निमित्त की कथंचित् गौणता मुख्यता: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III" id="III">निमित्त की कथंचित् गौणता मुख्यता</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.1" id="III.1"> निमित्त के उदाहरण</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.1.1" id="III.1.1"> षट् द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/17-22 </span><span class="SanskritText">गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकार:।17। आकाशस्यावगाह:।18। शरीरवाङ्मन:प्राणापाना: पुद्गला नाम।19। सुखदु:खजीवितमरणोपग्रहाश्च।20। परस्परोपग्रहो जीवानाम्।25। वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य।22।</span> =<span class="HindiText">(जीव व पुद्गल की) गति और स्थिति में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है।17। अवकाश देना आकाश का उपकार है।18। शरीर, वचन, मन और प्राणापान पुद्गलों का उपकार है।19। सुख दुःख जीवन और मरण ये भी पुद्गलों के उपकार हैं।20। परस्पर निमित्त होना यह जीवों का उपकार है।21। वर्तना परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं।20। | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/17-22 </span><span class="SanskritText">गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकार:।17। आकाशस्यावगाह:।18। शरीरवाङ्मन:प्राणापाना: पुद्गला नाम।19। सुखदु:खजीवितमरणोपग्रहाश्च।20। परस्परोपग्रहो जीवानाम्।25। वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य।22।</span> =<span class="HindiText">(जीव व पुद्गल की) गति और स्थिति में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है।17। अवकाश देना आकाश का उपकार है।18। शरीर, वचन, मन और प्राणापान पुद्गलों का उपकार है।19। सुख दुःख जीवन और मरण ये भी पुद्गलों के उपकार हैं।20। परस्पर निमित्त होना यह जीवों का उपकार है।21। वर्तना परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं।20। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/605-606/1050, 1060 )</span>, <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/208-210 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/20/289/2 </span><span class="SanskritText"> एतानि सुखादीनि जीवस्य पुद्गलकृत उपकार:, मूर्त्तिमद्धेतुसंनिधाने सति तदुत्पत्ते:।...पुद्गलानां पुद्गलकृत उपकार इति। तद्यथा-कंस्यादीनां भस्मादिभिर्जलादीनां कतकादिभिरय:प्रभृतीनामुदकादिभिरुपकार: क्रियते। च शब्द:....अन्योऽपि पुद्गलकृत उपकारोऽस्तीति समुच्चीयते। यथा शरीराणि एवं चक्षुरादीनींद्रियाण्यपीति।20। ... परस्परोपग्रह:। जीवानामुपकार:। क: पुनरसौ। स्वामी भृत्य:, आचार्य: शिष्य: इत्येवमादिभावेन वृत्ति: परस्परोपग्रह:। स्वामी तावद्वित्तत्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते। भृत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिपेधेनच। आचार्य उपदेशदर्शनेन... क्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते। शिष्या अपि तदानुकूलवृत्त्या आचार्याणाम् । ...पूर्वोक्तसुखादिचतुष्टयप्रदर्शनार्थं पुन: उपग्रह वचनं क्रियते। सुखादीन्यपि जीवानां जीवकृत उपकार इति।21।</span>=<span class="HindiText">ये सुखादिक जीव के पुद्गल कृत उपकार हैं, क्योंकि मूर्त्त कारणों के रहने पर ही इनकी उत्पत्ति होती है। (इसके अतिरिक्त) पुद्गलों का भी पुद्गल कृत उपकार होता है। यथा-कांसे आदि का राख आदि के द्वारा, जल आदि के द्वारा उपकार किया जाता है। पुद्गल कृत और भी उपकार हैं, इसके समुच्चय के लिए सूत्र में ‘च’ शब्द दिया है। जिस प्रकार शरीरादिक पुद्गल कृत उपकार हैं उसी प्रकार चक्षु आदि इंद्रियाँ भी पुद्गल कृत उपकार हैं। परस्पर का उपग्रह करना जीवों का उपकार है। जैसे स्वामी तो धन आदि देकर और सेवक उसके हित का कथन करके तथा अहित का निषेध करके एक दूसरे का उपकार करते हैं। आचार्य उपदेश द्वारा तथा क्रिया में लगाकर शिष्यों का और शिष्य अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा आचार्य का उपकार करते हैं। इनके अतिरिक्त सुख आदिक भी जीव के जीव कृत उपकार हैं। | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/20/289/2 </span><span class="SanskritText"> एतानि सुखादीनि जीवस्य पुद्गलकृत उपकार:, मूर्त्तिमद्धेतुसंनिधाने सति तदुत्पत्ते:।...पुद्गलानां पुद्गलकृत उपकार इति। तद्यथा-कंस्यादीनां भस्मादिभिर्जलादीनां कतकादिभिरय:प्रभृतीनामुदकादिभिरुपकार: क्रियते। च शब्द:....अन्योऽपि पुद्गलकृत उपकारोऽस्तीति समुच्चीयते। यथा शरीराणि एवं चक्षुरादीनींद्रियाण्यपीति।20। ... परस्परोपग्रह:। जीवानामुपकार:। क: पुनरसौ। स्वामी भृत्य:, आचार्य: शिष्य: इत्येवमादिभावेन वृत्ति: परस्परोपग्रह:। स्वामी तावद्वित्तत्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते। भृत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिपेधेनच। आचार्य उपदेशदर्शनेन... क्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते। शिष्या अपि तदानुकूलवृत्त्या आचार्याणाम् । ...पूर्वोक्तसुखादिचतुष्टयप्रदर्शनार्थं पुन: उपग्रह वचनं क्रियते। सुखादीन्यपि जीवानां जीवकृत उपकार इति।21।</span>=<span class="HindiText">ये सुखादिक जीव के पुद्गल कृत उपकार हैं, क्योंकि मूर्त्त कारणों के रहने पर ही इनकी उत्पत्ति होती है। (इसके अतिरिक्त) पुद्गलों का भी पुद्गल कृत उपकार होता है। यथा-कांसे आदि का राख आदि के द्वारा, जल आदि के द्वारा उपकार किया जाता है। पुद्गल कृत और भी उपकार हैं, इसके समुच्चय के लिए सूत्र में ‘च’ शब्द दिया है। जिस प्रकार शरीरादिक पुद्गल कृत उपकार हैं उसी प्रकार चक्षु आदि इंद्रियाँ भी पुद्गल कृत उपकार हैं। परस्पर का उपग्रह करना जीवों का उपकार है। जैसे स्वामी तो धन आदि देकर और सेवक उसके हित का कथन करके तथा अहित का निषेध करके एक दूसरे का उपकार करते हैं। आचार्य उपदेश द्वारा तथा क्रिया में लगाकर शिष्यों का और शिष्य अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा आचार्य का उपकार करते हैं। इनके अतिरिक्त सुख आदिक भी जीव के जीव कृत उपकार हैं। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/605-606/1060-1062 )</span> <span class="GRef">( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/208-210 )</span><br /> | ||
<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/34 </span>जीवस्सुवयारकरा कारणभूया हु पंचकायाई। जीवो सत्ताभूओ सो ताणं ण कारणं होइ।34।</span><br /> | <span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/34 </span>जीवस्सुवयारकरा कारणभूया हु पंचकायाई। जीवो सत्ताभूओ सो ताणं ण कारणं होइ।34।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/ </span>अधिकार 2 की चूलिका/78/2<span class="SanskritText"> पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्यवहारनयेन जीवस्य शरीरवाङ्मन:प्राणापानादिगतिस्थित्यवगाहवर्तनाकार्याणि कुर्वंतीति कारणानि भवंति। जीवद्रव्यं पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोपग्रहं करोति तथापि पुद्गलादिपंचद्रव्याणां किमपि न करोतीत्यकारणम् ।</span>=<span class="HindiText">पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये पाँचों द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, इसलिए वे कारणभूत हैं, किंतु जीव सत्ता स्वरूप है उनका कारण नहीं है।34। उपरोक्त पाँचों द्रव्यों में से व्यवहार नय की अपेक्षा जीव के शरीर, वचन, मन, श्वास, नि:श्वास आदि कार्य तो पुद्गल द्रव्य करता है। और गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तना रूप कार्य क्रम से धर्म, अधर्म, आकाश और काल करते हैं। इसलिए पुद्गलादि पाँच द्रव्य कारण हैं। जीव द्रव्य यद्यपि गुरु शिष्य आदि रूप से आपस में एक दूसरे का उपकार करता है, फिर भी पुद्गल आदि पाँचों द्रव्यों के लिए जीव कुछ भी नहीं करता, इसलिए वह अकारण है। | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/ </span>अधिकार 2 की चूलिका/78/2<span class="SanskritText"> पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्यवहारनयेन जीवस्य शरीरवाङ्मन:प्राणापानादिगतिस्थित्यवगाहवर्तनाकार्याणि कुर्वंतीति कारणानि भवंति। जीवद्रव्यं पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोपग्रहं करोति तथापि पुद्गलादिपंचद्रव्याणां किमपि न करोतीत्यकारणम् ।</span>=<span class="HindiText">पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये पाँचों द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, इसलिए वे कारणभूत हैं, किंतु जीव सत्ता स्वरूप है उनका कारण नहीं है।34। उपरोक्त पाँचों द्रव्यों में से व्यवहार नय की अपेक्षा जीव के शरीर, वचन, मन, श्वास, नि:श्वास आदि कार्य तो पुद्गल द्रव्य करता है। और गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तना रूप कार्य क्रम से धर्म, अधर्म, आकाश और काल करते हैं। इसलिए पुद्गलादि पाँच द्रव्य कारण हैं। जीव द्रव्य यद्यपि गुरु शिष्य आदि रूप से आपस में एक दूसरे का उपकार करता है, फिर भी पुद्गल आदि पाँचों द्रव्यों के लिए जीव कुछ भी नहीं करता, इसलिए वह अकारण है। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/12 )</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.1.2" id="III.1.2"> द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप निमित्त</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/245/289/3 </span><span class="PrakritText">पागभावो कारणं। पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवावेक्खाए जायदे। तदो ण सव्वद्धं दव्वकम्माहं सगफलं कुणंति त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">प्रागभाव का विनाश हुए बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और प्रागभाव का विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव की अपेक्षा लेकर होता है। इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं, यह सिद्ध होता है। <br /> | <span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/245/289/3 </span><span class="PrakritText">पागभावो कारणं। पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवावेक्खाए जायदे। तदो ण सव्वद्धं दव्वकम्माहं सगफलं कुणंति त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">प्रागभाव का विनाश हुए बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और प्रागभाव का विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव की अपेक्षा लेकर होता है। इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं, यह सिद्ध होता है। <br /> | ||
(देखें [[ बंध#3.1 | बंध - 3.1]]) कर्मों का बंध भी द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा लेकर होता है। <br /> | (देखें [[ बंध#3.1 | बंध - 3.1]]) कर्मों का बंध भी द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा लेकर होता है। <br /> | ||
(देखें [[ उदय#1 | उदय - 1]]) कर्मों का उदय भी द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा लेकर होता है।<br /> | (देखें [[ उदय#1 | उदय - 1]]) कर्मों का उदय भी द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा लेकर होता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.1.3" id="III.1.3"> निमित्त की प्रेरणा से कार्य होना</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/19/286/9 </span><span class="SanskritText">तत्सामर्थ्योपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणा: पुद्गला वाक्त्वेन विपरिणमंत इति।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार की (भाव वचन की) सामर्थ्य से युक्त क्रिया वाले आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल वचन रूप से परिणमन करते हैं। | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/19/286/9 </span><span class="SanskritText">तत्सामर्थ्योपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणा: पुद्गला वाक्त्वेन विपरिणमंत इति।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार की (भाव वचन की) सामर्थ्य से युक्त क्रिया वाले आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल वचन रूप से परिणमन करते हैं। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/606/1062/3 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/6/15 </span><span class="SanskritText"> वीतरागसर्वज्ञदिव्यध्वनिशास्त्रे प्रवृत्ते किं कारणं। भव्यपुण्यप्रेरणात् ।</span> <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>–वीतराग सर्वज्ञ देव की दिव्य ध्वनि में प्रवृत्ति किस कारण से होती है ? <strong>उत्तर</strong>–भव्य जीवों के पुण्य की प्रेरणा से।<br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/6/15 </span><span class="SanskritText"> वीतरागसर्वज्ञदिव्यध्वनिशास्त्रे प्रवृत्ते किं कारणं। भव्यपुण्यप्रेरणात् ।</span> <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>–वीतराग सर्वज्ञ देव की दिव्य ध्वनि में प्रवृत्ति किस कारण से होती है ? <strong>उत्तर</strong>–भव्य जीवों के पुण्य की प्रेरणा से।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.1.4" id="III.1.4"> निमित्त नैमित्तिक संबंध</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/312-313 </span><span class="PrakritGatha">चेया उ पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी वि चेययट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ।312। एवं बंधो उ दुण्हं वि अण्णोण्णपच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे।313।</span>=<span class="HindiText">आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है तथा प्रकृति भी आत्मा के निमित्त से उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है। इस प्रकार परस्पर निमित्त से दोनों ही आत्मा का और प्रकृति का बंध होता है, और इससे संसार होता है।</span><br /> | <span class="GRef"> समयसार/312-313 </span><span class="PrakritGatha">चेया उ पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी वि चेययट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ।312। एवं बंधो उ दुण्हं वि अण्णोण्णपच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे।313।</span>=<span class="HindiText">आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है तथा प्रकृति भी आत्मा के निमित्त से उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है। इस प्रकार परस्पर निमित्त से दोनों ही आत्मा का और प्रकृति का बंध होता है, और इससे संसार होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/2/1, 1/412/11 </span><span class="SanskritText">तथोच्छवासनि:श्वासप्राणपर्याप्तयो:। कार्यकारणयोरात्मपुद्गलोपादानयोर्भेदोऽभिघातव्य इति।=</span><span class="HindiText">उच्छ्वासनि:श्वास: प्राण कार्य है और आत्मा उपादान कारण है तथा उच्छ्वासनि:श्वासपर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादान निमित्तक है।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला/2/1, 1/412/11 </span><span class="SanskritText">तथोच्छवासनि:श्वासप्राणपर्याप्तयो:। कार्यकारणयोरात्मपुद्गलोपादानयोर्भेदोऽभिघातव्य इति।=</span><span class="HindiText">उच्छ्वासनि:श्वास: प्राण कार्य है और आत्मा उपादान कारण है तथा उच्छ्वासनि:श्वासपर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादान निमित्तक है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/286-287 </span><span class="SanskritText"> यथाध:कर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्न च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे...इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं प्रत्याचष्टे।...एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभाव:।</span> =<span class="HindiText">जैसे अध: कार्य से उत्पन्न और उद्देश्य से उत्पन्न हुए निमित्तभूत (आहारादि) पुद्गल द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा नैमित्तिक भूत बंध साधक भाव का प्रत्याख्यान नहीं करता, इसी प्रकार समस्त पर द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होने वाले भाव को (भी) नहीं त्यागता।... इस प्रकार तत्त्वज्ञान पूर्वक निमित्तभूत पुद्गल द्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा, जैसे नैमित्तिक भूत बंध साधक भाव का प्रत्याख्यान करता है, उसी प्रकार समस्त परद्रव्यों का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होनेवाले भाव का प्रत्याख्यान करता है। इस प्रकार द्रव्य और भाव को निमित्त नैमित्तिकपना है। </span><br /> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/286-287 </span><span class="SanskritText"> यथाध:कर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्न च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे...इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं प्रत्याचष्टे।...एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभाव:।