GP:प्रवचनसार - गाथा 205-206 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
प्रथम तो अपने से, यथोक्तक्रम से यथाजातरूपधर हुए आत्मा के अयथाजात-रूपधरपने के कारणभूत मोह-राग-द्वेषादिभावों का अभाव होता ही है; और उनके अभाव के कारण, जो कि उनके सद्भाव में होते हैं ऐसे
- वस्त्राभूषण का धारण,
- सिर और दाढ़ी-मूछों के बालों का रक्षण,
- सकिंचनत्व,
- सावद्ययोग से युक्तता तथा
- शारीरिक संस्कार का करना,
- जन्मसमय के रूप जैसा रूप,
- सिर और दाढ़ी-मूछ के बालों का लोच,
- शुद्धत्व,
- हिंसादिरहितता तथा
- अप्रतिकर्मत्व (शारीरिक श्रृंगार-संस्कार का अभाव) होता ही है ।
और फिर, आत्मा के यथाजात-रूपधरपने से दूर किया गया जो अयथाजात-रूपधरपना, उसके कारणभूत मोह-राग-द्वेषादिभावों का अभाव होने से ही जो उनके सद्भाव में होते हैं ऐसे जो
- ममत्व के और कर्मप्रक्रम के परिणाम,
- शुभाशुभ उपरक्त उपयोग और तत्पूर्वक तथाविध योग की अशुद्धि से युक्तता तथा
- पर-द्रव्य से सापेक्षता; इस (तीनों) का अभाव होता है;
- मूर्छा और आरम्भ से रहितता,
- उपयोग और योग की शुद्धि से युक्तता तथा
- पर की अपेक्षा से रहितता होती ही है ।
अब इन दोनों लिंगों को ग्रहणकर पहले भावि नैगमनय से कहे गये पंचाचार के स्वरूप को अब स्वीकार कर उसके आधार से उपस्थित स्वस्थ-स्वरूप लीन होकर वह श्रमण होता है ऐसा प्रसिद्ध करते हैं -