GP:प्रवचनसार - गाथा 1 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[एस] यह जो मैं ग्रन्थकार इस ग्रन्थ को करने का उद्यमी हुआ हूं और अपने ही द्वारा अपने आत्मा का अनुभव करने में लवलीन हूँ सो
- [सुरासुर- मणुसिंदवदिदं] तीन जगत् में पूजने योग्य अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणों के आधारभूत अर्हत पद में विराजमान होने के कारण से तथा इस पद के चाहने वाले तीन भुवन के बडे पुरुषों द्वारा भले प्रकार जिनके चरण कमलों की सेवा की गई है, इस कारण से सवर्गवासी देवों और भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों के इन्द्रों से वंदनीक,
- [धोयघाइ-कम्ममलं] परम आत्म-लवलीनतारूप समाधिभाव से जो रागद्वेषादि मलों से रहित निश्चय आत्मीक सुखरूपी अमृतमय निर्मल जल उत्पन्न होता है, उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मो के मल को धोने वाले अथवा दूसरों के पाप-रूपी मल को धोने के लिए निमित्त कारण होने वाले,
- [धम्मस्स कत्तारं] रागादि से शून्य निज आत्मतत्व में परिणमन रूप निश्चय धर्म के उपादान कर्त्ता अथवा दूसरे जीवों को उत्तम क्षमा आदि अनेक प्रकार धर्म का उपदेश देने वाले
- [तित्थं] तीर्थ अर्थात् देखे, सुने, अनुभवे इन्द्रियों के विषय-सुख की इच्छा रूप जल के प्रवेश से दूरवर्ती, परम समाधिरूपी जहाज पर चढकर संसार समुद्र से तिरने वाले अथवा दूसरे जीवों को संसार सागर से पार होने का उपाय-मय एक जहाज-स्वरूप
- [वडढ्माणं] सब तरह से अपने उन्नत-रूप ज्ञान को धरने वाले तथा
- रत्नत्रय-मय धर्म तत्व के उपदेश करने वाले