</span> =<span class="HindiText">जैसे अध: कार्य से उत्पन्न और उद्देश्य से उत्पन्न हुए निमित्तभूत (आहारादि) पुद्गल द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा नैमित्तिक भूत बंध साधक भाव का प्रत्याख्यान नहीं करता, इसी प्रकार समस्त पर द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होने वाले भाव को (भी) नहीं त्यागता।... इस प्रकार तत्त्वज्ञान पूर्वक निमित्तभूत पुद्गल द्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा, जैसे नैमित्तिक भूत बंध साधक भाव का प्रत्याख्यान करता है, उसी प्रकार समस्त परद्रव्यों का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होनेवाले भाव का प्रत्याख्यान करता है। इस प्रकार द्रव्य और भाव को निमित्त नैमित्तिकपना है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/312-313 </span><span class="SanskritText"> एवमनयोरात्मप्रकृतयो: कर्तृकर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बंधो दृष्ट:, तत: संसार:, तत एव च कर्तृकर्मव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">यद्यपि उन आत्मा और प्रकृति के कर्ता कर्म भाव का अभाव है तथापि परस्पर निमित्त नैमित्तिक भाव से दोनों के बंध देखा जाता है। इससे संसार है और यह ही उनके कर्ता कर्म का व्यवहार है। | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/312-313 </span><span class="SanskritText"> एवमनयोरात्मप्रकृतयो: कर्तृकर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बंधो दृष्ट:, तत: संसार:, तत एव च कर्तृकर्मव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">यद्यपि उन आत्मा और प्रकृति के कर्ता कर्म भाव का अभाव है तथापि परस्पर निमित्त नैमित्तिक भाव से दोनों के बंध देखा जाता है। इससे संसार है और यह ही उनके कर्ता कर्म का व्यवहार है। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1071 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/349-350 </span><span class="SanskritText">यतो खलु शिल्पी सुवर्णकारादि: कुंडलादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति ...न त्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्त्रभोग्यत्वव्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">जैसे शिल्पी (स्वर्णकार आदि) कुंडल आदि जो पर द्रव्य परिणामात्मक कर्म करता है, किंतु अनेक द्रव्यत्व के कारण उनसे अन्य होने से तन्मय नहीं होता; इसलिए निमित्त नैमित्तिक भावमात्र से ही वहाँ कर्तृ कर्मत्व का और भोक्ता भोक्तृत्व का व्यवहार है।<br /> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/349-350 </span><span class="SanskritText">यतो खलु शिल्पी सुवर्णकारादि: कुंडलादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति ...न त्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्त्रभोग्यत्वव्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">जैसे शिल्पी (स्वर्णकार आदि) कुंडल आदि जो पर द्रव्य परिणामात्मक कर्म करता है, किंतु अनेक द्रव्यत्व के कारण उनसे अन्य होने से तन्मय नहीं होता; इसलिए निमित्त नैमित्तिक भावमात्र से ही वहाँ कर्तृ कर्मत्व का और भोक्ता भोक्तृत्व का व्यवहार है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.1.5" id="III.1.5">अन्य सामान्य उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/27/223/2 </span><span class="PrakritText">किंहेतुकौ पुनरसौ। कालहेतुकौ।</span>=<span class="HindiText">ये वृद्धि ह्रास काल के निमित्त से होते हैं। | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/27/223/2 </span><span class="PrakritText">किंहेतुकौ पुनरसौ। कालहेतुकौ।</span>=<span class="HindiText">ये वृद्धि ह्रास काल के निमित्त से होते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/27/191/26 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/24/20 </span><span class="SanskritText">शाम्यंति जंतव: क्रूरा बद्धवैरा परस्परम् । अपि स्वार्थे प्रवृत्तस्य मुने: साम्यप्रभावत:।20।</span>=<span class="HindiText">इस साम्यभाव के प्रभाव से अपने स्वार्थ में प्रवृत्त मुनि के निकट परस्पर वैर करने वाले क्रूर जीव भी साम्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं।<br /> | <span class="GRef"> ज्ञानार्णव/24/20 </span><span class="SanskritText">शाम्यंति जंतव: क्रूरा बद्धवैरा परस्परम् । अपि स्वार्थे प्रवृत्तस्य मुने: साम्यप्रभावत:।20।</span>=<span class="HindiText">इस साम्यभाव के प्रभाव से अपने स्वार्थ में प्रवृत्त मुनि के निकट परस्पर वैर करने वाले क्रूर जीव भी साम्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.2" id="III.2">निमित्त की कथंचित् गौणता</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.2.1" id="III.2.1"> सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1 9-6,19/164/7 </span><span class="PrakritText">कुदो। पयडिविसेसादो। ण च सव्वाइं कज्जाइं एयंतेण बज्झत्थमवेक्खिय चे उप्पज्जंति, सालिबीजादो जवंकुरस्स वि उप्पत्तिप्पसंगा। ण च तारिसाइ्ं दव्वाइं तिसु वि कालेसु कहिं पि अत्थि, जेसिं बलेण सालिबीजस्स जवंकुरप्पायणसत्ती होज्ज, अणवत्थापसंगादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—(इन सर्व कर्म प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बंध इतना इतना क्यों है। जीव परिणामों के निमित्त से इससे अधिक क्यों नहीं हो सकता) ? <strong>उत्तर–</strong>क्योंकि प्रकृति विशेष होने से सूत्रोक्त प्रकृतियों का यह स्थिति बंध होता है। सभी कार्य एकांत से बाह्य अर्थ की अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते हैं, अन्यथा शालि धान्य के बीज से जौ के भी अंकुर की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। किंतु उस प्रकार के द्रव्य तीनों ही कालों में किसी भी क्षेत्र में नहीं हैं कि जिनके बल से शालि धान्य के बीज के जौ के अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति हो सके। यदि ऐसा होने लगेगा तो अनवस्था दोष प्राप्त होगा। <br /> | <span class="GRef"> धवला 6/1 9-6,19/164/7 </span><span class="PrakritText">कुदो। पयडिविसेसादो। ण च सव्वाइं कज्जाइं एयंतेण बज्झत्थमवेक्खिय चे उप्पज्जंति, सालिबीजादो जवंकुरस्स वि उप्पत्तिप्पसंगा। ण च तारिसाइ्ं दव्वाइं तिसु वि कालेसु कहिं पि अत्थि, जेसिं बलेण सालिबीजस्स जवंकुरप्पायणसत्ती होज्ज, अणवत्थापसंगादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—(इन सर्व कर्म प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बंध इतना इतना क्यों है। जीव परिणामों के निमित्त से इससे अधिक क्यों नहीं हो सकता) ? <strong>उत्तर–</strong>क्योंकि प्रकृति विशेष होने से सूत्रोक्त प्रकृतियों का यह स्थिति बंध होता है। सभी कार्य एकांत से बाह्य अर्थ की अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते हैं, अन्यथा शालि धान्य के बीज से जौ के भी अंकुर की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। किंतु उस प्रकार के द्रव्य तीनों ही कालों में किसी भी क्षेत्र में नहीं हैं कि जिनके बल से शालि धान्य के बीज के जौ के अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति हो सके। यदि ऐसा होने लगेगा तो अनवस्था दोष प्राप्त होगा। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.2.2" id="III.2.2">धर्मादि द्रव्य उपकारक हैं प्रेरक नहीं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/88-89 </span><span class="PrakritGatha"> ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स। हवदिगदिस्स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च।88। विज्जदि जसि गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि। ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति।89।=</span><span class="HindiText">धर्मास्तिकाय गमन नहीं करता और अन्य द्रव्य को गमन नहीं कराता। वह जीवों तथा पुद्गलों को गति का उदासीन प्रसारक (गति प्रसार में उदासीन निमित्त) है।88। जिनको गति होती है उन्हीं को स्थिति होती है। वे तो अपने-अपने परिणामों से गति और स्थिति करते हैं। (इसलिए धर्म व अधर्म द्रव्य जीव पुद्गल की गति व स्थिति में मुख्य हेतु नहीं (तत्व प्रदीपिका टीका)।</span><br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय/88-89 </span><span class="PrakritGatha"> ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स। हवदिगदिस्स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च।88। विज्जदि जसि गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि। ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति।89।=</span><span class="HindiText">धर्मास्तिकाय गमन नहीं करता और अन्य द्रव्य को गमन नहीं कराता। वह जीवों तथा पुद्गलों को गति का उदासीन प्रसारक (गति प्रसार में उदासीन निमित्त) है।88। जिनको गति होती है उन्हीं को स्थिति होती है। वे तो अपने-अपने परिणामों से गति और स्थिति करते हैं। (इसलिए धर्म व अधर्म द्रव्य जीव पुद्गल की गति व स्थिति में मुख्य हेतु नहीं (तत्व प्रदीपिका टीका)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/7/4-6/446 </span><span class="SanskritText"> निष्क्रियत्वात् गतिस्थिति-अवगाहनक्रियाहेतुत्वाभाव इति चेत्; न; बलाधानमात्रत्वादिंद्रियवत् ।4।...यथा दिदृक्षोश्चक्षुरिंद्रियं रूपोपलब्धौ बलाधानमात्रमिष्टं न तु चक्षुष: तत्सामर्थ्यम् इंद्रियांतरोपयुक्तस्य तद्भावात् ।...तथा स्वयमेव गतिस्थित्यवगाहनपर्यायपरिणामिनां जीवपुद्गलानां धर्माधर्माकाशद्रव्याणि गत्यादिनिवृत्तौ बलाधानमात्रत्वेन विवक्षितानि न तु स्वयं क्रियापरिणामीनि। कुत: पुनरेतदेवमिति चेत् । उच्यतेद्रव्यसामर्थ्यात् ।5। यथा आकाशमगच्छत् सर्वद्रव्यै: संबद्धम्, न चास्य सामर्थ्यमन्यस्यास्ति। तथा च निष्क्रियत्वेऽप्येषां गत्यादिक्रियानिवृत्तिं प्रतिबलाधानमात्रत्वमसाधारणमवसेयम् ।<br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/5/7/4-6/446 </span><span class="SanskritText"> निष्क्रियत्वात् गतिस्थिति-अवगाहनक्रियाहेतुत्वाभाव इति चेत्; न; बलाधानमात्रत्वादिंद्रियवत् ।4।...यथा दिदृक्षोश्चक्षुरिंद्रियं रूपोपलब्धौ बलाधानमात्रमिष्टं न तु चक्षुष: तत्सामर्थ्यम् इंद्रियांतरोपयुक्तस्य तद्भावात् ।...तथा स्वयमेव गतिस्थित्यवगाहनपर्यायपरिणामिनां जीवपुद्गलानां धर्माधर्माकाशद्रव्याणि गत्यादिनिवृत्तौ बलाधानमात्रत्वेन विवक्षितानि न तु स्वयं क्रियापरिणामीनि। कुत: पुनरेतदेवमिति चेत् । उच्यतेद्रव्यसामर्थ्यात् ।5। यथा आकाशमगच्छत् सर्वद्रव्यै: संबद्धम्, न चास्य सामर्थ्यमन्यस्यास्ति। तथा च निष्क्रियत्वेऽप्येषां गत्यादिक्रियानिवृत्तिं प्रतिबलाधानमात्रत्वमसाधारणमवसेयम् ।<br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/17/16/462/5 </span>तयो: कर्तृत्वप्रसंग इति चेत्, न; उपकारवचनाद् यष्ट्यादिवत् ।16।... जीवपुद्गलानां स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मौ उपकारकौ न प्रेरकौ इत्युक्तं भवति।... ततश्च मन्यामहे न प्रधानकर्तांरौ इति।17।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–क्रियावाले ही जलादि पदार्थ मछली आदि की गति और स्थिति में निमित्त देखे गये हैं, अत: निष्क्रिय धर्मा धर्मादि गति स्थिति में निमित्त कैसे हो सकते हैं? <strong>उत्तर</strong>–जैसे देखने की इच्छा करने वाले आत्मा को चक्षु इंद्रिय बलाधायक हो जाती है, इंद्रियांतर में उपयुक्त आत्मा को वह स्वयं प्रेरणा नहीं करती। उसी प्रकार स्वयं गति स्थिति और अवगाहन रूप से परिणमन करने वाले द्रव्यों की गति आदि में धर्मादि द्रव्य निमित्त हो जाते हैं, स्वयं क्रिया नहीं करते। जैसे आकाश अपनी द्रव्य सामर्थ्य से गमन न करने पर भी सभी द्रव्यों से संबद्ध है और सर्वगत कहलाता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्यों की भी गति आदि में निमित्तता समझनी चाहिए। जैसे यष्टि चलते हुए अंधे की उपकारक है उसे प्रेरणा नहीं करती उसी प्रकार धर्मादिकों को भी उपकारक कहने से उनमें प्रेरक कर्तृत्व नहीं आ सकता। इससे जाना जाता है कि ये दोनों प्रधान कर्ता नहीं हैं। | <span class="GRef"> राजवार्तिक/5/17/16/462/5 </span>तयो: कर्तृत्वप्रसंग इति चेत्, न; उपकारवचनाद् यष्ट्यादिवत् ।16।... जीवपुद्गलानां स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मौ उपकारकौ न प्रेरकौ इत्युक्तं भवति।... ततश्च मन्यामहे न प्रधानकर्तांरौ इति।17।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–क्रियावाले ही जलादि पदार्थ मछली आदि की गति और स्थिति में निमित्त देखे गये हैं, अत: निष्क्रिय धर्मा धर्मादि गति स्थिति में निमित्त कैसे हो सकते हैं? <strong>उत्तर</strong>–जैसे देखने की इच्छा करने वाले आत्मा को चक्षु इंद्रिय बलाधायक हो जाती है, इंद्रियांतर में उपयुक्त आत्मा को वह स्वयं प्रेरणा नहीं करती। उसी प्रकार स्वयं गति स्थिति और अवगाहन रूप से परिणमन करने वाले द्रव्यों की गति आदि में धर्मादि द्रव्य निमित्त हो जाते हैं, स्वयं क्रिया नहीं करते। जैसे आकाश अपनी द्रव्य सामर्थ्य से गमन न करने पर भी सभी द्रव्यों से संबद्ध है और सर्वगत कहलाता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्यों की भी गति आदि में निमित्तता समझनी चाहिए। जैसे यष्टि चलते हुए अंधे की उपकारक है उसे प्रेरणा नहीं करती उसी प्रकार धर्मादिकों को भी उपकारक कहने से उनमें प्रेरक कर्तृत्व नहीं आ सकता। इससे जाना जाता है कि ये दोनों प्रधान कर्ता नहीं हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/17/24/463/31 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/570/1015 </span><span class="PrakritGatha">य ण परिणमदि समं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं। विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेतु।570।</span>=<span class="HindiText">काल न तो स्वयं अन्य द्रव्यरूप परिणमन करता है और न अन्य को अपने रूप या किसी अन्य रूप परिणमन कराता है। नाना प्रकार के परिणामों युक्त ये द्रव्य स्वयं परिणमन कर रहे हैं, उनको काल द्रव्य स्वयं हेतु या निमित्त मात्र है। </span><br /> | <span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/570/1015 </span><span class="PrakritGatha">य ण परिणमदि समं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं। विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेतु।570।</span>=<span class="HindiText">काल न तो स्वयं अन्य द्रव्यरूप परिणमन करता है और न अन्य को अपने रूप या किसी अन्य रूप परिणमन कराता है। नाना प्रकार के परिणामों युक्त ये द्रव्य स्वयं परिणमन कर रहे हैं, उनको काल द्रव्य स्वयं हेतु या निमित्त मात्र है। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/50/11 </span><span class="SanskritText">सर्वद्रव्याणां निश्चयेन स्वयमेव परिणामं गच्छंतां शीतकाले स्वयमेवाध्ययनक्रियां कुर्वाणस्य पुरुषस्याग्निसहकारिवत् स्वयमेव भ्रमणक्रियां कुर्वाणस्य कुंभकारचक्रस्याधस्तनशिलासहकारिवद्बहिरंगनिमित्तत्वाद्वर्तनालक्षणश्च कालाणुरूपो निश्चयकालो भवति।</span>=<span class="HindiText">सर्व द्रव्यों को जो कि निश्चय से स्वयं ही परिणमन करते हैं; उनके बहिरंग निमित्त रूप होने से वर्तना लक्षण वाला यह कालाणु निश्चय काल होता है। जिस प्रकार शीतकाल में स्वयमेव अध्ययन क्रिया परिणत पुरुष के अग्नि सहकारी होती है, अथवा स्वयमेव भम्रण क्रिया करने वाले कुम्हार के चक्र को उसकी अधस्तन शिला सहकारी होती है, उसी प्रकार यह निश्चय काल द्रव्य भी, स्वयमेव परिणमने वाले द्रव्यों को बाह्य सहकारी निमित्त है। | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/50/11 </span><span class="SanskritText">सर्वद्रव्याणां निश्चयेन स्वयमेव परिणामं गच्छंतां शीतकाले स्वयमेवाध्ययनक्रियां कुर्वाणस्य पुरुषस्याग्निसहकारिवत् स्वयमेव भ्रमणक्रियां कुर्वाणस्य कुंभकारचक्रस्याधस्तनशिलासहकारिवद्बहिरंगनिमित्तत्वाद्वर्तनालक्षणश्च कालाणुरूपो निश्चयकालो भवति।</span>=<span class="HindiText">सर्व द्रव्यों को जो कि निश्चय से स्वयं ही परिणमन करते हैं; उनके बहिरंग निमित्त रूप होने से वर्तना लक्षण वाला यह कालाणु निश्चय काल होता है। जिस प्रकार शीतकाल में स्वयमेव अध्ययन क्रिया परिणत पुरुष के अग्नि सहकारी होती है, अथवा स्वयमेव भम्रण क्रिया करने वाले कुम्हार के चक्र को उसकी अधस्तन शिला सहकारी होती है, उसी प्रकार यह निश्चय काल द्रव्य भी, स्वयमेव परिणमने वाले द्रव्यों को बाह्य सहकारी निमित्त है। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/85/142/15 )</span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.2.3" id="III.2.3"> अन्य भी उदासीन कारण धर्मद्रव्यवत् ही जानने</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> इष्टोपदेश/ </span> | <span class="GRef"> इष्टोपदेश/ मूल/35 </span> <span class="SanskritText">नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति। निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेर्धर्मास्तिकायवत् ।</span>=<span class="HindiText">जो पुरुष अज्ञानी या तत्त्वज्ञान के अयोग्य है वह गुरु आदि पर के निमित्त से विशेष ज्ञानी नहीं हो सकता। और जो विशेष ज्ञानी है, तत्त्वज्ञान की योग्यता से संपन्न है वह अज्ञानी नहीं हो सकता। अत: जिस प्रकार धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलों के गमन में उदासीन निमित्त कारण है, उसी प्रकार अन्य मनुष्य के ज्ञानी करने में गुरु आदि निमित्त कारण हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/85/142/15 </span><span class="SanskritText">धर्मस्य गतिहेतुत्वे लोकप्रसिद्धदृष्टांतमाह–उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं ...भव्यानां सिद्धगते: पुण्यवत्...अथवा चतुर्गतिगमनकाले द्रव्यलिंगादिदानपूजादिकं वा बहिरंगसहकारिकारणं भवति।85।</span>=<span class="HindiText">धर्म द्रव्य के गति हेतुत्वपने में लोक प्रसिद्ध दृष्टांत कहते हैं–जैसे जल मछलियों के गमन में सहकारी है (और भी देखें [[ धर्माधर्म#III.2 | धर्माधर्म - 2]]), अथवा जैसे भव्यों को सिद्ध गति में पुण्य सहकारी है; अथवा जैसे सर्व साधारण जीवों को चतुर्गति गमन में द्रव्य लिंग व दान पूजादि बहिरंग सहकारी कारण हैं; (अथवा जैसे शीतकाल में स्वयं अध्ययन करने वाले को अग्नि सहकारी है, अथवा जैसे भ्रमण करने वाले कुंभार के चक्र को उसकी अधस्तन शिला उदासीन कारण है | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/85/142/15 </span><span class="SanskritText">धर्मस्य गतिहेतुत्वे लोकप्रसिद्धदृष्टांतमाह–उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं ...