GP:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 68 - समय-व्याख्या - हिंदी
From जैनकोष
यह, कर्म-संयुक्तपने की मुख्यता से प्रभुत्व का व्याख्यान है ।
इस प्रकार प्रगट प्रभुत्व-शक्ति के कारण जिसने अपने कर्मों द्वारा (निश्चय से भाव-कर्मों और व्यवहार से द्रव्य-कर्मों द्वारा) कर्तृत्व और भोक्तृत्व का अधिकार ग्रहण किया है ऐसे इस आत्मा को, अनादि मोहाच्छादितपने के कारण विपरीत *अभिनिवेश की उत्पत्ति होने से सम्यग्ज्ञान-ज्योति अस्त हो गई है, इसलिए वह सांत अथवा अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है ।
(इस प्रकार जीव के कर्म-सहित-पने की मुख्यता-पूर्वक प्रभुत्व का व्याख्यान किया गया ।) ॥६८॥
*अभिनिवेश = अभिप्राय, आग्रह