GP:प्रवचनसार - गाथा 214 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[चरदि] आचरण करते हैं-वर्तते हैं । कैसे आचरण करते हैं ? [णिबद्धो] आधीन [णिच्चं] नित्य-सर्वकाल-हमेशा आचरण करते हैं । आचरण करनेवाले वे कौन हैं? [समणो] लाभ-अलाभ आदि में समान चित्तवाले श्रमण । वे कहाँ निबद्ध-लीन हैं ? [णाणम्मि] वीतराग-सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहे गये, परमागम के ज्ञान में अथवा उसके फलभूत स्वसंवेदन ज्ञान में, [दंसणमुहम्मि] दर्शन-तत्त्वार्थ श्रद्धान अथवा उसके फलभूत अपना शुद्धात्मा ही उपादेय-ग्रहण करने योग्य है- ऐसी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व, इनकी मुख्यता सहित अनन्त सुखादि गुणों में निबद्ध हैं । [पयदो मूलगुणेसु य] और प्रयत-प्रयत्नपर-प्रयत्नशील हैं । किनमें प्रयत्नशील हैं? मूलगुणों में अथवा निश्चय मूलगुणों के आधारभूत परमात्मद्रव्य में प्रयत्नशील हैं । [जो सो पडिपुण्णसामण्णो] जो इन गुणों से विशिष्ट श्रमण हैं, वे परिपूर्ण श्रामण्य हैं ।
यहाँ अर्थ यह है कि अपने शुद्धात्मा की भावना में लीन के ही, परिपूर्ण श्रमणता होती है ।