GP:प्रवचनसार - गाथा 52.1 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[करेदि] - करता है । वह कौन करता है? [लोगो] - लोक करता है । कैसा लोक करता है? [देवासुरमणुअरायसंबंधो] - देवेन्द, असुरेन्द्र और नरेन्द्र सम्बन्धी लोक करता है । और वह लोक कैसा है? [भत्तो] - भक्त है । [णिच्चं] - सदैव । और वह लोक किस विशेषता वाला है? [उवजुत्तो] - उपयोगयुक्त अथवा प्रयत्नशील है । ऐसा लोक क्या करता है? [णमाइं] - नमस्कार करता है । किन्हें नमस्कार करता है? उन पूर्वोक्त सर्वज्ञ को नमस्कार करता है । [तं तहा वि अहं] - मैं ग्रन्थकर्ता भी उन सर्वज्ञ को उसी प्रकार से नमस्कार करता हूँ ।
यहाँ अर्थ यह है कि जैसे देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि अनन्त, अक्षय सुखादि गुणों के स्थानभूत सर्वज्ञ स्वरूप को नमस्कार करते हैं; उसी प्रकार उस पद का अभिलाषी मैं भी परम भक्ति से उनको प्रणाम करता हूँ ।
इस प्रकार आठ स्थलों द्वारा ३२ गाथायें और उसके बाद एक नमस्कार-गाथा - इस प्रकार सामूहिक रूप से ३३ गाथाओं द्वारा ज्ञानप्रपंच नामक तीसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।