भव्यानां सिद्धगते: पुण्यवत्...अथवा चतुर्गतिगमनकाले द्रव्यलिंगादिदानपूजादिकं वा बहिरंगसहकारिकारणं भवति।85।</span>=<span class="HindiText">धर्म द्रव्य के गति हेतुत्वपने में लोक प्रसिद्ध दृष्टांत कहते हैं–जैसे जल मछलियों के गमन में सहकारी है (और भी देखें [[ धर्माधर्म#III.2 | धर्माधर्म - 2]]), अथवा जैसे भव्यों को सिद्ध गति में पुण्य सहकारी है; अथवा जैसे सर्व साधारण जीवों को चतुर्गति गमन में द्रव्य लिंग व दान पूजादि बहिरंग सहकारी कारण हैं; (अथवा जैसे शीतकाल में स्वयं अध्ययन करने वाले को अग्नि सहकारी है, अथवा जैसे भ्रमण करने वाले कुंभार के चक्र को उसकी अधस्तन शिला उदासीन कारण है <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/50/11- </span>देखें [[ पीछेवाला शीर्षक ]])–उसी प्रकार जीव पुद्गल की गति में धर्म द्रव्य सहकारी कारण है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/18/56/9 </span><span class="SanskritText"> सिद्धभक्तिरूपेणेह पूर्वं सविकल्पावस्थायां सिद्धोऽपि यथा भव्यानां बहिरंगसहकारिकारणं भवति तथैव...अधर्मद्रव्यं स्थिते: सहकारिकारणं।</span>=<span class="HindiText">सिद्ध भक्ति के रूप के पहिले सविकल्पावस्था में सिद्ध भगवान् भी जैसे भव्य जीवों के लिए बहिरंग सहकारी कारण होते हैं, तैसे ही अधर्म द्रव्य जीव पुद्गलों को ठहरने में सहकारी कारण होता है।<br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/18/56/9 </span><span class="SanskritText"> सिद्धभक्तिरूपेणेह पूर्वं सविकल्पावस्थायां सिद्धोऽपि यथा भव्यानां बहिरंगसहकारिकारणं भवति तथैव...अधर्मद्रव्यं स्थिते: सहकारिकारणं।</span>=<span class="HindiText">सिद्ध भक्ति के रूप के पहिले सविकल्पावस्था में सिद्ध भगवान् भी जैसे भव्य जीवों के लिए बहिरंग सहकारी कारण होते हैं, तैसे ही अधर्म द्रव्य जीव पुद्गलों को ठहरने में सहकारी कारण होता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.2.4" id="III.2.4"> बिना उपादान के निमित्त कुछ न करे</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,163/403/12 </span><span class="SanskritText">मानुषोत्तरात्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात् । न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत: समर्थो भवत्यतिप्रसंगात्।</span>=<span class="HindiText"><span class="HindiText">मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता। ऐसा न्याय भी है जो स्वत: असमर्थ होता है वह दूसरों के संबंध से भी समर्थ नहीं हो सकता। </span><br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,163/403/12 </span><span class="SanskritText">मानुषोत्तरात्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात् । न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत: समर्थो भवत्यतिप्रसंगात्।</span>=<span class="HindiText"><span class="HindiText">मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता। ऐसा न्याय भी है जो स्वत: असमर्थ होता है वह दूसरों के संबंध से भी समर्थ नहीं हो सकता। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> बोधपाहुड़/60/ </span>पृष्ठ153/14 पं॰ | <span class="GRef"> बोधपाहुड़/60/ </span>पृष्ठ153/14 (पं॰ जयचंद)–अपना भला बुरा अपने भावनि के अधीन है। उपादान कारण होय तो निमित्त भी सहकारी होय। अर उपादान न होय तौ निमित्त कछू न करै है। <span class="GRef">( भावपाहुड़/2/ </span>पं.जयचंद/पृष्ठ 159/2) (और भी देखें [[ कारण#I.4 | कारण - I.4]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.2.5" id="III.2.5">सहकारी कारण को कारण कहना उपचार है</strong></span><br /> | ||
<span class="HindiText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/ </span>हिंदी/9/27/729 में <span class="GRef"> श्लोकवार्तिक </span>से उद्धृत—अन्य के नेत्रनि को ज्ञान का कारण सहकारी मात्र उपचार करि कहा है। परमार्थ तै ज्ञान का कारण आत्मा ही है। देखें [[ कारण#III. | <span class="HindiText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/ </span>हिंदी/9/27/729 में <span class="GRef"> श्लोकवार्तिक </span>से उद्धृत—अन्य के नेत्रनि को ज्ञान का कारण सहकारी मात्र उपचार करि कहा है। परमार्थ तै ज्ञान का कारण आत्मा ही है। देखें [[ कारण#III.2.5 | कारण-III.2.5]] में श्लोकवार्तिक।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.2.6" id="III.2.6"> सहकारी कारण कार्य के प्रति प्रधान नहीं है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/2/14/20/18 </span><span class="SanskritText"> आभ्यंतर आत्मीय: सम्यग्दर्शनपरिणाम: प्रधानम्, सति तस्मिन् बाह्यस्योपग्राहकत्वात् । अतो बाह्य आभ्यंतरस्योपग्राहक: पारार्थ्येन वर्तत इत्यप्रधानम् ।</span>=<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन परिणाम रूप आभ्यंतर आत्मीय भाव ही तहाँ प्रधान है कर्म प्रकृति नहीं। क्योंकि उस सम्यग्दर्शन के होने पर वह तो उपग्राहक मात्र है। इसलिए बाह्य कारण आभ्यंतर का उपग्राहक होता है और परपदार्थ रूप से वर्तन करता है, इसलिए अप्रधान होता है।<br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/2/14/20/18 </span><span class="SanskritText"> आभ्यंतर आत्मीय: सम्यग्दर्शनपरिणाम: प्रधानम्, सति तस्मिन् बाह्यस्योपग्राहकत्वात् । अतो बाह्य आभ्यंतरस्योपग्राहक: पारार्थ्येन वर्तत इत्यप्रधानम् ।</span>=<span class="HindiText">सम्यग्दर्शन परिणाम रूप आभ्यंतर आत्मीय भाव ही तहाँ प्रधान है कर्म प्रकृति नहीं। क्योंकि उस सम्यग्दर्शन के होने पर वह तो उपग्राहक मात्र है। इसलिए बाह्य कारण आभ्यंतर का उपग्राहक होता है और परपदार्थ रूप से वर्तन करता है, इसलिए अप्रधान होता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.2.7" id="III.2.7">सहकारी को कारण मानना सदोष है—</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति 265 </span><span class="SanskritText">न च बंधहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्यं वस्तु बंधहेतु: स्यात् ईर्यासमितिपरिणतपदव्यापाद्यमानवेगापतत्कालचोदितकुलिंगवत् बाह्यवस्तुनो बंधहेतुहेतोरबंधहेतुत्वेन बंधहेतुत्वस्यानैकांतिकत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">यद्यपि बाह्य वस्तु बंध के कारण का (अर्थात् अध्यवसान का) कारण है, तथापि वह बंध का कारण नहीं है। क्योंकि ईर्या समिति में परिणमित मुनींद्र के चरण से मर जाने वाले किसी काल प्रेरित जीव की भाँति बाह्य वस्तु को बंध का कारणत्व मानने में अनैकांतिक हेत्वा भासत्व है। अर्थात् व्यभिचार आता है। | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति 265 </span><span class="SanskritText">न च बंधहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्यं वस्तु बंधहेतु: स्यात् ईर्यासमितिपरिणतपदव्यापाद्यमानवेगापतत्कालचोदितकुलिंगवत् बाह्यवस्तुनो बंधहेतुहेतोरबंधहेतुत्वेन बंधहेतुत्वस्यानैकांतिकत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">यद्यपि बाह्य वस्तु बंध के कारण का (अर्थात् अध्यवसान का) कारण है, तथापि वह बंध का कारण नहीं है। क्योंकि ईर्या समिति में परिणमित मुनींद्र के चरण से मर जाने वाले किसी काल प्रेरित जीव की भाँति बाह्य वस्तु को बंध का कारणत्व मानने में अनैकांतिक हेत्वा भासत्व है। अर्थात् व्यभिचार आता है। <span class="GRef">( श्लोकवार्तिक/2/1/6/29/373/11 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 801 </span><span class="SanskritText">अत्राभिप्रेतमेवैतत्स्वस्थितिकरणं स्वत:। न्यायात्कुतश्चिदत्रापि हेतुस्तत्रानवस्थिति: ।801।</span>=<span class="HindiText">इस स्वस्थिति करण के विषय में इतना ही अभिप्राय है कि स्थिति करण स्वयमेव ही होता है। यदि इसका भी न्यायानुसार कोई न कोई कारण मानेंगे तो अनवस्था दोष आता है।801।<br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 801 </span><span class="SanskritText">अत्राभिप्रेतमेवैतत्स्वस्थितिकरणं स्वत:। न्यायात्कुतश्चिदत्रापि हेतुस्तत्रानवस्थिति: ।801।</span>=<span class="HindiText">इस स्वस्थिति करण के विषय में इतना ही अभिप्राय है कि स्थिति करण स्वयमेव ही होता है। यदि इसका भी न्यायानुसार कोई न कोई कारण मानेंगे तो अनवस्था दोष आता है।801।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="III.2.8" id="III.2.8"> सहकारी कारण अहेतुवत् होता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/351,679 </span><span class="SanskritGatha">मतिज्ञानादिवेलायामात्मोपादानकारणम् । देहेंद्रियास्तदर्थाश्च बाह्यं हेतुरहेतुवत् ।351। अस्त्युपादानहेतोश्च तत्क्षतिर्वा तदक्षति:। तदापि न बहिर्वस्तु स्यात्तद्धेतुरहेतुत:।679।</span>=<span class="HindiText"><span class="HindiText">मति ज्ञानादि के उत्पन्न होने के समय आत्मा उपादान कारण है और देह, इंद्रिय, तथा उन इंद्रियों के विषय भूत पदार्थ केवल बाह्य हेतु हैं, अत: वे अहेतु के बराबर हैं।351। केवल अपने उपादान हेतु से ही चारित्र की क्षति अथवा चारित्र की अक्षति होती है। उस समय भी बाह्य वस्तु उस क्षति अक्षति का कारण नहीं है। और इसलिए दीक्षा देशादि देने अथवा न देनेरूप बाह्य वस्तु चारित्र की क्षति अक्षति के लिए अहेतु है।679।<br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/351,679 </span><span class="SanskritGatha">मतिज्ञानादिवेलायामात्मोपादानकारणम् । देहेंद्रियास्तदर्थाश्च बाह्यं हेतुरहेतुवत् ।351। अस्त्युपादानहेतोश्च तत्क्षतिर्वा तदक्षति:। तदापि न बहिर्वस्तु स्यात्तद्धेतुरहेतुत:।679।</span>=<span class="HindiText"><span class="HindiText">मति ज्ञानादि के उत्पन्न होने के समय आत्मा उपादान कारण है और देह, इंद्रिय, तथा उन इंद्रियों के विषय भूत पदार्थ केवल बाह्य हेतु हैं, अत: वे अहेतु के बराबर हैं।351। केवल अपने उपादान हेतु से ही चारित्र की क्षति अथवा चारित्र की अक्षति होती है। उस समय भी बाह्य वस्तु उस क्षति अक्षति का कारण नहीं है। और इसलिए दीक्षा देशादि देने अथवा न देनेरूप बाह्य वस्तु चारित्र की क्षति अक्षति के लिए अहेतु है।679।<br /> | ||
</span></span></li> | </span></span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><span class="HindiText"><strong name="III.2.9" id="III.2.9"> सहकारी कारण तो निमित्त मात्र होता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/20/121/3 </span>(श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में मतिज्ञान निमित्तमात्र है।) | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/1/20/121/3 </span>(श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में मतिज्ञान निमित्तमात्र है।) <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/20/4/71/1 )</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/2/11/20/8 </span>(बाह्य साधन उपकरणमात्र है) <br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/2/11/20/8 </span>(बाह्य साधन उपकरणमात्र है) <br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/7/4/446/18 </span>(जीव पुद्गल की गति स्थिति आदि कराने में धर्म अधर्म आदि निष्क्रिय द्रव्य इंद्रियवत् बलाधान मात्र है।) <br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/5/7/4/446/18 </span>(जीव पुद्गल की गति स्थिति आदि कराने में धर्म अधर्म आदि निष्क्रिय द्रव्य इंद्रियवत् बलाधान मात्र है।) <br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/130 </span>में उद्धृत–(सराग व वीतराग परिणामों की उत्पत्ति में बाह्य वस्तु निमित्त मात्र है।)<br /> | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/130 </span>में उद्धृत–(सराग व वीतराग परिणामों की उत्पत्ति में बाह्य वस्तु निमित्त मात्र है।)<br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/80 </span>(जीव व पुद्गल कर्म एक दूसरे के परिणामों में निमित्त मात्र होते हैं।) | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/80 </span>(जीव व पुद्गल कर्म एक दूसरे के परिणामों में निमित्त मात्र होते हैं।) <span class="GRef">( समयसार / आत्मख्याति/91 )</span> <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/186 )</span> <span class="GRef">( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/12 )</span> <span class="GRef">( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/125 )</span>।<br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/67 </span>(जीव के सुख-दुःख में इष्टानिष्ट विषय निमित्त मात्र है।)<br /> | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/67 </span>(जीव के सुख-दुःख में इष्टानिष्ट विषय निमित्त मात्र है।)<br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/217 </span>(प्रत्येक द्रव्य के निज-निज परिणाम में बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र है)<br /> | <span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/217 </span>(प्रत्येक द्रव्य के निज-निज परिणाम में बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र है)<br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/576 </span>(सर्व द्रव्य अपने भावों के कर्ता भोक्ता है, पर भावों के कर्ता भोक्तापना निमित्तमात्र है।)<br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/576 </span>(सर्व द्रव्य अपने भावों के कर्ता भोक्ता है, पर भावों के कर्ता भोक्तापना निमित्तमात्र है।)<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.2.10" id="III.2.10"> निमित्त परमार्थ में अकिंचित्कर व हेय है</strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/2/13/20/15 </span>(क्षायिक सम्यक्त्व अंतर परिणामों से ही होता है, कर्म पुद्गल रूप बाह्य वस्तु हेय है।)<br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/2/13/20/15 </span>(क्षायिक सम्यक्त्व अंतर परिणामों से ही होता है, कर्म पुद्गल रूप बाह्य वस्तु हेय है।)<br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/119 </span>(पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्म भाव रूप परिणमित होता है। तहाँ निमित्तभूत जीव द्रव्य हेयतत्त्व है।)<br /> | <span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/119 </span>(पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्म भाव रूप परिणमित होता है। तहाँ निमित्तभूत जीव द्रव्य हेयतत्त्व है।)<br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/143 </span>(जीव की सिद्ध गति उपादान कारण से ही होती है। तहाँ काल द्रव्य रूप निमित्त हेय है) | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/143 </span>(जीव की सिद्ध गति उपादान कारण से ही होती है। तहाँ काल द्रव्य रूप निमित्त हेय है) <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/22/67/4 )</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.2.11" id="III.2.11"> भिन्न कारण वास्तव में कोई कारण नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/1/6/40/394 </span><span class="SanskritGatha">चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित: सदा।40।</span> <span class="HindiText">वैशेषिक व नैयायिक लोग इंद्रियों को प्रमिति का कारण मानकर उन्हें प्रमाण कहते हैं। परंतु जड़ होने के कारण वे ज्ञप्ति के लिए साधकतम करण कभी नहीं हो सकते।</span><br /> | <span class="GRef"> श्लोकवार्तिक/2/1/6/40/394 </span><span class="SanskritGatha">चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित: सदा।40।</span> <span class="HindiText">वैशेषिक व नैयायिक लोग इंद्रियों को प्रमिति का कारण मानकर उन्हें प्रमाण कहते हैं। परंतु जड़ होने के कारण वे ज्ञप्ति के लिए साधकतम करण कभी नहीं हो सकते।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/294 </span><span class="SanskritText">आत्मबंधयोर्द्विधाकरणे कार्ये कर्तृरात्मन: करणमीमांसायां निश्चयत: स्वतो भिन्नकरणासभवाद् भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणम् ।</span>=<span class="HindiText">आत्मा और बंध के द्विधा करने रूप कार्य में कर्ता जो आत्मा उसके कारण संबंधी मीमांसा करने पर, निश्चय से अपने से भिन्न करण का अभाव होने से भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है।</span><br /> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/294 </span><span class="SanskritText">आत्मबंधयोर्द्विधाकरणे कार्ये कर्तृरात्मन: करणमीमांसायां निश्चयत: स्वतो भिन्नकरणासभवाद् भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणम् ।</span>=<span class="HindiText">आत्मा और बंध के द्विधा करने रूप कार्य में कर्ता जो आत्मा उसके कारण संबंधी मीमांसा करने पर, निश्चय से अपने से भिन्न करण का अभाव होने से भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/308-311 </span><span class="SanskritText">सर्वद्रव्याणां द्रव्यांतरेण सहोत्पादकभावाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">सर्व द्रव्यों का अन्य द्रव्य के साथ उत्पाद्य उत्पादक भाव का अभाव है।</span><br /> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/308-311 </span><span class="SanskritText">सर्वद्रव्याणां द्रव्यांतरेण सहोत्पादकभावाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">सर्व द्रव्यों का अन्य द्रव्य के साथ उत्पाद्य उत्पादक भाव का अभाव है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> परीक्षामुख/2/6-8 </span><span class="SanskritText"> नार्थालोकौ कारण परिच्छेद्यत्वात्तमोवत्।6। तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोऽंडुक ज्ञानवन्नक्तंचरज्ञानवच्च।7। अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ।8।</span><span class="HindiText">=अन्वय व्यतिरेक से कार्य कारण भाव जाना जाता है। इस व्यवस्था के अनुसार ‘प्रकाश’ ज्ञान में कारण नहीं है, क्योंकि उसके अभाव में भी रात्रि को विचरने वाले बिल्ली चूहे आदि को ज्ञान पैदा होता है और उसके सद्भाव में भी उल्लू वगैरह को ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार अर्थ भी ज्ञान के प्रति कारण नहीं हो सकता, क्योंकि अर्थ के अभाव में भी केश मशकादि ज्ञान उत्पन्न होता है। दीपक जिस प्रकार घटादिकों से उत्पन्न न होकर भी उन्हें प्रकाशित करता है इसी प्रकार ज्ञान भी अर्थ से उत्पन्न न होकर उन्हें प्रकाशित करता है। | <span class="GRef"> परीक्षामुख/2/6-8 </span><span class="SanskritText"> नार्थालोकौ कारण परिच्छेद्यत्वात्तमोवत्।6। तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोऽंडुक ज्ञानवन्नक्तंचरज्ञानवच्च।7। अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ।8।</span><span class="HindiText">=अन्वय व्यतिरेक से कार्य कारण भाव जाना जाता है। इस व्यवस्था के अनुसार ‘प्रकाश’ ज्ञान में कारण नहीं है, क्योंकि उसके अभाव में भी रात्रि को विचरने वाले बिल्ली चूहे आदि को ज्ञान पैदा होता है और उसके सद्भाव में भी उल्लू वगैरह को ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार अर्थ भी ज्ञान के प्रति कारण नहीं हो सकता, क्योंकि अर्थ के अभाव में भी केश मशकादि ज्ञान उत्पन्न होता है। दीपक जिस प्रकार घटादिकों से उत्पन्न न होकर भी उन्हें प्रकाशित करता है इसी प्रकार ज्ञान भी अर्थ से उत्पन्न न होकर उन्हें प्रकाशित करता है। <span class="GRef">( न्यायदीपिका/2/4-5/26 )</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.2.12" id="III.2.12"> द्रव्य के परिणमन को सर्वथा निमित्ताधीन मानना मिथ्या है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/121-123 </span><span class="PrakritText">ण सयं बद्धो कम्मे ण परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अपरिणामी तदा होदी।121। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहि भावेहिं। संसाररस अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।122।</span><span class="HindiText"> सांख्य मतानुसारी शिष्य के प्रति आचार्य कहते हैं कि हे भाई ! ‘यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भाव से स्वयं नहीं परिणमता है’ यदि तेरा यह मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है और जीव स्वयं क्रोधादि भावरूप नहीं परिणमता होने से संसार का अभाव सिद्ध होता है। अथवा सांख्य मत का प्रसंग आता है।121-122। और पुद्गल कर्मरूप जो क्रोध है वह जीव को क्रोध रूप परिणमन कराता है ऐसा तू माने तो यह प्रश्न होता है कि स्वयं न परिणमते हुए को वह कैसे परिणमन करा सकता है।123।</span><br /> | <span class="GRef"> समयसार/121-123 </span><span class="PrakritText">ण सयं बद्धो कम्मे ण परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अपरिणामी तदा होदी।121। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहि भावेहिं। संसाररस अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।122।</span><span class="HindiText"> सांख्य मतानुसारी शिष्य के प्रति आचार्य कहते हैं कि हे भाई ! ‘यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भाव से स्वयं नहीं परिणमता है’ यदि तेरा यह मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है और जीव स्वयं क्रोधादि भावरूप नहीं परिणमता होने से संसार का अभाव सिद्ध होता है। अथवा सांख्य मत का प्रसंग आता है।121-122। और पुद्गल कर्मरूप जो क्रोध है वह जीव को क्रोध रूप परिणमन कराता है ऐसा तू माने तो यह प्रश्न होता है कि स्वयं न परिणमते हुए को वह कैसे परिणमन करा सकता है।123।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/332-334 </span><span class="SanskritText">एवमीदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमाना: केचिच्छ्रमणाभासा: प्ररूपयंति;तेषां प्रकृतेरेकांतेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकांतेनाकर्तृत्वापत्ते: जीव: कर्तेति श्रुते: कोपो दु:शक्य: परिहर्तुम् ।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार ऐसे सांख्यमत को अपनी प्रज्ञा के अपराध से सूत्र के अर्थ को न जानने वाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं; उनकी एकांत प्रकृति के कर्तृत्व की मान्यता से समस्त जीवों के एकांत से अकर्तृत्व आ जाता है। इसलिए ‘जीव कर्ता है’ ऐसी जो श्रुति है उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है।</span><br /> | <span class="GRef"> समयसार / आत्मख्याति/332-334 </span><span class="SanskritText">एवमीदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमाना: केचिच्छ्रमणाभासा: प्ररूपयंति;तेषां प्रकृतेरेकांतेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकांतेनाकर्तृत्वापत्ते: जीव: कर्तेति श्रुते: कोपो दु:शक्य: परिहर्तुम् ।</span>=<span class="HindiText">इस प्रकार ऐसे सांख्यमत को अपनी प्रज्ञा के अपराध से सूत्र के अर्थ को न जानने वाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं; उनकी एकांत प्रकृति के कर्तृत्व की मान्यता से समस्त जीवों के एकांत से अकर्तृत्व आ जाता है। इसलिए ‘जीव कर्ता है’ ऐसी जो श्रुति है उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है।</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.3" id="III.3"> कर्म व जीवगत कारण कार्य भाव की गौणता</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.3.1" id="III.3.1"> जीव के भाव को निमित्त मात्र करके पुद्गल स्वयं कर्म रूप परिणमते हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/65 </span><span class="PrakritText">अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं। गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा।65।</span>=<span class="HindiText">आत्मा अपने रागादि भाव को करता है। वहाँ रहने वाले पुद्गल अपने भावों से जीव में अन्योन्य अवगाह रूप से प्रविष्ट हुए कर्म भाव को प्राप्त होते हैं। | <span class="GRef"> पंचास्तिकाय/65 </span><span class="PrakritText">अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं। गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा।65।</span>=<span class="HindiText">आत्मा अपने रागादि भाव को करता है। वहाँ रहने वाले पुद्गल अपने भावों से जीव में अन्योन्य अवगाह रूप से प्रविष्ट हुए कर्म भाव को प्राप्त होते हैं। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/186 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/80-81 </span><span class="PrakritGatha">जीवपरिणामहेदुं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तदेव जीवो वि परिणमइ।80। णवि कुव्वइ कम्मगुणो जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोह्णं पि।81।</span>=<span class="HindiText">पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणमित होते हैं और जीव भी पुद्गल कर्म के निमित्त से परिणमन करता है।80। जीव कर्म के गुणों को नहीं करता। उसी तरह कर्म भी जीव के गुणों को नहीं करता। परंतु परस्पर निमित्त से दोनों के परिणमन जानो।81। | <span class="GRef"> समयसार/80-81 </span><span class="PrakritGatha">जीवपरिणामहेदुं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तदेव जीवो वि परिणमइ।80। णवि कुव्वइ कम्मगुणो जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोह्णं पि।81।</span>=<span class="HindiText">पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणमित होते हैं और जीव भी पुद्गल कर्म के निमित्त से परिणमन करता है।80। जीव कर्म के गुणों को नहीं करता। उसी तरह कर्म भी जीव के गुणों को नहीं करता। परंतु परस्पर निमित्त से दोनों के परिणमन जानो।81। <span class="GRef">( समयसार/91,119 )</span> <span class="GRef">( समयसार / आत्मख्याति/105,119 )</span> <span class="GRef">( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/12 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/187 </span><span class="SanskritText">यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृत: शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारेण प्रविशंत: कर्मपुद्गला: स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यैर्ज्ञानावरणादिभावै: परिणमंते। अत: स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं न पुनरात्मकृतम् ।</span>=<span class="HindiText">(मेघ जल के संयोग से स्वत: उत्पन्न हरियाली व इंद्रगोप आदिवत्) जब यह आत्मा राग द्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभ भावरूप परिणमित होता है तब अन्य, योगद्वारों से प्रविष्ट होते हुए कर्म पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भाव रूप परिणमित होते हैं। इससे कर्मों की विचित्रता का होना स्वभावकृत है किंतु आत्मकृत नहीं।</span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/187 </span><span class="SanskritText">यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृत: शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारेण प्रविशंत: कर्मपुद्गला: स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यैर्ज्ञानावरणादिभावै: परिणमंते। अत: स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं न पुनरात्मकृतम् ।</span>=<span class="HindiText">(मेघ जल के संयोग से स्वत: उत्पन्न हरियाली व इंद्रगोप आदिवत्) जब यह आत्मा राग द्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभ भावरूप परिणमित होता है तब अन्य, योगद्वारों से प्रविष्ट होते हुए कर्म पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भाव रूप परिणमित होते हैं। इससे कर्मों की विचित्रता का होना स्वभावकृत है किंतु आत्मकृत नहीं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/169 </span><span class="SanskritText"> जीवपरिणाममात्रं बहिरंगसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमंतरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिन: पुद्गलस्कंधा: स्वयमेव कर्मभावेन परिणमंति।</span>=<span class="HindiText">बहिरंग साधनरूप से जीव के परिणामों का आश्रय लेकर, जीव उसको परिणमाने वाला न होने पर भी, कर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कंध स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं। | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/169 </span><span class="SanskritText"> जीवपरिणाममात्रं बहिरंगसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमंतरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिन: पुद्गलस्कंधा: स्वयमेव कर्मभावेन परिणमंति।</span>=<span class="HindiText">बहिरंग साधनरूप से जीव के परिणामों का आश्रय लेकर, जीव उसको परिणमाने वाला न होने पर भी, कर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कंध स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/65-66 )</span>, <span class="GRef">( समयसार / आत्मख्याति/91 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/297 </span><span class="SanskritText">सति तत्रोदये सिद्धा: स्वतो नोकर्मवर्गणा:। मनो देहेंद्रियाकारं जायते तन्निमित्तत:।297।</span>=<span class="HindiText">उस पर्याप्ति नामकर्म का उदय होने पर स्वयंसिद्ध आहारादि नोकर्मवर्गणाएँ उसके निमित्त से मन देह और इंद्रियों के आकार रूप हो जाती हैं। <br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/297 </span><span class="SanskritText">सति तत्रोदये सिद्धा: स्वतो नोकर्मवर्गणा:। मनो देहेंद्रियाकारं जायते तन्निमित्तत:।297।</span>=<span class="HindiText">उस पर्याप्ति नामकर्म का उदय होने पर स्वयंसिद्ध आहारादि नोकर्मवर्गणाएँ उसके निमित्त से मन देह और इंद्रियों के आकार रूप हो जाती हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.3.2" id="III.3.2"> 11 वें गुणस्थान में अनुभागोदय में हानिवृद्धि रहते हुए भी जीव के परिणाम अवस्थित रहते हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> लब्धिसार/ </span> | <span class="GRef"> लब्धिसार/ </span>जीव तत्त्वप्रदीपिका/307/389 <span class="SanskritText">अत: कारणादवस्थितविशुद्धिपरिणामेऽप्युपशांतकषाये एतच्चतुस्त्रिंशत्प्रकृतीनां अनुभागोदयस्त्रिस्थानसंभवी भवति, कदाचिद्धीयते, कदाचिद्वर्धते, कदाचिद्धानिवृद्धिभ्यां विना एकादृश एवावतिष्ठते।</span>=<span class="HindiText"> (यद्यपि तहाँ परिणामों की अवस्थिति के कारण शरीर वर्ण आदि 25 प्रकृतियें भी अवस्थित रहती हैं परंतु) अब शेष ज्ञानावरणादि 34 प्रकृतियें भव प्रत्यय हैं। उपशांत कषाय गुणस्थान के अवस्थित परिणामों की अपेक्षा रहित पर्याय का ही आश्रय करके इनका अनुभाग उदय इहाँ तीन अवस्था लिए है। कदाचित् हानिरूप हो है, कदाचित् वृद्धिरूप हो है, कदाचित् अवस्थित जैसा का तैसा रहे है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.3.3" id="III.3.3">जीव व कर्म में बध्य घातक विरोध नहीं है</strong></span><br /> | ||
योगसार/अध्याय/9/49 <span class="SanskritText">न कर्म हंति जीवस्य न जीव: कर्मणो गुणान् । बध्यघातकभावोऽस्ति नान्योन्यं जीवकर्मणो:।</span>=<span class="HindiText">न तो कर्म जीव के गुणों का घात करता है और न जीव कर्म के गुणों का घात करता है। इसलिए जीव और कर्म का आपस में बध्य घातक संबंध नहीं है।<br /> | योगसार/अध्याय/9/49 <span class="SanskritText">न कर्म हंति जीवस्य न जीव: कर्मणो गुणान् । बध्यघातकभावोऽस्ति नान्योन्यं जीवकर्मणो:।</span>=<span class="HindiText">न तो कर्म जीव के गुणों का घात करता है और न जीव कर्म के गुणों का घात करता है। इसलिए जीव और कर्म का आपस में बध्य घातक संबंध नहीं है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="III.3.4" id="III.3.4"> जीव व कर्म में कारण कार्य मानना उपचार है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1/9,1-8/11/5 </span><span class="PrakritText">मुह्यत इति मोहनीयम् । एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तथा उत्तीदो।</span>=<span class="HindiText">जो मोहित होता है वह मोहनीय कर्म है। प्रश्न–इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर जीव के मोहनीयत्व प्राप्त होता है ? उत्तर–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए;क्योंकि, जीव से अभिन्न और कर्म ऐसी संज्ञा वाले पुद्गल कर्म में उपचार से कर्मत्व का आरोपण करके उस प्रकार की व्युत्पत्ति की गयी है।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला 6/1/9,1-8/11/5 </span><span class="PrakritText">मुह्यत इति मोहनीयम् । एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तथा उत्तीदो।</span>=<span class="HindiText">जो मोहित होता है वह मोहनीय कर्म है। प्रश्न–इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर जीव के मोहनीयत्व प्राप्त होता है ? उत्तर–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए;क्योंकि, जीव से अभिन्न और कर्म ऐसी संज्ञा वाले पुद्गल कर्म में उपचार से कर्मत्व का आरोपण करके उस प्रकार की व्युत्पत्ति की गयी है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/121-122 </span><span class="SanskritText"> तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद्द्रव्यकर्मकर्ताप्युपचारात् ।121। परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एव कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण:।... परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता, न त्वात्मात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण:।122।</span>=<span class="HindiText">आत्मा भी अपने परिणाम का कर्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचार से है।121। परमार्थत: आत्मा अपने परिणाम स्वरूप भावकर्म का ही कर्ता है किंतु पुद्गल परिणाम स्वरूप द्रव्यकर्म का नहीं।... (इसी प्रकार) परमार्थत: पुद्गल अपने परिणाम स्वरूप उस द्रव्यकर्म का ही कर्ता है किंतु आत्मा के परिणाम स्वरूप भाव कर्म का कर्ता नहीं है।122। | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/121-122 </span><span class="SanskritText"> तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद्द्रव्यकर्मकर्ताप्युपचारात् ।121। परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एव कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण:।... परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता, न त्वात्मात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण:।122।</span>=<span class="HindiText">आत्मा भी अपने परिणाम का कर्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचार से है।121। परमार्थत: आत्मा अपने परिणाम स्वरूप भावकर्म का ही कर्ता है किंतु पुद्गल परिणाम स्वरूप द्रव्यकर्म का नहीं।... (इसी प्रकार) परमार्थत: पुद्गल अपने परिणाम स्वरूप उस द्रव्यकर्म का ही कर्ता है किंतु आत्मा के परिणाम स्वरूप भाव कर्म का कर्ता नहीं है।122। <span class="GRef">( समयसार/105 )</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.3.5" id="III.3.5">ज्ञानियों का कर्म अकिंचित्कर है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/169 </span><span class="PrakritGatha"> पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स। कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स।169।</span> =<span class="HindiText">उस ज्ञानी के पूर्वबद्ध समस्त प्रत्यय मिट्टी के ढेले के समान हैं और वे कार्मण शरीर के साथ बँधे हुए हैं। (विशेष देखें [[ विभाव# | <span class="GRef"> समयसार/169 </span><span class="PrakritGatha"> पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स। कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स।169।</span> =<span class="HindiText">उस ज्ञानी के पूर्वबद्ध समस्त प्रत्यय मिट्टी के ढेले के समान हैं और वे कार्मण शरीर के साथ बँधे हुए हैं। (विशेष देखें [[ विभाव#4.2 | विभाव - 4.2]])</span><br /> | ||
