GP:प्रवचनसार - गाथा 239 - तत्त्व-प्रदीपिका - हिंदी
From जैनकोष
अब, ऐसा उपदेश करते हैं कि - आत्मज्ञानशून्य के सर्व आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथासंयतत्त्वका युगपत्पना भी अकिंचित्कर है, (अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकता) :-
सकल आगम के सार को हस्तामलकवत् करने से (हथेली में रक्खे हुए आंवले के समान स्पष्ट ज्ञान होने से) जो पुरुष भूत-वर्तमान-भावी स्वोचित (अपने-अपने योग्य) पर्यायों के साथ अशेष द्रव्य-समूह को जानने-वाले आत्मा को जानता है, श्रद्धान करता है और संयमित रखता है, उस पुरुष के आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व का युगपत्पना होने पर भी, यदि वह किंचित्मात्र भी मोहमल से लिप्त होने से शरीरादि के प्रति (तत्संबंधी) मूर्च्छा से उपरक्त रहने से, निरुपराग उपयोग में परिणत करके ज्ञानात्मक आत्मा का अनुभव नहीं करता, तो वह पुरुष मात्र उतने (कुछ) मोह-मल-कलंक-रूप कीले के साथ बँधे हुए कर्मों से न छूटता हुआ सिद्ध नहीं होता ।
इसलिये आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्त्व का युगपत्पना भी अकिंचित्कर ही है ॥२३९॥