GP:प्रवचनसार - गाथा 20 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि] सुख अथवा दुःख केवलज्ञानी के नहीं हैं । केवलज्ञानी के कैसे सुख-दुख नहीं हैं? [देहगदं] देह सम्बन्धी- देह के आधारवाली जिह्वा (जीभ) इन्द्रिय आदि से उत्पन्न ग्रासाहार आदि सुख और असाता के उदय से उत्पन्न भूख आदि दुःख केवली-भगवान के नहीं हैं । ये देहगत सुख-दुःख केवली भगवान के क्यों नहीं हैं ? [जम्हा अदिंदियत्तं जादं] क्योंकि वे मोहादि घातिकर्मों का अभाव होने पर पाँच इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति से रहित होते हुये उत्पन्न हुये हैं, अत: उन्हें ये सुख-दुःख नहीं हैं । [तम्हा दु तं णेयं] इसलिये अतीन्द्रियता होने के कारण उनके ज्ञान और सुख अतीन्द्रिय ही जानने चाहिये ।
वह इसप्रकार- जैसे लोहे के गोले के संसर्ग का अभाव होने से अग्नि घन के आघात को प्राप्त नहीं होती, उसीप्रकार यह आत्मा भी लोह-पिण्ड के समान इन्द्रिय-समूह का अभाव होने से सांसारिक सुख-दुःख का अनुभव नहीं करता - यह अर्थ है ॥
यहाँ कोई कहता है- औदारिक शरीर विद्यमान होने से केवली के भोजन है अथवा असातावेदनीय कर्म का उदय होने से हम लोगों के समान उनके भी भोजन होता है? आचार्य इसका निराकरण करते हैं - उन भगवान का शरीर औदारिक नहीं परमौदारिक है । कहा भी है -
'क्षीण दोषवाले वीतराग-सर्वज्ञ जीव के सात-धातु रहित, शुद्ध स्फटिक मणि के समान, अत्यन्त तेजस्वी शरीर होता है ।'
तथा असाता-वेदनीय का उदय होने से उनके भोजन है, ऐसा जो कहते है- वहाँ निराकरण करते हैं - जैसे धान्य आदि बीज जलरूप सहकारी कारण से सहित होने पर अंकुर आदि कार्य को उत्पन्न करता है, उसी प्रकार असाता वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्मरूप सहकारी कारण सहित होने पर ही भूख आदि कार्य उत्पन्न करता है । मोहनीय के सद्भाव में असातावेदनीय भूख आदि कार्य करता है; यह कैसे जाना?
'वेदनीय कर्म मोह के बल से जीव का घात करता है' - ऐसा वचन होने से । और यदि मोह के अभाव में भी वेदनीयकर्म क्षुधादि परिषह उत्पन्न करता है, तो वह वध-रोगादि परिषहों को भी उत्पन्न करे, परन्तु नहीं करता । मोह के अभाव में वेदनीयकर्म वध आदि परिषहों को उत्पन्न नहीं करता- यह कैसे जाना? 'भोजन और उपसर्ग का अभाव होने से' इस वचन से यह जानकारी होती हैं ।
'केवली के भोजन' मानने पर और भी दोष आते हैं । यदि केवली भगवान के क्षुधा की बाधा है तो क्षुधा की उत्पत्तिरूप शक्ति की क्षीणता से उनके अनन्त वीर्य नहीं है; उसीप्रकार क्षुधा से दुःखित जीव के अनन्त सुख भी नहीं है; जिह्वा इन्द्रिय की जानकारीरूप मतिज्ञान से परिणत जीव के केवल-ज्ञान भी सम्भव नही है । अथवा और भी कारण हैं । केवली के असाता-वेदनीय के उदय की अपेक्षा साता-वेदनीय का उदय अनन्तगुणा है । इसलिये शक्कर की राशि में नीम की कणिका के समान असाता-वेदनीय का उदय होने पर भी ज्ञात नहीं होता ।
इसीप्रकार (केवली कवलाहार के विषय मे) और भी बाधक (कारण) हैं-जैसे वेद कषाय का उदय होने पर भी मोह का मंद उदय होने से अखण्ड ब्रह्मचारी प्रमतसंयत आदि मुनिराजों के स्त्री परिषह सम्बन्धी बाधा नहीं होती है; और जैसे नव-ग्रैवियक आदि अहमिन्द्र देवों के वेद कषाय का उदय होने पर भी, मोह का मंद उदय होने से स्त्री विषयक बाधा नहीं होती है; उसीप्रकार भगवान में असातावेदनीय का उदय विद्यमान होने पर भी मोह का पूर्णत: अभाव हो जाने से क्षुधा की बाधा नहीं होती है ।
