GP:प्रवचनसार - गाथा 154 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
जो, द्रव्य को निश्चित करने वाला, स्वलक्षणभूत स्वरूपअस्तित्व कहा गया है वह वास्तव में द्रव्य का स्वभाव ही है; क्योंकि द्रव्य का स्वभाव अस्तित्वनिष्पन्न (अस्तित्व का बना हुआ) है । द्रव्य-गुण-पर्यायरूप से तथा ध्रौव्य-उत्पाद-व्ययरूप से त्रयात्मक भेदभूमिका में आरुढ़ ऐसा यह द्रव्य-स्वभाव ज्ञात होता हुआ, पर-द्रव्य के प्रति मोह को दूर करके स्व-पर के विभाग का हेतु होता है, इसलिये स्वरूप-अस्तित्व ही स्व-पर के विभाग की सिद्धि के लिये पद-पद पर अवधारित करना (लक्ष्य में लेना) चाहिये । वह इस प्रकार है --
- चेतनत्व का अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा जो द्रव्य,
- चेतनाविशेषत्व (चेतन का विशेषपना) जिसका लक्षण है ऐसा जो गुण, और
- चेतनत्व का व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी जो पर्याय
- पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करने वाले चेतनत्वरूप से जो ध्रौव्य और
- चेतन के उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेकरूप से जो उत्पाद और व्यय,
- अचेतनत्व का अन्वय जिसका लक्षण है ऐसा जो द्रव्य,
- अचेतना विशेषत्व जिसका लक्षण है ऐसा जो गुण और
- अचेतनत्व का व्यतिरेक जिसका लक्षण है ऐसी जो पर्याय
- पूर्व और उत्तर व्यतिरेक को स्पर्श करने वाले अचेतनत्वरूप से जो ध्रौव्य और
- अचेतन के उत्तर तथा पूर्व व्यतिरेकरूप से जो उत्पाद और व्यय