GP:प्रवचनसार - गाथा 178 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[सपदेसो सो अप्पा] प्रथम तो वह प्रसिद्ध आत्मा लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशी होने से सप्रदेश है । [तेसु पदेसेसु पोग्गला काया] उन प्रदेशों में कर्म वर्गणा के योग्य पुद्गल समूह-रूप कर्ता [ पविसंति] प्रवेश करते हैं । उनमें कैसे प्रवेश करते हैं ? [जहाजोग्गं] मन-वचन-काय वर्गणा के अवलम्बन तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द लक्षण योग के अनुसार, यथायोग्य प्रवेश करते हैं । मात्र प्रवेश नहीं करते, वरन् [चिट्ठंति हि] प्रवेश के बाद वास्तव में अपनी स्थिति के समय तक रहते हैं । मात्र रहते नहीं हैं ? अपितु [जन्ति] अपने उदयकाल को प्राप्तकर फल देकर चले जाते हैं । [बज्झंति] तथा केवल-ज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय की प्रगटता-रूप मोक्ष से विपरीत बंध के कारण रागादिक को प्राप्त-कर पुन: द्रव्य-बन्ध-रूप से बँधते हैं ।
इससे यह निश्चय हुआ, कि रागादि परिणाम ही द्रव्यबन्ध के कारण हैं ।
अथवा दूसरा विशेष कथन -- प्रवेश करते हैं अर्थात् प्रदेश बंध, ठहरते हैं अर्थात् स्थिति बंध, फल देकर चले जाते हैं अर्थात् अनुभाग बन्ध और बँधते हैं अर्थात् प्रकृति बंध -- इसप्रकार बंध के चार भेद इन चार शब्दों दारा कहे गये हैं ॥१९०॥
इसप्रकार तीन प्रकार के बन्ध की मुख्यता से दो गाथाओं द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ।