GP:प्रवचनसार - गाथा 233 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब आगमहीन के मोक्षाख्य (मोक्ष नाम से कहा जानेवाला) कर्मक्षय नहीं होता, ऐसा प्रतिपादन करते हैं :-
वास्तव में आगम के बिना परात्मज्ञान (स्व-पर का भेद-ज्ञान) या परमात्म-ज्ञान नहीं होता; और परात्म-ज्ञान-शून्य के या परमात्म-ज्ञान-शून्य के मोहादि-द्रव्य-भाव-कर्मों का या ज्ञप्ति-परिवर्तन-रूप कर्मों का क्षय नहीं होता । वह इस प्रकार है:—
प्रथम तो, आगमहीन यह जगत—कि जो निरवधि (अनादि) भवसरिता के प्रवाह को बहाने वाले महा-मोह-मल से मलिन है वह—धतूरा पिये हुए मनुष्य की भाँति विवेक के नाश को प्राप्त होने से अविविक्त ज्ञानज्योति से यद्यपि देखता है तथापि, उसे स्वपरनिश्चायक आगमोपदेशपूर्वक स्वानुभव के अभाव के कारण, आत्मा में और आत्म-प्रदेश-स्थित शरीरादि द्रव्यों में तथा उपयोग-मिश्रित मोह-राग-द्वेषादिभावों में 'यह पर है और यह आत्मा (स्व) है' ऐसा ज्ञान सिद्ध नहीं होता; तथा उसे, परमात्म-निश्चायक आगमोपदेश-पूर्वक स्वानुभव के अभाव के कारण, जिसके त्रिकाल परिपाटी में विचित्र पर्यायों का समूह प्रगट होता है ऐसे अगाध-गम्भीर-स्वभाव विश्व को ज्ञेय-रूप करके प्रतपित (आभास, ज्ञात) ज्ञान-स्वभावी एक परमात्मा का ज्ञान भी सिद्ध नहीं होता ।
और (इस प्रकार) जो
- परात्मज्ञान से तथा
- परमात्म-ज्ञान से शून्य है
- द्रव्य-कर्म से होने वाले शरीरादि के साथ तथा तत्प्रतत्ययी मोह-राग-द्वेषादि भावों के साथ एकता का अनुभव करने से वध्य-घातक के विभाग का अभाव होने से मोहादि द्रव्य-भाव-कर्मों का क्षय सिद्ध नहीं होता, तथा
- ज्ञेय-निष्ठता से प्रत्येक वस्तु के उत्पाद-विनाशरूप परिणमित होने के कारण अनादि संसार से परिवर्तन को पाने वाली जो ज्ञप्ति, उसका परिवर्तन परमात्म-निष्ठता के अतिरिक्त अनिवार्य होने से, ज्ञप्ति-परिवर्तन-रूप कर्मों का क्षय
इसलिये कर्म-क्षयार्थियों को सर्वप्रकार से आगम की पर्युपासना करना योग्य है।