GP:प्रवचनसार - गाथा 95 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी
From जैनकोष
[अपरिच्चत्तसहावेण] स्वभाव को नहीं छोड़ने वाले अस्तित्व के साथ अभिन्न [उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं] उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य के साथ संयुक्त [गुणवं च सपज्जायं] गुणयुक्त और पर्याय सहित [जं] जो इसप्रकार सत्ता आदि तीन लक्षणों से सहित है, [तं दव्वं ति वुच्चंति] वह द्रव्य है-ऐसा सर्वज्ञ कहते हैं ।
यह द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य और गुण-पर्याय के साथ लक्ष्य-लक्षण भेद होने पर भी सत्ता से भिन्न नहीं है । यदि सत्ताभेद नहीं है तो क्या करता है? स्वरूप से ही उस प्रकारता का अवलम्बन करता है । उस प्रकारता का अवलम्बन करता है - इसका क्या अर्थ है? शुद्धात्मा के समान ही उत्पाद-व्यय-धौव्य स्वरूप और गुण-पर्याय स्वरूप परिणमित होता है - यह अर्थ है ।
वह इसप्रकार --
- केवलज्ञान की उत्पत्ति के प्रसंग में
- शुद्धात्मा की रुचि जानकारी निश्चल अनुभूति- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप कारण-समयसार पर्याय का विनाश होने पर
- शुद्धात्मा की प्राप्ति रूप कार्य-समयसार का उत्पाद, कारण-समयसार का व्यय तथा उन दोनों का आधारभूत परमात्मा द्रव्यरूप से धौव्य है ।
उसी प्रकार सभी द्रव्य अपने-अपने यथोचित उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य और उसी प्रकार गुण-पर्यायों के साथ यद्यपि संज्ञा-लक्षण-प्रयोजन आदि के द्वारा भेद करते हैं; तथापि सत्ता-स्वरूप से भेद नहीं करते हैं, स्वभाव से ही उस प्रकारता का अवलम्बन करते हैं । उस प्रकारता का क्या अर्थ है? उत्पाद-व्यय आदि स्वरूप से परिणमित होते है- यह अर्थ है ।
अथवा जैसे कपड़ा निर्मल पर्याय से उत्पन्न, मलिन पर्याय से नष्ट और उन दोनों के आधारभूत कपड़े रूप से ध्रुव-अविनश्वर है और उसीप्रकार सफेद रंग आदि गुण तथा नवीन-पुरानी पर्याय सहित है; उसी प्रकार सत् उन उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य और अपने गुण-पर्यायों के साथ संज्ञा आदि भेद होने पर भी सत्तारूप से भेद नहीं करता है । सत्तारूप से भेद नहीं करता है तो क्या करता है? स्वरूप से ही उत्पादादि रूप परिणमित होता है; इसीप्रकार सभी द्रव्य भी जानना चाहिये- यह अभिप्राय है ॥१०५॥