GP:प्रवचनसार - गाथा 74 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[जदि संति हि पुण्णाणि य] - यदि निश्चय से पुण्य-पाप रहित परमात्मा से विपरीत पुण्य हैं । और वे भी पुण्य किस विशेषता वाले हैं? [परिणामसमुब्भवाणि] - निर्विकार स्वसंवेदन से विलक्षणशुभ परिणामों से उत्पन्न [विविहाणि] - अपने अनन्त भेदों से अनेक प्रकार वाले हैं । तब वे पुण्य क्या करते हैं? [जणयंति विसयतण्हं] - उत्पन्न करते हैं । वे पुण्य क्या उत्पन्न करते हैं? वेविषय-तृष्णा उत्पन्न करते हैं । वे किनकी विषय-तृष्णा उत्पन्न करते हैं? [जीवाणं देवदंताणं] - देखे हुये, सुने हुये, अनुभव किये हुये भोगों की आकांक्षा रूप निदान बंध से लेकर विविध प्रकार के इच्छा रूपी घोड़ों और विकल्प जालों से रहित परमसमाधि (स्वरूपलीनता) से उत्पन्न, सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों में परमाह्लाद को उत्पन्न करने वाले एकाकार परम समरसीभाव स्वरूप, विषयेच्छा रूप अग्नि से उत्पन्न तीव्रदाह की विनाशक, सुखामृत स्वरूप तृप्ति को प्राप्त नहीं करने वाले देवेन्द्रों से लेकर बहिर्मुख संसारी जीवों की विषय-तृष्णा को उत्पन्न करते हैं ।
यहाँ तात्पर्य यह है कि यदि (उक्त बहिर्मुखी जीवों के) उस प्रकार की विषय-तृष्णा नहीं होती, तो वे दूषित रक्त में आसक्त जलयूका (जोंक) के समान विषयों में प्रवृत्ति कैसे करते? और यदि वे करते है, तो तृष्णा के उत्पादक होने से पुण्य दुःख के कारण ज्ञात होते हैं।