GP:प्रवचनसार - गाथा 50 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
अब क्रमप्रवृत्त (क्रम से पदार्थों को जाननेवाले) ज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होते हैं, ऐसी व्यवस्था करते हैं - ऐसा निश्चित करते हैं -
[उप्पज्जदि जदि णाणं] - यदि ज्ञान उत्पन्न होता है । [कमसो] - क्रम से । ज्ञान क्रम से क्या करके उत्पन्न होता है? [अट्ठे पडुच्च] - ज्ञेय पदार्थों का आश्रयकर यदि ज्ञान उत्पन्न होता है? [णाणिस्स] - ज्ञानी आत्मा का ज्ञान यदि क्रमश: ज्ञेयों का आश्रयकर उत्पन्न होता है, तो [तं णेव हवदि णिच्चं] - उत्पत्ति के निमित्तभूत पदार्थों का विनाश होने पर उसका भी विनाश हो जाता है; अत: वह ज्ञान नित्य नहीं है । [ण खाइगं] - ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की पराधीनता होने से क्षायिक भी नहीं है । [णेव सव्वगदं] - क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से पराधीन होने के कारण नित्य नहीं है, क्षयोपशम के अधीन होने के कारण क्षायिक नहीं है; इसलिए एक साथ सम्पूर्ण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों की जानकारीरूप सामर्थ्य का अभाव होने से सर्वगत नहीं है ।
इससे यह निश्चित हुआ कि जो ज्ञान क्रम से पदार्थों का आश्रय लेकर उत्पन्न होता है, उस ज्ञान से सर्वज्ञ नहीं होते हैं ।