आप्तमीमांसा अनु/162-163<span class="SanskritText"> निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवितम् । किं करोति विधिस्तेषां सतां ज्ञानैकचक्षुषाम् ।162। जीविताशा धनाशा च तेषां येषां विधिर्विधि:। किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता।163।</span>=<span class="HindiText">निर्धनत्व ही जिनका धन है और मृत्यु ही जिनका जीवन है (अर्थात् इनमें साम्यभाव रखते हैं) ऐसे साधुओं को एक मात्र ज्ञान चक्षु खुल जाने पर यह दैव या कर्म क्या कर सकता है।162। जिनको जीने की या धन की आशा है उनके लिए ही ‘दैव’ दैव है, पर निराशा ही जिनकी आशा है ऐसे वीतरागियों को यह दैव या कर्म क्या कर सकता है।163।<br /> | आप्तमीमांसा अनु/162-163<span class="SanskritText"> निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवितम् । किं करोति विधिस्तेषां सतां ज्ञानैकचक्षुषाम् ।162। जीविताशा धनाशा च तेषां येषां विधिर्विधि:। किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता।163।</span>=<span class="HindiText">निर्धनत्व ही जिनका धन है और मृत्यु ही जिनका जीवन है (अर्थात् इनमें साम्यभाव रखते हैं) ऐसे साधुओं को एक मात्र ज्ञान चक्षु खुल जाने पर यह दैव या कर्म क्या कर सकता है।162। जिनको जीने की या धन की आशा है उनके लिए ही ‘दैव’ दैव है, पर निराशा ही जिनकी आशा है ऐसे वीतरागियों को यह दैव या कर्म क्या कर सकता है।163।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.3.6" id="III.3.6">मोक्षमार्ग में आत्म परिणामों की विवक्षा प्रधान है कर्मों की नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/2/10-1/20/3 </span><span class="SanskritText">औपशमिकादिसम्यग्दर्शनमात्मपरिणामत्वात् मोक्षकारणत्वेन विवक्ष्यते न च सम्यक्त्वकर्मपर्याय: पौद्गलिकत्वेऽस्य परपर्यायत्वात् ।10।...स्यादेतत्...सम्यग्दर्शनोत्पाद आत्मनिमित्त: सम्यक्त्वपुद्गलनिमित्तश्च, तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुपपद्यते इति; तन्न, किं कारणम् । उपकरणमात्रत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">औपशमिकादि सम्यग्दर्शन सीधे आत्मपरिणाम स्वरूप होने से मोक्ष के कारण रूप से विवक्षित होते हैं, सम्यक्त्व नाम कर्म की पर्याय नहीं क्योंकि परद्रव्य की पर्याय होने के कारण वह तो पौद्गलिक है। प्रश्न–सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति जिस प्रकार आत्म परिणाम से होती है, उसी प्रकार सम्यक्त्वनामा कर्म के निमित्त से भी होती है, अत: उसको भी मोक्ष कारणपना प्राप्त होता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि वह तो उपकरणमात्र है।<br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/2/10-1/20/3 </span><span class="SanskritText">औपशमिकादिसम्यग्दर्शनमात्मपरिणामत्वात् मोक्षकारणत्वेन विवक्ष्यते न च सम्यक्त्वकर्मपर्याय: पौद्गलिकत्वेऽस्य परपर्यायत्वात् ।10।...स्यादेतत्...सम्यग्दर्शनोत्पाद आत्मनिमित्त: सम्यक्त्वपुद्गलनिमित्तश्च, तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुपपद्यते इति; तन्न, किं कारणम् । उपकरणमात्रत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">औपशमिकादि सम्यग्दर्शन सीधे आत्मपरिणाम स्वरूप होने से मोक्ष के कारण रूप से विवक्षित होते हैं, सम्यक्त्व नाम कर्म की पर्याय नहीं क्योंकि परद्रव्य की पर्याय होने के कारण वह तो पौद्गलिक है। प्रश्न–सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति जिस प्रकार आत्म परिणाम से होती है, उसी प्रकार सम्यक्त्वनामा कर्म के निमित्त से भी होती है, अत: उसको भी मोक्ष कारणपना प्राप्त होता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि वह तो उपकरणमात्र है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.3.7" id="III.3.7"> कर्मों की उपशम क्षय व उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् अयत्न साध्य हैं</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/3/152/10 </span><span class="SanskritText">अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशम:। काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत् ...। ‘आदि’ शब्देन जातिस्मरणादि: परिगृह्यते। </span><span class="HindiText"><strong>=प्रश्न</strong>–अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मों के उदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है ? <strong>उत्तर–</strong>काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है। अब यहाँ काललब्धि को बताते हैं (देखें [[ नियति# | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/3/152/10 </span><span class="SanskritText">अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशम:। काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत् ...। ‘आदि’ शब्देन जातिस्मरणादि: परिगृह्यते। </span><span class="HindiText"><strong>=प्रश्न</strong>–अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मों के उदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है ? <strong>उत्तर–</strong>काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है। अब यहाँ काललब्धि को बताते हैं (देखें [[ नियति#2.1 | नियति - 2]])। आदि शब्द से जातिस्मरण आदि का ग्रहण करना चाहिए (देखें [[ सम्यग्दर्शन#III.2 | सम्यग्दर्शन - III.2]])।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/10/2/466/5 </span><span class="SanskritText"> कर्माभावो द्विविध:–यत्नसाध्योऽयत्नसाध्यश्चेति। तत्र चरमदेहस्य नारकतिर्यग्देवायुषामभावो न यत्नसाध्य: असत्त्वात् । यत्नसाध्य इत ऊर्ध्वमुच्यते। असंयतसम्यग्दृष्टयादिषु सप्तप्रकृतिक्षय: क्रियते।</span>=<span class="HindiText">कर्म का अभाव दो प्रकार का है–यत्नसाध्य और अयत्नसाध्य। इनमें से चरम देह वाले के नरकायु तिर्यंचायु और देवायु का अभाव यत्नसाध्य नहीं है, क्योंकि इसके उनका सत्त्व उपलब्ध नहीं होता। यत्न साध्य का अभाव इनसे आगे कहते हैं-असंयत दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में सात प्रकृतियों का क्षय करता है। (आगे भी 10वें गुणस्थान में यथायोग्य कर्मों का क्षय करता है (देखें [[ सत्त्व ]])।</span><br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/10/2/466/5 </span><span class="SanskritText"> कर्माभावो द्विविध:–यत्नसाध्योऽयत्नसाध्यश्चेति। तत्र चरमदेहस्य नारकतिर्यग्देवायुषामभावो न यत्नसाध्य: असत्त्वात् । यत्नसाध्य इत ऊर्ध्वमुच्यते। असंयतसम्यग्दृष्टयादिषु सप्तप्रकृतिक्षय: क्रियते।</span>=<span class="HindiText">कर्म का अभाव दो प्रकार का है–यत्नसाध्य और अयत्नसाध्य। इनमें से चरम देह वाले के नरकायु तिर्यंचायु और देवायु का अभाव यत्नसाध्य नहीं है, क्योंकि इसके उनका सत्त्व उपलब्ध नहीं होता। यत्न साध्य का अभाव इनसे आगे कहते हैं-असंयत दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में सात प्रकृतियों का क्षय करता है। (आगे भी 10वें गुणस्थान में यथायोग्य कर्मों का क्षय करता है (देखें [[ सत्त्व ]])।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/379,932,926 </span><span class="SanskritGatha"> प्रयत्नमंतरेणापि दृङ्मोहोपशमो भवेत् । अंतर्मुहूर्तमात्रं च गुणश्रेण्यनतिक्रमात् ।379। तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धांतो दृङ्मोहस्येतरस्य वा। उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति: स्वत:।932। अस्त्युदयो यथानादे: स्वतश्चोपशमस्तथा। उदय: प्रथमो भूय: स्यादर्वागपुनर्भवात् ।926।</span>= <span class="HindiText">उक्त कारण सामग्री के मिलते ही (अर्थात् दैव व कालादि लब्धि मिलते ही) प्रयत्न के बिना भी गुणश्रेणी निर्जरा के अनुसार केवल अंतर्मुहूर्त काल में ही दर्शन मोहनीय का उपशम हो जाता है।379। इसलिए यह सिद्धांत सिद्ध होता है कि दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही अपने आप होते हैं, एक दूसरे के निमित्त से नहीं।932। जिस तरह अनादिकाल से स्वयं मोहनीय का उदय होता है उसी तरह उपशम भी काल लब्धि के निमित्त से स्वयं होता है। इस तरह मुक्ति होने के पहले उदय और उपशम बार-बार होते रहते हैं। <br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/379,932,926 </span><span class="SanskritGatha"> प्रयत्नमंतरेणापि दृङ्मोहोपशमो भवेत् । अंतर्मुहूर्तमात्रं च गुणश्रेण्यनतिक्रमात् ।379। तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धांतो दृङ्मोहस्येतरस्य वा। उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति: स्वत:।932। अस्त्युदयो यथानादे: स्वतश्चोपशमस्तथा। उदय: प्रथमो भूय: स्यादर्वागपुनर्भवात् ।926।</span>= <span class="HindiText">उक्त कारण सामग्री के मिलते ही (अर्थात् दैव व कालादि लब्धि मिलते ही) प्रयत्न के बिना भी गुणश्रेणी निर्जरा के अनुसार केवल अंतर्मुहूर्त काल में ही दर्शन मोहनीय का उपशम हो जाता है।379। इसलिए यह सिद्धांत सिद्ध होता है कि दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही अपने आप होते हैं, एक दूसरे के निमित्त से नहीं।932। जिस तरह अनादिकाल से स्वयं मोहनीय का उदय होता है उसी तरह उपशम भी काल लब्धि के निमित्त से स्वयं होता है। इस तरह मुक्ति होने के पहले उदय और उपशम बार-बार होते रहते हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III4" id="III4"> निमित्त की कथंचित् प्रधानता</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.4.1" id="III.4.1">निमित्त नैमित्तिक संबंध भी वस्तुभूत है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> आप्तमीमांसा/24 </span><span class="SanskritText">अद्वैतैकांतपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते। कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात् प्रजायते।24।</span>=<span class="HindiText">अद्वैत एकांतपक्ष होनेतै (अर्थात् जगत् एक ब्रह्म के अतिरिक्त कोई नहीं है, ऐसा मानने से) कर्ता कर्म आदि कारकनि के बहुरि क्रियानि के भेद जो प्रत्यक्ष प्रमाण करि सिद्ध है सो विरोधरूप होय है। बहुरि सर्वथा यदि एक ही रूप होय तौ आप ही कर्ता आप ही कर्म होय। अर आप ही तै आपकी उत्पत्ति नाहीं होय। (और भी देखें [[ कारण#III. | <span class="GRef"> आप्तमीमांसा/24 </span><span class="SanskritText">अद्वैतैकांतपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते। कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात् प्रजायते।24।</span>=<span class="HindiText">अद्वैत एकांतपक्ष होनेतै (अर्थात् जगत् एक ब्रह्म के अतिरिक्त कोई नहीं है, ऐसा मानने से) कर्ता कर्म आदि कारकनि के बहुरि क्रियानि के भेद जो प्रत्यक्ष प्रमाण करि सिद्ध है सो विरोधरूप होय है। बहुरि सर्वथा यदि एक ही रूप होय तौ आप ही कर्ता आप ही कर्म होय। अर आप ही तै आपकी उत्पत्ति नाहीं होय। (और भी देखें [[ कारण#III.1.4 | कारण-III.1.4]]), (अष्टसहस्री पृष्ठ 149,159) <span class="GRef">( स्याद्वादमंजरी/16/197/171 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 2/1/7/13/565/1 </span><span class="SanskritText">तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठ: संबंध: संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपित।=</span><span class="HindiText">व्यवहार नय का आश्रय लेने पर संयोग समवाय संबंधों के समान दो में ठहरने वाला कारण कार्य भाव संबंध भी प्रतीतियों से सिद्ध होने के कारण वस्तुभूत ही है केवल कल्पना आरोपित ही नहीं है। <br /> | <span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 2/1/7/13/565/1 </span><span class="SanskritText">तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठ: संबंध: संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपित।=</span><span class="HindiText">व्यवहार नय का आश्रय लेने पर संयोग समवाय संबंधों के समान दो में ठहरने वाला कारण कार्य भाव संबंध भी प्रतीतियों से सिद्ध होने के कारण वस्तुभूत ही है केवल कल्पना आरोपित ही नहीं है। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.4.2" id="III.4.2"> कारण के बिना कार्य नहीं होता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/10/2/1/640/27 </span><span class="SanskritText">मिथ्यादर्शनादीनां पूर्वोक्तानां कर्मास्रवहेतूनां निरोधे कारणाभावात् कार्याभाव इत्यभिनवकर्मादानाभाव:।=</span><span class="HindiText">मिथ्या दर्शन आदि पूर्वोक्त आस्रव के हेतुओं का निरोध हो जाने पर नूतन कर्मों का आना रुक जाता है? क्योंकि कारण के अभाव से कार्य का अभाव होता है।</span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/10/2/1/640/27 </span><span class="SanskritText">मिथ्यादर्शनादीनां पूर्वोक्तानां कर्मास्रवहेतूनां निरोधे कारणाभावात् कार्याभाव इत्यभिनवकर्मादानाभाव:।=</span><span class="HindiText">मिथ्या दर्शन आदि पूर्वोक्त आस्रव के हेतुओं का निरोध हो जाने पर नूतन कर्मों का आना रुक जाता है? क्योंकि कारण के अभाव से कार्य का अभाव होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,63/306/9 </span><span class="SanskritText">अप्रमत्तादीनां संयतानां किमित्याहारककाययोगी न भवेदिति चेन्न, तत्र तदुत्थापने निमित्ताभावात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–प्रमाद रहित संयतों के आहारक काय योग क्यों नहीं होता है?<strong> उत्तर</strong>–क्योंकि तहाँ उसे उत्पन्न कराने में निमित्त कारण का (असंयम की बहुलता का) अभाव है।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,63/306/9 </span><span class="SanskritText">अप्रमत्तादीनां संयतानां किमित्याहारककाययोगी न भवेदिति चेन्न, तत्र तदुत्थापने निमित्ताभावात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–प्रमाद रहित संयतों के आहारक काय योग क्यों नहीं होता है?<strong> उत्तर</strong>–क्योंकि तहाँ उसे उत्पन्न कराने में निमित्त कारण का (असंयम की बहुलता का) अभाव है।</span><br /> | ||
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देखें [[ नय#III.V.9.5 | नय - V.9.5 ]]उपादान होते हुए भी निमित्त के बिना मुक्ति नहीं। <br /> | देखें [[ नय#III.V.9.5 | नय - V.9.5 ]]उपादान होते हुए भी निमित्त के बिना मुक्ति नहीं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.4.3" id="III.4.3"> उचित निमित्त के सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/92 </span><span class="SanskritText">द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसंनिधिसद्भावे... उत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते।</span>=<span class="HindiText">जिसने पूर्वावस्था को प्राप्त किया है, ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता है, वह उत्पाद से लक्षित होता है। | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/92 </span><span class="SanskritText">द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसंनिधिसद्भावे... उत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते।</span>=<span class="HindiText">जिसने पूर्वावस्था को प्राप्त किया है, ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता है, वह उत्पाद से लक्षित होता है। <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/102,124 )</span>। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.4.4" id="III.4.4"> उपादान की योग्यता के सद्भाव में भी निमित्त के बिना कार्य नहीं होता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/1/1,1,33/233/2 </span><span class="SanskritText"> सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् । न सर्वावयवै: रूपाद्युपलब्धिरपि तत्सहकारिकारणबाह्यनिवृत्तेरशेषजीवावयवव्यापित्वाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">जीव के संपूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार है। (यद्यपि यह क्षयोपशम ही जीव की ज्ञान के प्रति उपादानभूत योग्यता है, देखें [[ कारण ]](I/18) परंतु ऐसा मान लेनेपर भी जीव के संपूर्ण प्रदेशों के द्वारा रूपादि की उपलब्धि का प्रसंग भी नहीं आता है;क्योंकि, रूपादिक के ग्रहण करने में सहकारी कारणरूप बाह्यनिर्वृत्ति (इंद्रिय) जीव के संपूर्ण प्रदेशों में नहीं पायी जाती है।<br /> | <span class="GRef"> धवला/1/1,1,33/233/2 </span><span class="SanskritText"> सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् । न सर्वावयवै: रूपाद्युपलब्धिरपि तत्सहकारिकारणबाह्यनिवृत्तेरशेषजीवावयवव्यापित्वाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">जीव के संपूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार है। (यद्यपि यह क्षयोपशम ही जीव की ज्ञान के प्रति उपादानभूत योग्यता है, देखें [[ कारण ]](I/18) परंतु ऐसा मान लेनेपर भी जीव के संपूर्ण प्रदेशों के द्वारा रूपादि की उपलब्धि का प्रसंग भी नहीं आता है;क्योंकि, रूपादिक के ग्रहण करने में सहकारी कारणरूप बाह्यनिर्वृत्ति (इंद्रिय) जीव के संपूर्ण प्रदेशों में नहीं पायी जाती है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.4.5" id="III.4.5"> निमित्त के बिना केवल उपादान व्यावहारिक कार्य करने को समर्थ नहीं है</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/ </span>मू./59 <span class="SanskritText">यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेर्निमित्तमभ्यंतरमूलहेतो:। अध्यात्मवृत्तस्य तदंगभूतमभ्यंतरं केवलमप्यलं न।