GP:प्रवचनसार - गाथा 224.10 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब, इस समय पुरुषों के दीक्षाग्रहण में वर्ण व्यवस्था कहते हैं -
[वण्णेसु तीसु एक्को] तीन वर्णों में से एक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्णों में से कोई एक वर्ण । [कल्लाणंगो] कल्याणांग-निरोग शरीर । [तवोसहो वयसा] तप: सह-तप को सहने में समर्थ । किसके द्वारा तप को सहने में समर्थ हो? अधिक वृद्धता और अधिक बालता से रहित वय द्वारा तप को सहनेवाला । [सुमुहो] विकार रहित अंतरंग में परम चैतन्य परिणतिरूप विशुद्धि को बतानेवाला; गमक (ज्ञान करानेवाला), बाहर में विकार रहित है मुख जिसका अथवा जो मुख के अवयवों के भंग से रहित है, वह सुमुख है । [कुच्छारहिदो] लोक में दुराचार आदि अपवादों से रहित । [लिंगग्गहणे हवदि जोग्गो] इन गुणों से विशिष्ट पुरुष जिन-दीक्षा ग्रहण करने के योग्य है । यथा योग्य सत् शूद्र आदि भी जिन-दीक्षा ग्रहण के योग्य हैं ॥२५३॥