हमारे ऐसा कहने पर यदि आपके द्वारा फिर से ऐसा कहा जाता है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोग केवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानवर्ती जीव आहारक हैं '- ऐसा आहारक मार्गणा के प्रकरण में आगम में कहा गया है- इसलिये केवली के आहार है; परन्तु आपका यह कथन उचित नहीं है ।
'नोकर्माहार, कर्माहार, कवलाहार, लेपाहार, ओजाहार और मानसिक आहार- क्रमश: ये छह प्रकार के आहार जानना चाहिये ।'
इसप्रकार गाथा में कहे हुये क्रमानुसार यद्यपि आहार छह प्रकार के है, तथापि केवली के नोकर्माहार अपेक्षा आहारकपना जानना चाहिये; कवलाहार की अपेक्षा नहीं ।
वह इसप्रकार- लाभान्तरायकर्म के सम्पूर्ण क्षय हो जाने से अन्य मनुष्यों के असम्भव कवलाहार के बिना भी कुछ कम पूर्व कोटी पर्यन्त शरीर स्थिति के कारणभूत, सप्तधातु से रहित परमौदारिक शरीर सम्बन्धी नोकर्माहार के योग्य सूक्ष्म, सुरस सुगन्धमय पुद्गल प्रतिक्षण आते रहते हैं -ऐसा नव केवललब्धि व्याख्यान के प्रंसग में कहा गया है । इससे ज्ञात होता है कि नोकर्माहार की अपेक्षा ही केवली के आहारकपना है ।
यहाँ फिर प्रश्न है कि आपकी कल्पना से केवली के आहारक - अनाहारकपना नोकर्माहार की अपेक्षा है, कवलाहार की अपेक्षा नहीं है- यह कैसे ज्ञात होता है?
आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा नहीं है । 'एक दो अथवा तीन समय तक ही अनाहारक होता है' ऐसा तत्वार्थसूत्र में कहा गया है । इस सूत्र का भाव कहते है- दूसरे भव के प्रति गमन के समय विग्रहगति में शरीर का अभाव होने पर नवीन शरीर ग्रहण करने के लिये तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल-स्कन्धों का ग्रहण नोकर्माहार कहलाता है; और वह विग्रहगति में कर्माहार विद्यमान होने पर भी एक, दो अथवा तीन समय तक नहीं होता । इसलिये नोकर्माहार की अपेक्षा ही आगम में आहारक और अनाहारकपना जानना चाहिये । यदि यह कवलाहार की अपेक्षा मानते हो तो भोजन के समय को छोड़कर हमेशा अनाहारक ही है, तब तीन समय का नियम घटित नहीं होता ।
यदि आपका यह मत हो कि वर्तमान मनुष्यों के समान, केवलियों के भी मनुष्यपना होने से कवलाहार है। तो (यह भी) उचित नहीं हैं, क्योंकि तब तो यह कहा जा सकता है कि वर्तमान मनुष्यों के समान, पूर्वकालीन पुरुषों के भी सर्वज्ञपना नहीं हैं, और राम-रावण आदि पुरुषों के विशेष सामर्थ्य नहीं है; परन्तु ऐसा तो नहीं है ।
दूसरा तथ्य यह है कि सात धातु रहित परमौदारिक शरीर के अभाव में 'छटवें गुणस्थान तक प्रथम आहार संज्ञा होती है ।' - ऐसा वचन होने से यद्यपि प्रमत्तसंयत नामक छटवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ मुनिराज भी आहार ग्रहण करते हैं; तथापि ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिये ही; देह के प्रति ममत्व के लिये वे आहार ग्रहण नहीं करते ।
'शरीर की स्थिति के लिये आहार है, शरीर ज्ञान के लिये माना गया है, ज्ञान कर्म नष्ट करने के लिये है और कर्मो के नाश से परमसुख होता है ।'
'मुनिराज शरीर के बल व आयु के हेतु से और शरीर के चय (हृष्ट-पुष्टता) के लिये तथा तेज के लिये भोजन नहीं करते; अपितु ज्ञान, संयम और ध्यान की सिद्धि के लिये भोजन करते हैं ।' (यहाँ 'ण बलाउसाहणट्ठं' के स्थान पर 'ण बलाउसाउअट्ठं' भी पाठ हैं; जिसका अर्थ है - बल, आयु और स्वाद के लिये भोजन नहीं करते ।) उन भगवान के ज्ञान, संयम, ध्यान आदि गुण स्वभाव से ही हैं; आहार के बल से नहीं (अत: एतदर्थ तो कवलाहार नहीं हैं) और यदि देह के ममत्व से आहार ग्रहण करते है, तो वे छद्यस्थों से भी हीनता को प्राप्त होते हैं ।