51।</span>=<span class="HindiText">जो बाह्य वस्तु गुण दोष या पुण्य-पाप की उत्पत्ति का निमित्त होती है वह अंतरंग में वर्तनेवाले गुणदोषों की उत्पत्ति के अभ्यंतर मूल हेतु की अंगभूत होती है। (अर्थात् उपादान को सहकारी कारणभूत होती है)। उसकी अपेक्षा न करके केवल अभ्यंतर कारण उस गुणदोष की उत्पत्ति में समर्थ नहीं है।</span><br /> | <span class="GRef"> स्वयंभू स्तोत्र/ </span>मू./59 <span class="SanskritText">यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेर्निमित्तमभ्यंतरमूलहेतो:। अध्यात्मवृत्तस्य तदंगभूतमभ्यंतरं केवलमप्यलं न।51।</span>=<span class="HindiText">जो बाह्य वस्तु गुण दोष या पुण्य-पाप की उत्पत्ति का निमित्त होती है वह अंतरंग में वर्तनेवाले गुणदोषों की उत्पत्ति के अभ्यंतर मूल हेतु की अंगभूत होती है। (अर्थात् उपादान को सहकारी कारणभूत होती है)। उसकी अपेक्षा न करके केवल अभ्यंतर कारण उस गुणदोष की उत्पत्ति में समर्थ नहीं है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1070/1159/4 </span><span class="SanskritText"> बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृतं रागद्वेषयोर्बीजं, तस्मिन्नसति सहकारिकारणे न च कर्ममात्राद्रागद्वेषवृत्तिर्यथा सत्यपि मृत्पिंडे दंडाद्यनंतरकरणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति मन्यते।</span>=<span class="HindiText">मन से विचारकर जब जीव बाह्य परिग्रह का स्वीकार करता है तब रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। यदि सहकारीकारण न होगा तो केवल कर्ममात्र से रागद्वेष उत्पन्न होते नहीं। यद्यपि मृत्पिंड से घट उत्पन्न होता है तथापि दंडादिक कारण नहीं होंगे तो घट की उत्पत्ति नहीं होती है।</span><br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1070/1159/4 </span><span class="SanskritText"> बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृतं रागद्वेषयोर्बीजं, तस्मिन्नसति सहकारिकारणे न च कर्ममात्राद्रागद्वेषवृत्तिर्यथा सत्यपि मृत्पिंडे दंडाद्यनंतरकरणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति मन्यते।</span>=<span class="HindiText">मन से विचारकर जब जीव बाह्य परिग्रह का स्वीकार करता है तब रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। यदि सहकारीकारण न होगा तो केवल कर्ममात्र से रागद्वेष उत्पन्न होते नहीं। यद्यपि मृत्पिंड से घट उत्पन्न होता है तथापि दंडादिक कारण नहीं होंगे तो घट की उत्पत्ति नहीं होती है।</span><br /> | ||
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<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,13-14/256/295/4 </span><span class="PrakritText"> ण च अण्णादो अण्णम्मि कोहो ण उप्पज्जइ; अक्कोसादो जीवेकम्मकलंकंकिए कोहुप्पत्तिदंसणादो। ण च उबलद्धे अणुववण्णदा; विरोहादो। ण कज्जं तिरोहियं संतं आविब्भावमुवणमइ; पिंडवियारणे घडोवलद्धिप्पसंगादो। ण च णिच्चं तिरोहिज्जइ; अणाहियअइसयभावादो। ण तस्स आविब्भावो वि; परिणामवज्जियस्स अवत्थंतराभावादो। ण गद्दहस्स सिंगं अण्णेहिंतो उप्पज्जइ; तस्स विसेसेणेव सामण्णसरूवेण वि पुव्वमभावादो। ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति-अणुप्पत्तिप्पसंगादो। णाणुप्पत्ती सव्वाभावप्पसंगादो। ण चेव (वं); उवलब्भमाणत्तादो। ण सव्वकालमुप्पत्ती वि; णिच्चस्सुप्पत्तिविरोहादो। ण णिच्चं पि; कमाकमेहि कज्जमकुणंतस्स पमाणविसए अवट्ठाणाणुववत्तीदो। तम्हा ण्णेहिंतो अण्णस्स सारिच्छ-तब्भावसामण्णेहि संतस्स विसेससरूवेण असंतस्स कज्जस्सुप्पत्तीए होदव्वमिदि सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">‘किसी अन्य के निमित्त से किसी अन्य में क्रोध उत्पन्न नहीं होता है’ यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि 1. कर्मों से कलंकित हुए जीव में कटुवचन के निमित्त से क्रोध की उत्पत्ति देखी जाती है। और जो बात पायी जाती है उसके संबंध में यह कहना कि यह बात नहीं बन सकती, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कहने में विरोध आता है। 2. यदि कार्य को सर्वथा नित्य मान लिया जावे तो वह तिरोहित नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वथा नित्य पदार्थ में किसी प्रकार का अतिशय नहीं हो सकता है। तथा नित्य पदार्थ का आविर्भाव भी नहीं बन सकता, क्योंकि जो परिणमन से रहित है, उसमें दूसरी अवस्था नहीं हो सकती है। 3. ‘कारण में कार्य छिपा रहता है और वह प्रगट हो जाता है’ ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर मिट्टी के पिंड को विदारने पर घड़े की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। 4. ‘अन्य कारणों से गधे के सींग की उत्पत्ति का प्रसंग देना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसका पहिले से ही जिस प्रकार विशेष रूप से अभाव है उसी प्रकार सामान्य रूप से भी अभाव है। इस प्रकार जब वह सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार से असत् है तो उसकी उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। 5. तथा कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति अथवा अनुपत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। 6. ‘यदि कहा जाये कि कार्य की उत्पत्ति मत होओ’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि (सर्वदा) कार्य की अनुत्पत्ति मानने पर सभी के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। 7. ‘यदि कहा जाये कि सभी का अभाव होता है तो हो जाओ’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सभी पदार्थों की उपलब्धि पायी जाती है। 8. यदि (दूसरे पक्ष में) यह कहा जाये कि सर्वदा सबकी उत्पत्ति होती ही रहे’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ क्रम से अथवा युगपत् कार्य को नहीं करता है वह पदार्थ प्रमाण का विषय नहीं होता है। इसलिए जो सादृश्यसामान्य और तद्भाव सामान्य रूप से विद्यमान है तथा विशेष (पर्याय) रूप से अविद्यमान है ऐसे किसी भी कार्य की, किसी दूसरे कारण से उत्पत्ति होती है यह सिद्ध हुआ।<br /> | <span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,13-14/256/295/4 </span><span class="PrakritText"> ण च अण्णादो अण्णम्मि कोहो ण उप्पज्जइ; अक्कोसादो जीवेकम्मकलंकंकिए कोहुप्पत्तिदंसणादो। ण च उबलद्धे अणुववण्णदा; विरोहादो। ण कज्जं तिरोहियं संतं आविब्भावमुवणमइ; पिंडवियारणे घडोवलद्धिप्पसंगादो। ण च णिच्चं तिरोहिज्जइ; अणाहियअइसयभावादो। ण तस्स आविब्भावो वि; परिणामवज्जियस्स अवत्थंतराभावादो। ण गद्दहस्स सिंगं अण्णेहिंतो उप्पज्जइ; तस्स विसेसेणेव सामण्णसरूवेण वि पुव्वमभावादो। ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति-अणुप्पत्तिप्पसंगादो। णाणुप्पत्ती सव्वाभावप्पसंगादो। ण चेव (वं); उवलब्भमाणत्तादो। ण सव्वकालमुप्पत्ती वि; णिच्चस्सुप्पत्तिविरोहादो। ण णिच्चं पि; कमाकमेहि कज्जमकुणंतस्स पमाणविसए अवट्ठाणाणुववत्तीदो। तम्हा ण्णेहिंतो अण्णस्स सारिच्छ-तब्भावसामण्णेहि संतस्स विसेससरूवेण असंतस्स कज्जस्सुप्पत्तीए होदव्वमिदि सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">‘किसी अन्य के निमित्त से किसी अन्य में क्रोध उत्पन्न नहीं होता है’ यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि 1. कर्मों से कलंकित हुए जीव में कटुवचन के निमित्त से क्रोध की उत्पत्ति देखी जाती है। और जो बात पायी जाती है उसके संबंध में यह कहना कि यह बात नहीं बन सकती, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कहने में विरोध आता है। 2. यदि कार्य को सर्वथा नित्य मान लिया जावे तो वह तिरोहित नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वथा नित्य पदार्थ में किसी प्रकार का अतिशय नहीं हो सकता है। तथा नित्य पदार्थ का आविर्भाव भी नहीं बन सकता, क्योंकि जो परिणमन से रहित है, उसमें दूसरी अवस्था नहीं हो सकती है। 3. ‘कारण में कार्य छिपा रहता है और वह प्रगट हो जाता है’ ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर मिट्टी के पिंड को विदारने पर घड़े की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। 4. ‘अन्य कारणों से गधे के सींग की उत्पत्ति का प्रसंग देना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसका पहिले से ही जिस प्रकार विशेष रूप से अभाव है उसी प्रकार सामान्य रूप से भी अभाव है। इस प्रकार जब वह सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार से असत् है तो उसकी उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। 5. तथा कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति अथवा अनुपत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। 6. ‘यदि कहा जाये कि कार्य की उत्पत्ति मत होओ’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि (सर्वदा) कार्य की अनुत्पत्ति मानने पर सभी के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। 7. ‘यदि कहा जाये कि सभी का अभाव होता है तो हो जाओ’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सभी पदार्थों की उपलब्धि पायी जाती है। 8. यदि (दूसरे पक्ष में) यह कहा जाये कि सर्वदा सबकी उत्पत्ति होती ही रहे’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ क्रम से अथवा युगपत् कार्य को नहीं करता है वह पदार्थ प्रमाण का विषय नहीं होता है। इसलिए जो सादृश्यसामान्य और तद्भाव सामान्य रूप से विद्यमान है तथा विशेष (पर्याय) रूप से अविद्यमान है ऐसे किसी भी कार्य की, किसी दूसरे कारण से उत्पत्ति होती है यह सिद्ध हुआ।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.4.6" id="III.4.6"> निमित्त के बिना कार्योत्पत्ति मानने में दोष</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,13/256/295/9 </span><span class="PrakritText">ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति–अणुप्पत्तिप्पसंगादो।</span>=<span class="HindiText">कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति अथवा अनुत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है।</span><br /> | <span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,13/256/295/9 </span><span class="PrakritText">ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति–अणुप्पत्तिप्पसंगादो।</span>=<span class="HindiText">कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति अथवा अनुत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> परीक्षामुख/6/63 </span><span class="SanskritText">समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">यदि पदार्थ स्वयं समर्थ होकर क्रिया करते हैं तो सदा कार्य की उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि, केवल सामान्य आदि कार्य करने में किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते।<br /> | <span class="GRef"> परीक्षामुख/6/63 </span><span class="SanskritText">समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">यदि पदार्थ स्वयं समर्थ होकर क्रिया करते हैं तो सदा कार्य की उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि, केवल सामान्य आदि कार्य करने में किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.4.7" id="III.4.7"> सभी निमित्त धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं होते</strong></span><br /> | ||
पंचास्तिकाय<strong>.</strong>कार्तिकेयानुप्रेक्षा/तत्व प्रदीपिका/88 <span class="SanskritText">यथा हि गतिपरिणत: प्रभंजनो वैजयंतीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथा धर्म:। स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते। कुतोऽस्य सहकारित्वेन गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम् ।...अपि च यथा गतिपूर्वस्थितिपरिणतिपरिणतस्तुरंगोऽश्ववारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथाधर्म:। स खलु निष्क्रियत्वात्... उदासीन एवासौ प्रसरो भवतीति।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार गति परिणत पवन ध्वजाओं के गति परिणाम का हेतु कर्ता (प्रेरक) दिखाई देता है, उसी प्रकार धर्म नहीं है। वह वास्तव में निष्क्रिय होने से कभी गति परिणाम को ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे (पर के) सहकारी की भाँति पर के गति परिणाम का हेतु कर्तृत्व कहाँ से होगा ? किंतु केवल उदासीन ही प्रसारक है। और जिस प्रकार गतिपूर्वक स्थिति परिणत अश्व सवार के स्थिति परिणाम का हेतु कर्ता (प्रेरक) दिखाई देता है उसी प्रकार अधर्म नहीं है।... वह तो केवल उदासीन ही प्रसारक है। (तात्पर्य यह कि सभी कारण धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं है। निष्क्रिय कारण उदासीन होता है और क्रियावान् प्रेरक होता है)।<br /> | पंचास्तिकाय<strong>.</strong>कार्तिकेयानुप्रेक्षा/तत्व प्रदीपिका/88 <span class="SanskritText">यथा हि गतिपरिणत: प्रभंजनो वैजयंतीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथा धर्म:। स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते। कुतोऽस्य सहकारित्वेन गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम् ।...अपि च यथा गतिपूर्वस्थितिपरिणतिपरिणतस्तुरंगोऽश्ववारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथाधर्म:। स खलु निष्क्रियत्वात्... उदासीन एवासौ प्रसरो भवतीति।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार गति परिणत पवन ध्वजाओं के गति परिणाम का हेतु कर्ता (प्रेरक) दिखाई देता है, उसी प्रकार धर्म नहीं है। वह वास्तव में निष्क्रिय होने से कभी गति परिणाम को ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे (पर के) सहकारी की भाँति पर के गति परिणाम का हेतु कर्तृत्व कहाँ से होगा ? किंतु केवल उदासीन ही प्रसारक है। और जिस प्रकार गतिपूर्वक स्थिति परिणत अश्व सवार के स्थिति परिणाम का हेतु कर्ता (प्रेरक) दिखाई देता है उसी प्रकार अधर्म नहीं है।... वह तो केवल उदासीन ही प्रसारक है। (तात्पर्य यह कि सभी कारण धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं है। निष्क्रिय कारण उदासीन होता है और क्रियावान् प्रेरक होता है)।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III5" id="III5">कर्म व जीवगत कारण कार्य भाव की कथंचित् प्रधानता</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.5.1" id="III.5.1">जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध का निर्देश</strong> </span><br /> | ||
मूलाचार/967 <span class="PrakritText">जीवपरिणामहेदू कम्मत्तण पोग्गला परिणमंति। ण दु णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियदि।</span>=<span class="HindiText">जिनको जीव के परिणाम कारण हैं ऐसे रूपादिमान परमाणु कर्मस्व रूप से परिणमते हैं, परंतु ज्ञानभावकरि परिणत हुआ जीव कर्मभावकरि पुद्गलों को नहीं ग्रहण करता। </span><BR> | मूलाचार/967 <span class="PrakritText">जीवपरिणामहेदू कम्मत्तण पोग्गला परिणमंति। ण दु णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियदि।</span>=<span class="HindiText">जिनको जीव के परिणाम कारण हैं ऐसे रूपादिमान परमाणु कर्मस्व रूप से परिणमते हैं, परंतु ज्ञानभावकरि परिणत हुआ जीव कर्मभावकरि पुद्गलों को नहीं ग्रहण करता। </span><BR> | ||
<span class="GRef"> समयसार/80 </span><span class="PrakritText">जीवपरिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ।80।</span>=<span class="HindiText">पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणत होते हैं और जीव भी पुद्गल कर्म के निमित्त से परिणमन करता है। | <span class="GRef"> समयसार/80 </span><span class="PrakritText">जीवपरिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ।80।</span>=<span class="HindiText">पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणत होते हैं और जीव भी पुद्गल कर्म के निमित्त से परिणमन करता है। <span class="GRef">( समयसार/312-313 )</span>, <span class="GRef">( पंचास्तिकाय/60 )</span>, <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/83 )</span>, <span class="GRef">( योगसार (अमितगति)/3/9-10 )</span>। </span><span class="GRef"> पंचास्तिकाय/128-130 </span><span class="PrakritText">जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदु परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी।128। गदिमधिगस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं कु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा।129। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणा सणिधणो वा।130।</span>=<span class="HindiText"><span class="HindiText">जो वास्तव में संसार-स्थित जीव हैं उससे परिणाम होता है, परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में गमन होता है।128। गतिप्राप्त को देह होती है, देह से इंद्रियाँ होती हैं, इंद्रियों से विषय ग्रहण और विषय ग्रहण से राग अथवा द्वेष होता है।129। ऐसे भाव संसार चक्र में जीव को अनादि अनंत अथवा अनादि सांत होते रहते हैं, ऐसा जिनवरों ने कहा है।130। <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/131-133 )</span>; <span class="GRef">(योगसार/अमितगति/4/29,31 तथा 2/33)</span>; <span class="GRef">( तत्त्वानुशासन/16-19 )</span>; <span class="GRef">( सागार धर्मामृत/6/31 )</span> </span><BR> | ||
