव सद्भाव होने से जीवों को भी कायत्व नाम का सावयव-पना है ऐसा अनुमान किया ही जा सकता है ।
- पुद्गल भी ऊर्ध्व-अधो-मध्य ऐसे लोक के (तीन) विभागरूप से परिणत महास्कंधपने की प्राप्ति की व्यक्तिवाले अथवा शक्तिवाले होने से उन्हें भी वैसी (कायत्व नाम की) सावयव-पाने की सिद्धि है ही ॥५॥
१व्यतिरेक : भेद; एक का दुसरेरूप नहीं होना; 'यह वह नहीं है' ऐसे ज्ञान के निमित्तभूत भिन्नरूपता ।
२अन्वय : एकरूपता; सदृशता; 'यह वही है' ऐसे ज्ञान के कारणभूत एकरूपता ।
३अस्तित्व का लक्षण अथवा स्वरूप व्यय-उत्पाद-ध्रौव्य है ।
४विप्लव : अंधाधन्धी: उथलपुथल: गड़बड़ी: विरोध।
५अवयवी : अवयववाला; अंशवाला; अंशी; जिनके अवयव (एक से अधिक प्रदेश हों ऐसे)।
६पर्याय का लक्षण परस्पर व्यतिरेक है। वह लक्षण प्रदेशों में भी व्याप्त है, क्योंकि एक प्रदेश दूसरे प्रदेशरूप न होने से प्रदेशों में परस्पर व्यतिरेक है; इसलिये प्रदेश भी पर्याय कहलाती है।
७निरवयव : अवयव रहित; अंश रहित ; निरंश; एक से अधिक प्रदेश रहित।
८निरपवाद : अपवाद रहित। (पाँच अस्तिकायों को कायपना होने में एक भी अपवाद नहीं है, क्योंकि उपचार से परमाणु को भी शक्ति-अपेक्षा से अवयव / प्रदेश हैं।)
९अविभाज्य : जिनके विभाग न किये जा सकें ऐसे।