यहाँ पुन: कोई कहता है कि उनके विशिष्ट अतिशय होने से प्रगट भोजन नहीं है, गुप्त भोजन है ।
आचार्य इसका उत्तर देते हैं कि यदि ऐसा है तो परमौदारिक शरीरपना होने से भोजन ही नहीं है, यही अतिशय क्यों नहीं हो जाता है । वहाँ गुप्त भोजन में मायास्थान (छल) दीनता तथा और भी भोजन सम्बंधी कहे गये अनेक दोष आते हैं । वे अन्यत्र तर्क शास्त्र से जानना चाहिये । यह अध्यात्मग्रन्थ होने से यहाँ नहीं कहे हैं ।
यहाँ भाव यह है कि यह वस्तु का स्वरूप ही है, ऐसा जानकर यहाँ आग्रह नहीं करना चाहिये । आग्रह क्यों नहीं करना चाहिये? दुराग्रह होने पर राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है और उससे वीतराग ज्ञानानन्द स्वभावी परमात्मा की भावना नष्ट होती है; अत: आग्रह नहीं करना चाहिये ॥२१॥
इस प्रकार सात गाथाओं वाले चार स्थलों के द्वारा 'सामन्य से सर्वज्ञसिद्धि' नामक दूसरा अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।
अब, 'ज्ञान-प्रपञ्च' नामक तीसरे अन्तराधिकार में ३३ गाथायें हैं । वहाँ आठ स्थल हैं । उनमें से
- पहले स्थल में 'केवलज्ञान में सब प्रत्यक्ष होता है'- इस कथन की मुख्यता से परिणमदो खलु इत्यादि दो गाथायें;
- दूसरे स्थल में 'आत्मा और ज्ञान के निश्चय से असंख्यात प्रदेशी होने पर भी व्यवहार से सर्वगतत्व है' इत्यादि कथन की मुख्यता से आदा णाणपमाणं इत्यादि पाँच गाथायें;
- इसके बाद तीसरे स्थल में 'ज्ञान और ज्ञेय का परस्पर गमन निराकरण' की मुख्यता से णाणी णाणसहावो इत्यादि पाँच गाथायें;
- चौथे स्थल में 'निश्चय-व्यवहार केवली का प्रतिपादन' आदि की मुख्यता से जो हि सुदेण इत्यादि चार गाथायें;
- पाँचवें स्थल में 'वर्तमान ज्ञान में तीन काल सम्बन्धी पर्यायों की जानकारी' के कथनरूप से तक्कालिगेव सव्वे इत्यादि पाँच गाथायें;
- छठे स्थल में 'केवलज्ञान तथा रागादि विकल्प रहित छद्मस्थ-ज्ञान भी बंध का कारण नहीं है, किन्तु रागादि बंध के कारण हैं' इत्यादि निरूपण की मुख्यता से परिणमदि णेयं इत्यादि पाँच गाथायें;
- सातवें स्थल में 'केवलज्ञान-सर्वज्ञान को सर्वज्ञतारूप से प्रतिपादित करते हैं' इत्यादि व्याख्यान की मुख्यता से जं तक्कालियमिदरं इत्यादि पाँच गाथायें; तथा
- अन्तिम आठवें स्थल में 'ज्ञान प्रपंच अधिकार' के उपसंहार की मुख्यता से पहली गाथा और नमस्कार कथनरूप दूसरी गाथा-इसप्रकार ण वि परिणमदि इत्यादि दो गाथायें हैं ।
इसप्रकार आठ स्थलों में विभक्त ३३ गाथाओं में निबद्ध ज्ञानप्रपंच नामक तीसरे अन्तराधिकार की समुदायपातनिका (सामूहिक उत्थानिका) समाप्त हुई ।
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ज्ञान-प्रपंच नामक तीसरे अंतराधिकार की सामुदायिक पातनिका | |||
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स्थलक्रम | प्रतिपादित संक्षिप्त विषय वस्तु | गाथायें कहाँ से कहाँ तक | कुल गाथायें |
प्रथम | केवलज्ञान के सर्व प्रत्यक्ष है | 22 से 23 | 2 |
द्वितीय | आत्मा और ज्ञान-निश्चय से आत्मगत, व्यवहार से सर्वगत | 24 से 28 | 5 |
तृतीय | ज्ञान-ज्ञेय का परस्पर गमन निराकरण | 29 से 33 | 5 |
चतुर्थ | निश्चय व्यवहार केवली प्रतिपादन | 34 से 37 | 4 |
पंचम | वर्तमान ज्ञान त्रिकालज्ञ | 38 से 42 | 5 |
षष्टम | बंधकारक-ज्ञान नहीं राग है | 43 से 47 | 5 |
सप्तम | केवलज्ञान सर्वज्ञता | 48 से 52 | 4 |
अष्टम | उपसंहार एवं नमस्कार परक | 52 से 54 | 2 |
कुल आठ स्थल | कुल 33 |