और भी देखो–[[प्रकृतिबंध#1.6|प्रकृतिबंध-1.6]] में परिणाम प्रत्यय प्रकृतियों के लक्षण व भेद।</span> <BR><span class="GRef"> पंचाध्यायी x`/ </span>इ/41,1071 <span class="SanskritText">जीवस्याशुद्धरागादिभावानां कर्मकारणम् । कर्मणस्तस्य रागादिभावा: प्रत्युपकारिवत् ।41। अस्ति सिद्धं ततोऽन्योन्यं जीवपुद्गलकर्मणो:। निमित्तनैमित्तिको भावो यथा कुंभकुलालयो:।1071।</span>=<span class="HindiText">परस्पर उपकार की तरह जीव के अशुद्ध रागादि भावों का कारण द्रव्यकर्म है और उस द्रव्यकर्म के कारण रागादि भाव है।41। इसलिए जिस प्रकार कुंभ और कुंभार में निमित्त नैमित्तिक भाव है उसी प्रकार जीव और पुद्गलात्मक कर्म में परस्पर निमित्त नैमित्तिकभाव है यह सिद्ध होता है।1071। | और भी देखो–[[प्रकृतिबंध#1.6|प्रकृतिबंध-1.6]] में परिणाम प्रत्यय प्रकृतियों के लक्षण व भेद।</span> <BR><span class="GRef"> पंचाध्यायी x`/ </span>इ/41,1071 <span class="SanskritText">जीवस्याशुद्धरागादिभावानां कर्मकारणम् । कर्मणस्तस्य रागादिभावा: प्रत्युपकारिवत् ।41। अस्ति सिद्धं ततोऽन्योन्यं जीवपुद्गलकर्मणो:। निमित्तनैमित्तिको भावो यथा कुंभकुलालयो:।1071।</span>=<span class="HindiText">परस्पर उपकार की तरह जीव के अशुद्ध रागादि भावों का कारण द्रव्यकर्म है और उस द्रव्यकर्म के कारण रागादि भाव है।41। इसलिए जिस प्रकार कुंभ और कुंभार में निमित्त नैमित्तिक भाव है उसी प्रकार जीव और पुद्गलात्मक कर्म में परस्पर निमित्त नैमित्तिकभाव है यह सिद्ध होता है।1071। <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/109;131-132;1069-1070 )</span></span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="III.5.2" id="III.5.2"> जीव व कर्मों की विचित्रता परस्पर सापेक्ष है</strong></span><BR> <span class="GRef"> धवला 7/2,1,19/70/9 </span><span class="PrakritText">ण च कारणेण विणा कज्जाणमुप्पत्ती अत्थि।... ततो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि वि अत्थि त्ति णिच्छओ कायव्वो। जदि एवं तो भमर-महुवर...कयंबादि सण्णिदेहि वि णामकम्मेहि होदव्वमिदि। ण एस दोसो इच्छिज्जमाणादो।</span>=<span class="HindiText">कारण के बिना तो कार्यों की उत्पत्ति होती नहीं है। इसलिए जितने (पृथिवी, अप्, तेज आदि) कार्य हैं उतने उनके कारण रूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए। प्रश्न–यदि ऐसा है तो भ्रमर, मधुकर-कदंब आदिक नामों वाले भी नाम कर्म होने चाहिए ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह बात तो इष्ट ही है।</span><BR> | ||
<span class="GRef"> धवला 10/4,2,3,1/13/7 </span><span class="PrakritText">जा सा णोआगमदव्वकम्मवेयणा सा अट्ठविहा...। कुदो। अट्ठविहस्स दिस्समाणस्स अण्णाणादंसण...वीरियादिअंतरायकज्जस्स अण्णहाणुववत्तीदो। ण च कारणभेदेण विणा कज्जभेदो अत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">जो वह नोआगम द्रव्यकर्म वेदना कही है, वह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि के भेद से आठ प्रकार की है। क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर अज्ञान अदर्शन...एवं वीर्यादि के अंतराय रूप आठ प्रकार का कार्य जो दिखाई देता है वह नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि यह आठ प्रकार का कार्य भेद कारण भेद के बिना भी बन जायेगा, सो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्र ऐसा पाया नहीं जाता। </span><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/37/56/4 </span><span class="PrakritText">एदस्स पमाणस्स वडि्ढहाणितरतमभावो ण ताव णिक्कारणो; वडि्ढहाण्णिहि विणा एगसरूवेणावट्ठाणप्पसंगादो। <BR> | <span class="GRef"> धवला 10/4,2,3,1/13/7 </span><span class="PrakritText">जा सा णोआगमदव्वकम्मवेयणा सा अट्ठविहा...। कुदो। अट्ठविहस्स दिस्समाणस्स अण्णाणादंसण...वीरियादिअंतरायकज्जस्स अण्णहाणुववत्तीदो। ण च कारणभेदेण विणा कज्जभेदो अत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">जो वह नोआगम द्रव्यकर्म वेदना कही है, वह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि के भेद से आठ प्रकार की है। क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर अज्ञान अदर्शन...एवं वीर्यादि के अंतराय रूप आठ प्रकार का कार्य जो दिखाई देता है वह नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि यह आठ प्रकार का कार्य भेद कारण भेद के बिना भी बन जायेगा, सो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्र ऐसा पाया नहीं जाता। </span><span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1,1/37/56/4 </span><span class="PrakritText">एदस्स पमाणस्स वडि्ढहाणितरतमभावो ण ताव णिक्कारणो; वडि्ढहाण्णिहि विणा एगसरूवेणावट्ठाणप्पसंगादो। <BR> | ||
ण च एवं तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्वांजंतं वड्ढि हाणि तरतमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">इस ज्ञान प्रमाण का वृद्धि और हानि के द्वारा जो तरतम भाव होता है, वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ज्ञान प्रमाण में वृद्धि और हानि से होने वाले तरतम भाव को निष्कारण मान लेने पर वृद्धि और हानि रूप कार्य का ही अभाव हो जाता है। और ऐसी स्थिति में ज्ञान के एकरूप से रहने का प्रसंग प्राप्त होता है। परंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि एकरूप ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है। इसलिए ये तरतमता सकारण होनी चाहिए। उसमें जो हानि वृद्धि के तरतम भाव का कारण है वह आवरण कर्म है।</span><br /> | ण च एवं तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्वांजंतं वड्ढि हाणि तरतमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">इस ज्ञान प्रमाण का वृद्धि और हानि के द्वारा जो तरतम भाव होता है, वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ज्ञान प्रमाण में वृद्धि और हानि से होने वाले तरतम भाव को निष्कारण मान लेने पर वृद्धि और हानि रूप कार्य का ही अभाव हो जाता है। और ऐसी स्थिति में ज्ञान के एकरूप से रहने का प्रसंग प्राप्त होता है। परंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि एकरूप ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है। इसलिए ये तरतमता सकारण होनी चाहिए। उसमें जो हानि वृद्धि के तरतम भाव का कारण है वह आवरण कर्म है।</span><br /> | ||
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<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 4/1,22/44/24/5 </span><span class="PrakritText">सो केण जणिदो। अणंताणुबंधीणमुदएण। अणंताणुबंधीणमुदओ कुदो जायदे। परिणामपचएण।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वह (सासादन परिणाम) किस कारण से उत्पन्न होता है? <strong>उत्तर</strong>–अनंतानुबंधी चतुष्क के उदय से होता है। <strong>प्रश्न</strong>–अनंतानुबंधी चतुष्क का उदय किस कारण से होता है? <strong>उत्तर</strong>–परिणाम विशेष के कारण से होता है।<br /> | <span class="GRef"> कषायपाहुड़ 4/1,22/44/24/5 </span><span class="PrakritText">सो केण जणिदो। अणंताणुबंधीणमुदएण। अणंताणुबंधीणमुदओ कुदो जायदे। परिणामपचएण।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वह (सासादन परिणाम) किस कारण से उत्पन्न होता है? <strong>उत्तर</strong>–अनंतानुबंधी चतुष्क के उदय से होता है। <strong>प्रश्न</strong>–अनंतानुबंधी चतुष्क का उदय किस कारण से होता है? <strong>उत्तर</strong>–परिणाम विशेष के कारण से होता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.5.3" id="III.5.3">जीव की अवस्थाओं में कर्म मूल हेतु है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/9/488 </span>।21 <span class="SanskritText">तादात्मनोऽस्वतंत्रीकरणे मूलकारणम् ।</span>=<span class="HindiText">वह (कर्म) आत्मा को परतंत्र करने में मूलकारण है।</span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/9/488 </span>।21 <span class="SanskritText">तादात्मनोऽस्वतंत्रीकरणे मूलकारणम् ।</span>=<span class="HindiText">वह (कर्म) आत्मा को परतंत्र करने में मूलकारण है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/3/6/23/16 </span><span class="SanskritText">लोके हरिशार्दूलवृकभुजगादयो निसर्गत: क्रौर्यशौर्याहारादिसंप्रतिपत्तौ वर्तंते इत्युच्यंते न चासावाकस्मिकी कर्मनिमित्तत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">लोक में भी शेर, भेड़िया, चीता, साँप आदि में शूरता-क्रूरता आहार आदि परोपदेश के बिना होने से यद्यपि नैसर्गिक कहलाते हैं; परंतु वे आकस्मिक नहीं हैं, क्योंकि कर्मोदय के निमित्त से उत्पन्न होते हैं।<br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/3/6/23/16 </span><span class="SanskritText">लोके हरिशार्दूलवृकभुजगादयो निसर्गत: क्रौर्यशौर्याहारादिसंप्रतिपत्तौ वर्तंते इत्युच्यंते न चासावाकस्मिकी कर्मनिमित्तत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">लोक में भी शेर, भेड़िया, चीता, साँप आदि में शूरता-क्रूरता आहार आदि परोपदेश के बिना होने से यद्यपि नैसर्गिक कहलाते हैं; परंतु वे आकस्मिक नहीं हैं, क्योंकि कर्मोदय के निमित्त से उत्पन्न होते हैं।<br /> | ||
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<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/201 </span><span class="SanskritText">स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदय:।</span>=<span class="HindiText">अपने-अपने ज्ञान के घात में अपने-अपने आवरण का उदय वास्तव में मूल कारण है।<br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/201 </span><span class="SanskritText">स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदय:।</span>=<span class="HindiText">अपने-अपने ज्ञान के घात में अपने-अपने आवरण का उदय वास्तव में मूल कारण है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="III.5.4" id="III.5.4">कर्म की बलवत्ता के उदाहरण</strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/161-163 </span>(सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र के प्रतिबंधक क्रम से मिथ्यात्व, अज्ञान व कषाय नाम के कर्म हैं।)<br /> | <span class="GRef"> समयसार/161-163 </span>(सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र के प्रतिबंधक क्रम से मिथ्यात्व, अज्ञान व कषाय नाम के कर्म हैं।)<br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/1610 </span>असाता के उदय में औषधियें भी सामर्थ्यहीन हैं।<br /> | <span class="GRef"> भगवती आराधना/1610 </span>असाता के उदय में औषधियें भी सामर्थ्यहीन हैं।<br /> | ||
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<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/15/13/61/15 </span>चक्षुदर्शनावरण और वीर्यांतराय के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के अवष्टंभ (बल) से चक्षुदर्शन की शक्ति उत्पन्न होती है। <br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/15/13/61/15 </span>चक्षुदर्शनावरण और वीर्यांतराय के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के अवष्टंभ (बल) से चक्षुदर्शन की शक्ति उत्पन्न होती है। <br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/9/488/21 </span>सुख-दुःख की उत्पत्ति में कर्म बलवान हेतु हैं।<br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/9/488/21 </span>सुख-दुःख की उत्पत्ति में कर्म बलवान हेतु हैं।<br /> | ||
<span class="GRef"> आप्तपरीक्षा/114-115/246-247 </span>कर्म जीव को परतंत्र करने वाले हैं। | <span class="GRef"> आप्तपरीक्षा/114-115/246-247 </span>कर्म जीव को परतंत्र करने वाले हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/24/9/488/20 )</span> <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/244/508/2 )</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/234/3 </span>कर्मों की विचित्रता से ही जीव प्रदेशों के संघटन का विच्छेद व बंधन होता है।<br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/234/3 </span>कर्मों की विचित्रता से ही जीव प्रदेशों के संघटन का विच्छेद व बंधन होता है।<br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/242/8 </span>नाम कर्मोदय की वशवर्तिता से इंद्रियाँ उत्पन्न होती हैं।<br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,33/242/8 </span>नाम कर्मोदय की वशवर्तिता से इंद्रियाँ उत्पन्न होती हैं।<br /> | ||
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–देखें [[ विभाव#III.3.1 | विभाव - 3.1]]–(कर्म जीव का पराभव करते हैं)<br /> | –देखें [[ विभाव#III.3.1 | विभाव - 3.1]]–(कर्म जीव का पराभव करते हैं)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="III.5.5" id="III.5.5"> जीव की एक अवस्था में अनेक कर्म निमित्त होते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/15/13/61/15 </span><span class="SanskritText">इस चक्षुषा चक्षुर्दर्शनावरणवीर्यांतरायक्षयोपशमांगोपांगनामावष्टंभाद् अविभावितविशेषसामर्थ्येन किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोचनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते बालवत् ।</span>=<span class="HindiText">चक्षुदर्शनावरण और वीर्यांतराय इन दो कर्मों के क्षयोपशम से तथा साथ-साथ अंगोपांग नामकर्म के उदय से होने वाला सामान्य अवलोकन चक्षुदर्शन कहलाता है।</span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/15/13/61/15 </span><span class="SanskritText">इस चक्षुषा चक्षुर्दर्शनावरणवीर्यांतरायक्षयोपशमांगोपांगनामावष्टंभाद् अविभावितविशेषसामर्थ्येन किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोचनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते बालवत् ।</span>=<span class="HindiText">चक्षुदर्शनावरण और वीर्यांतराय इन दो कर्मों के क्षयोपशम से तथा साथ-साथ अंगोपांग नामकर्म के उदय से होने वाला सामान्य अवलोकन चक्षुदर्शन कहलाता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/201-202 </span><span class="SanskritGatha"> सत्यं स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदय:। कर्मांतरोदयापेक्षो नासिद्ध: कार्यकृद्यथा।201। अस्ति मत्यादि यज्ज्ञानं ज्ञानावृत्युदयक्षते:। तथा वीर्यांतरायस्य कर्मणोऽनुदयादपि।202।</span>=<span class="HindiText">जैसे अपने-अपने घात में अपने-अपने आवरण का उदय मूलकारण है वैसे ही वह ज्ञानावरण आदि दूसरे कर्मों के उदय की अपेक्षा सहित कार्यकारी होता है, यह भी असिद्ध नहीं है।201। जैसे जो मत्यादिक ज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है वैसे ही वह वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से भी होता है।202।<br /> | <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/201-202 </span><span class="SanskritGatha"> सत्यं स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदय:। कर्मांतरोदयापेक्षो नासिद्ध: कार्यकृद्यथा।201। अस्ति मत्यादि यज्ज्ञानं ज्ञानावृत्युदयक्षते:। तथा वीर्यांतरायस्य कर्मणोऽनुदयादपि।202।</span>=<span class="HindiText">जैसे अपने-अपने घात में अपने-अपने आवरण का उदय मूलकारण है वैसे ही वह ज्ञानावरण आदि दूसरे कर्मों के उदय की अपेक्षा सहित कार्यकारी होता है, यह भी असिद्ध नहीं है।201। जैसे जो मत्यादिक ज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है वैसे ही वह वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से भी होता है।202।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="III.5.6" id="III.5.6"> कर्म के उदय में तदनुसार जीव के परिणाम अवश्य होते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/7/21/25/549/27 </span><span class="SanskritText">यद्यभ्यंतरसंयमघातिकर्मोदयोऽस्ति तदुदयेनावश्यमनिवृत्तपरिणामेन भवितव्यं ततश्च महाव्रतत्वमस्य नोपपद्यत इति मतम्; तन्न; किं कारणम्, उपचारात् राजकुले सर्वगतंचैत्रवत् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(छठे गुणस्थानवर्ती संयत को) यदि संयतघाती कर्म का उदय है तो अवश्य ही उसे अविरति के परिणाम होने चाहिए। और ऐसा होने पर उसके महाव्रतत्वपना घटित नहीं होता (अत: संज्वलन के उदय के सद्भाव में छठे गुणस्थानवर्ती साधु को महाव्रती कहना उचित नहीं है)। <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि राजकुल में चैत्र या खोजे पुरूष को सर्वगत कहने की भाँति यहाँ उपचार से उसे महाव्रती कहा जाता है।</span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/7/21/25/549/27 </span><span class="SanskritText">यद्यभ्यंतरसंयमघातिकर्मोदयोऽस्ति तदुदयेनावश्यमनिवृत्तपरिणामेन भवितव्यं ततश्च महाव्रतत्वमस्य नोपपद्यत इति मतम्; तन्न; किं कारणम्, उपचारात् राजकुले सर्वगतंचैत्रवत् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(छठे गुणस्थानवर्ती संयत को) यदि संयतघाती कर्म का उदय है तो अवश्य ही उसे अविरति के परिणाम होने चाहिए। और ऐसा होने पर उसके महाव्रतत्वपना घटित नहीं होता (अत: संज्वलन के उदय के सद्भाव में छठे गुणस्थानवर्ती साधु को महाव्रती कहना उचित नहीं है)। <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि राजकुल में चैत्र या खोजे पुरूष को सर्वगत कहने की भाँति यहाँ उपचार से उसे महाव्रती कहा जाता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/12/4,2,13,254/457/6 </span><span class="PrakritText">ण च सुहुमसांपराइय मोहणीय भावो अत्थि, भावेण विणा दव्वकम्मस्स अत्थित्तविरोहादो सुहुससांपराइयसण्णाणुवत्तीदो वा।</span>=<span class="HindiText">सूक्ष्मसांपरायिक गुणस्थान में मोहनीय का भाव नहीं हो, ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि भाव के बिना द्रव्यकर्म के रहने का विरोध है, अथवा वहाँ भाव के न मानने पर ‘सूक्ष्मसांपरायिक’ यह संज्ञा ही नहीं बनती है।<br /> | <span class="GRef"> धवला/12/4,2,13,254/457/6 </span><span class="PrakritText">ण च सुहुमसांपराइय मोहणीय भावो अत्थि, भावेण विणा दव्वकम्मस्स अत्थित्तविरोहादो सुहुससांपराइयसण्णाणुवत्तीदो वा।</span>=<span class="HindiText">सूक्ष्मसांपरायिक गुणस्थान में मोहनीय का भाव नहीं हो, ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि भाव के बिना द्रव्यकर्म के रहने का विरोध है, अथवा वहाँ भाव के न मानने पर ‘सूक्ष्मसांपरायिक’ यह संज्ञा ही नहीं बनती है।<br /> |
Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
- निमित्त के उदाहरण
- षट्द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव
- द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप निमित्त
- निमित्त की प्रेरणा से कार्य होना
- निमित्त नैमित्तिक संबंध
- अन्य सामान्य उदाहरण
- निमित्त की कथंचित् गौणता
- सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते
- धर्मादि द्रव्य उपकारक हैं प्रेरक नहीं
- अन्य भी उदासीन कारण धर्म द्रव्यवत् ही जानने
- बिना उपादान के निमित्त कुछ न करे
- सहकारी कारण को कारण कहना उपचार है
- सहकारी कारण कार्य के प्रति प्रधान नहीं है
- सहकारी को कारण मानना सदोष है
- सहकारी कारण अहेतुवत् होता है
- सहकारी कारण तो निमित्त मात्र होता है
- निमित्त परमार्थ में अकिंचित्कर व हेय है
- भिन्न कारण वास्तव में कोई कारण नहीं
- द्रव्य के परिणमन को सर्वथा निमित्ताधीन मानना मिथ्या है
- कर्म व जीवगत कारण कार्य भाव की गौणता
- जीव के भाव को निमित्त मात्र करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणमते हैं
- 11 वें गुणस्थान में अनुभागोदय में हानि वृद्धि रहते हुए भी जीव के परिणाम अवस्थित रहते हैं
- जीव व कर्म में बध्य घातक विरोध नहीं है
- जीव व कर्म में कारण कार्य मानना उपचार है
- ज्ञानियों का कर्म अकिंचित्कर है
- मोक्षमार्ग में आत्म परिणामों की विवक्षा प्रधान है कर्मों की नहीं
- कर्मों की उपशम क्षय व उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् अयत्न साध्य हैं
- निमित्त की कथंचित् प्रधानता
- निमित्त नैमित्तिक संबंध भी वस्तुभूत है
- कारण के बिना कार्य नहीं होता
- उचित निमित्त के सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है
- उपादान की योग्यता के सद्भाव में भी निमित्त के बिना कार्य नहीं होता
- निमित्त के बिना केवल उपादान व्यावहारिक कार्य करने को समर्थ नहीं है
- निमित्त के बिना कार्योत्पत्ति मानने में दोष
- सभी निमित्त धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं होते
- कर्म व जीव गत कारण कार्य भाव की कथंचित् प्रधानता
- निमित्त की कथंचित् गौणता मुख्यता
- निमित्त के उदाहरण
- षट् द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव
तत्त्वार्थसूत्र/5/17-22 गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकार:।17। आकाशस्यावगाह:।18। शरीरवाङ्मन:प्राणापाना: पुद्गला नाम।19। सुखदु:खजीवितमरणोपग्रहाश्च।20। परस्परोपग्रहो जीवानाम्।25। वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य।22। =(जीव व पुद्गल की) गति और स्थिति में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है।17। अवकाश देना आकाश का उपकार है।18। शरीर, वचन, मन और प्राणापान पुद्गलों का उपकार है।19। सुख दुःख जीवन और मरण ये भी पुद्गलों के उपकार हैं।20। परस्पर निमित्त होना यह जीवों का उपकार है।21। वर्तना परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्व ये काल के उपकार हैं।20। ( गोम्मटसार जीवकांड/605-606/1050, 1060 ), ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/208-210 )
सर्वार्थसिद्धि/5/20/289/2 एतानि सुखादीनि जीवस्य पुद्गलकृत उपकार:, मूर्त्तिमद्धेतुसंनिधाने सति तदुत्पत्ते:।...पुद्गलानां पुद्गलकृत उपकार इति। तद्यथा-कंस्यादीनां भस्मादिभिर्जलादीनां कतकादिभिरय:प्रभृतीनामुदकादिभिरुपकार: क्रियते। च शब्द:....अन्योऽपि पुद्गलकृत उपकारोऽस्तीति समुच्चीयते। यथा शरीराणि एवं चक्षुरादीनींद्रियाण्यपीति।20। ... परस्परोपग्रह:। जीवानामुपकार:। क: पुनरसौ। स्वामी भृत्य:, आचार्य: शिष्य: इत्येवमादिभावेन वृत्ति: परस्परोपग्रह:। स्वामी तावद्वित्तत्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते। भृत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिपेधेनच। आचार्य उपदेशदर्शनेन... क्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते। शिष्या अपि तदानुकूलवृत्त्या आचार्याणाम् । ...पूर्वोक्तसुखादिचतुष्टयप्रदर्शनार्थं पुन: उपग्रह वचनं क्रियते। सुखादीन्यपि जीवानां जीवकृत उपकार इति।21।=ये सुखादिक जीव के पुद्गल कृत उपकार हैं, क्योंकि मूर्त्त कारणों के रहने पर ही इनकी उत्पत्ति होती है। (इसके अतिरिक्त) पुद्गलों का भी पुद्गल कृत उपकार होता है। यथा-कांसे आदि का राख आदि के द्वारा, जल आदि के द्वारा उपकार किया जाता है। पुद्गल कृत और भी उपकार हैं, इसके समुच्चय के लिए सूत्र में ‘च’ शब्द दिया है। जिस प्रकार शरीरादिक पुद्गल कृत उपकार हैं उसी प्रकार चक्षु आदि इंद्रियाँ भी पुद्गल कृत उपकार हैं। परस्पर का उपग्रह करना जीवों का उपकार है। जैसे स्वामी तो धन आदि देकर और सेवक उसके हित का कथन करके तथा अहित का निषेध करके एक दूसरे का उपकार करते हैं। आचार्य उपदेश द्वारा तथा क्रिया में लगाकर शिष्यों का और शिष्य अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा आचार्य का उपकार करते हैं। इनके अतिरिक्त सुख आदिक भी जीव के जीव कृत उपकार हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/605-606/1060-1062 ) ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/208-210 )
वसुनंदी श्रावकाचार/34 जीवस्सुवयारकरा कारणभूया हु पंचकायाई। जीवो सत्ताभूओ सो ताणं ण कारणं होइ।34।
द्रव्यसंग्रह टीका/ अधिकार 2 की चूलिका/78/2 पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्यवहारनयेन जीवस्य शरीरवाङ्मन:प्राणापानादिगतिस्थित्यवगाहवर्तनाकार्याणि कुर्वंतीति कारणानि भवंति। जीवद्रव्यं पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोपग्रहं करोति तथापि पुद्गलादिपंचद्रव्याणां किमपि न करोतीत्यकारणम् ।=पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये पाँचों द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, इसलिए वे कारणभूत हैं, किंतु जीव सत्ता स्वरूप है उनका कारण नहीं है।34। उपरोक्त पाँचों द्रव्यों में से व्यवहार नय की अपेक्षा जीव के शरीर, वचन, मन, श्वास, नि:श्वास आदि कार्य तो पुद्गल द्रव्य करता है। और गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तना रूप कार्य क्रम से धर्म, अधर्म, आकाश और काल करते हैं। इसलिए पुद्गलादि पाँच द्रव्य कारण हैं। जीव द्रव्य यद्यपि गुरु शिष्य आदि रूप से आपस में एक दूसरे का उपकार करता है, फिर भी पुद्गल आदि पाँचों द्रव्यों के लिए जीव कुछ भी नहीं करता, इसलिए वह अकारण है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/12 )।
- द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप निमित्त
कषायपाहुड़ 1/245/289/3 पागभावो कारणं। पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवावेक्खाए जायदे। तदो ण सव्वद्धं दव्वकम्माहं सगफलं कुणंति त्ति सिद्धं।=प्रागभाव का विनाश हुए बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और प्रागभाव का विनाश द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव की अपेक्षा लेकर होता है। इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं, यह सिद्ध होता है।
(देखें बंध - 3.1) कर्मों का बंध भी द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा लेकर होता है।
(देखें उदय - 1) कर्मों का उदय भी द्रव्य क्षेत्र काल व भव की अपेक्षा लेकर होता है।
- निमित्त की प्रेरणा से कार्य होना
सर्वार्थसिद्धि/5/19/286/9 तत्सामर्थ्योपेतेन क्रियावतात्मना प्रेर्यमाणा: पुद्गला वाक्त्वेन विपरिणमंत इति।=इस प्रकार की (भाव वचन की) सामर्थ्य से युक्त क्रिया वाले आत्मा के द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल वचन रूप से परिणमन करते हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/606/1062/3 )।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/6/15 वीतरागसर्वज्ञदिव्यध्वनिशास्त्रे प्रवृत्ते किं कारणं। भव्यपुण्यप्रेरणात् । =प्रश्न–वीतराग सर्वज्ञ देव की दिव्य ध्वनि में प्रवृत्ति किस कारण से होती है ? उत्तर–भव्य जीवों के पुण्य की प्रेरणा से।
- निमित्त नैमित्तिक संबंध
समयसार/312-313 चेया उ पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी वि चेययट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ।312। एवं बंधो उ दुण्हं वि अण्णोण्णपच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायदे।313।=आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है तथा प्रकृति भी आत्मा के निमित्त से उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है। इस प्रकार परस्पर निमित्त से दोनों ही आत्मा का और प्रकृति का बंध होता है, और इससे संसार होता है।
धवला/2/1, 1/412/11 तथोच्छवासनि:श्वासप्राणपर्याप्तयो:। कार्यकारणयोरात्मपुद्गलोपादानयोर्भेदोऽभिघातव्य इति।=उच्छ्वासनि:श्वास: प्राण कार्य है और आत्मा उपादान कारण है तथा उच्छ्वासनि:श्वासपर्याप्ति कारण है और पुद्गलोपादान निमित्तक है।
समयसार / आत्मख्याति/286-287 यथाध:कर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्न च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे...इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं प्रत्याचष्टे।...एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभाव:। =जैसे अध: कार्य से उत्पन्न और उद्देश्य से उत्पन्न हुए निमित्तभूत (आहारादि) पुद्गल द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा नैमित्तिक भूत बंध साधक भाव का प्रत्याख्यान नहीं करता, इसी प्रकार समस्त पर द्रव्य का प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होने वाले भाव को (भी) नहीं त्यागता।... इस प्रकार तत्त्वज्ञान पूर्वक निमित्तभूत पुद्गल द्रव्य का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा, जैसे नैमित्तिक भूत बंध साधक भाव का प्रत्याख्यान करता है, उसी प्रकार समस्त परद्रव्यों का प्रत्याख्यान करता हुआ आत्मा उसके निमित्त से होनेवाले भाव का प्रत्याख्यान करता है। इस प्रकार द्रव्य और भाव को निमित्त नैमित्तिकपना है।
समयसार / आत्मख्याति/312-313 एवमनयोरात्मप्रकृतयो: कर्तृकर्मभावाभावेऽप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बंधो दृष्ट:, तत: संसार:, तत एव च कर्तृकर्मव्यवहार:। =यद्यपि उन आत्मा और प्रकृति के कर्ता कर्म भाव का अभाव है तथापि परस्पर निमित्त नैमित्तिक भाव से दोनों के बंध देखा जाता है। इससे संसार है और यह ही उनके कर्ता कर्म का व्यवहार है। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1071 )
समयसार / आत्मख्याति/349-350 यतो खलु शिल्पी सुवर्णकारादि: कुंडलादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति ...न त्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्त्रभोग्यत्वव्यवहार:। =जैसे शिल्पी (स्वर्णकार आदि) कुंडल आदि जो पर द्रव्य परिणामात्मक कर्म करता है, किंतु अनेक द्रव्यत्व के कारण उनसे अन्य होने से तन्मय नहीं होता; इसलिए निमित्त नैमित्तिक भावमात्र से ही वहाँ कर्तृ कर्मत्व का और भोक्ता भोक्तृत्व का व्यवहार है।
- अन्य सामान्य उदाहरण
सर्वार्थसिद्धि/3/27/223/2 किंहेतुकौ पुनरसौ। कालहेतुकौ।=ये वृद्धि ह्रास काल के निमित्त से होते हैं। ( राजवार्तिक/3/27/191/26 )
ज्ञानार्णव/24/20 शाम्यंति जंतव: क्रूरा बद्धवैरा परस्परम् । अपि स्वार्थे प्रवृत्तस्य मुने: साम्यप्रभावत:।20।=इस साम्यभाव के प्रभाव से अपने स्वार्थ में प्रवृत्त मुनि के निकट परस्पर वैर करने वाले क्रूर जीव भी साम्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं।
- षट् द्रव्यों का परस्पर उपकार्य उपकारक भाव
- निमित्त की कथंचित् गौणता
- सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते
धवला 6/1 9-6,19/164/7 कुदो। पयडिविसेसादो। ण च सव्वाइं कज्जाइं एयंतेण बज्झत्थमवेक्खिय चे उप्पज्जंति, सालिबीजादो जवंकुरस्स वि उप्पत्तिप्पसंगा। ण च तारिसाइ्ं दव्वाइं तिसु वि कालेसु कहिं पि अत्थि, जेसिं बलेण सालिबीजस्स जवंकुरप्पायणसत्ती होज्ज, अणवत्थापसंगादो।=प्रश्न—(इन सर्व कर्म प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बंध इतना इतना क्यों है। जीव परिणामों के निमित्त से इससे अधिक क्यों नहीं हो सकता) ? उत्तर–क्योंकि प्रकृति विशेष होने से सूत्रोक्त प्रकृतियों का यह स्थिति बंध होता है। सभी कार्य एकांत से बाह्य अर्थ की अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते हैं, अन्यथा शालि धान्य के बीज से जौ के भी अंकुर की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। किंतु उस प्रकार के द्रव्य तीनों ही कालों में किसी भी क्षेत्र में नहीं हैं कि जिनके बल से शालि धान्य के बीज के जौ के अंकुर को उत्पन्न करने की शक्ति हो सके। यदि ऐसा होने लगेगा तो अनवस्था दोष प्राप्त होगा।
- धर्मादि द्रव्य उपकारक हैं प्रेरक नहीं
पंचास्तिकाय/88-89 ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स। हवदिगदिस्स प्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च।88। विज्जदि जसि गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि। ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति।89।=धर्मास्तिकाय गमन नहीं करता और अन्य द्रव्य को गमन नहीं कराता। वह जीवों तथा पुद्गलों को गति का उदासीन प्रसारक (गति प्रसार में उदासीन निमित्त) है।88। जिनको गति होती है उन्हीं को स्थिति होती है। वे तो अपने-अपने परिणामों से गति और स्थिति करते हैं। (इसलिए धर्म व अधर्म द्रव्य जीव पुद्गल की गति व स्थिति में मुख्य हेतु नहीं (तत्व प्रदीपिका टीका)।
राजवार्तिक/5/7/4-6/446 निष्क्रियत्वात् गतिस्थिति-अवगाहनक्रियाहेतुत्वाभाव इति चेत्; न; बलाधानमात्रत्वादिंद्रियवत् ।4।...यथा दिदृक्षोश्चक्षुरिंद्रियं रूपोपलब्धौ बलाधानमात्रमिष्टं न तु चक्षुष: तत्सामर्थ्यम् इंद्रियांतरोपयुक्तस्य तद्भावात् ।...तथा स्वयमेव गतिस्थित्यवगाहनपर्यायपरिणामिनां जीवपुद्गलानां धर्माधर्माकाशद्रव्याणि गत्यादिनिवृत्तौ बलाधानमात्रत्वेन विवक्षितानि न तु स्वयं क्रियापरिणामीनि। कुत: पुनरेतदेवमिति चेत् । उच्यतेद्रव्यसामर्थ्यात् ।5। यथा आकाशमगच्छत् सर्वद्रव्यै: संबद्धम्, न चास्य सामर्थ्यमन्यस्यास्ति। तथा च निष्क्रियत्वेऽप्येषां गत्यादिक्रियानिवृत्तिं प्रतिबलाधानमात्रत्वमसाधारणमवसेयम् ।
राजवार्तिक/5/17/16/462/5 तयो: कर्तृत्वप्रसंग इति चेत्, न; उपकारवचनाद् यष्ट्यादिवत् ।16।... जीवपुद्गलानां स्वशक्त्यैव गच्छतां तिष्ठतां च धर्माधर्मौ उपकारकौ न प्रेरकौ इत्युक्तं भवति।... ततश्च मन्यामहे न प्रधानकर्तांरौ इति।17।=प्रश्न–क्रियावाले ही जलादि पदार्थ मछली आदि की गति और स्थिति में निमित्त देखे गये हैं, अत: निष्क्रिय धर्मा धर्मादि गति स्थिति में निमित्त कैसे हो सकते हैं? उत्तर–जैसे देखने की इच्छा करने वाले आत्मा को चक्षु इंद्रिय बलाधायक हो जाती है, इंद्रियांतर में उपयुक्त आत्मा को वह स्वयं प्रेरणा नहीं करती। उसी प्रकार स्वयं गति स्थिति और अवगाहन रूप से परिणमन करने वाले द्रव्यों की गति आदि में धर्मादि द्रव्य निमित्त हो जाते हैं, स्वयं क्रिया नहीं करते। जैसे आकाश अपनी द्रव्य सामर्थ्य से गमन न करने पर भी सभी द्रव्यों से संबद्ध है और सर्वगत कहलाता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्यों की भी गति आदि में निमित्तता समझनी चाहिए। जैसे यष्टि चलते हुए अंधे की उपकारक है उसे प्रेरणा नहीं करती उसी प्रकार धर्मादिकों को भी उपकारक कहने से उनमें प्रेरक कर्तृत्व नहीं आ सकता। इससे जाना जाता है कि ये दोनों प्रधान कर्ता नहीं हैं। ( राजवार्तिक/5/17/24/463/31 )।
गोम्मटसार जीवकांड/570/1015 य ण परिणमदि समं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं। विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेतु।570।=काल न तो स्वयं अन्य द्रव्यरूप परिणमन करता है और न अन्य को अपने रूप या किसी अन्य रूप परिणमन कराता है। नाना प्रकार के परिणामों युक्त ये द्रव्य स्वयं परिणमन कर रहे हैं, उनको काल द्रव्य स्वयं हेतु या निमित्त मात्र है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/50/11 सर्वद्रव्याणां निश्चयेन स्वयमेव परिणामं गच्छंतां शीतकाले स्वयमेवाध्ययनक्रियां कुर्वाणस्य पुरुषस्याग्निसहकारिवत् स्वयमेव भ्रमणक्रियां कुर्वाणस्य कुंभकारचक्रस्याधस्तनशिलासहकारिवद्बहिरंगनिमित्तत्वाद्वर्तनालक्षणश्च कालाणुरूपो निश्चयकालो भवति।=सर्व द्रव्यों को जो कि निश्चय से स्वयं ही परिणमन करते हैं; उनके बहिरंग निमित्त रूप होने से वर्तना लक्षण वाला यह कालाणु निश्चय काल होता है। जिस प्रकार शीतकाल में स्वयमेव अध्ययन क्रिया परिणत पुरुष के अग्नि सहकारी होती है, अथवा स्वयमेव भम्रण क्रिया करने वाले कुम्हार के चक्र को उसकी अधस्तन शिला सहकारी होती है, उसी प्रकार यह निश्चय काल द्रव्य भी, स्वयमेव परिणमने वाले द्रव्यों को बाह्य सहकारी निमित्त है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/85/142/15 )।
- अन्य भी उदासीन कारण धर्मद्रव्यवत् ही जानने
इष्टोपदेश/ मूल/35 नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति। निमित्तमात्रमन्यस्तु गतेर्धर्मास्तिकायवत् ।=जो पुरुष अज्ञानी या तत्त्वज्ञान के अयोग्य है वह गुरु आदि पर के निमित्त से विशेष ज्ञानी नहीं हो सकता। और जो विशेष ज्ञानी है, तत्त्वज्ञान की योग्यता से संपन्न है वह अज्ञानी नहीं हो सकता। अत: जिस प्रकार धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलों के गमन में उदासीन निमित्त कारण है, उसी प्रकार अन्य मनुष्य के ज्ञानी करने में गुरु आदि निमित्त कारण हैं।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/85/142/15 धर्मस्य गतिहेतुत्वे लोकप्रसिद्धदृष्टांतमाह–उदकं यथा मत्स्यानां गमनानुग्रहकरं ...भव्यानां सिद्धगते: पुण्यवत्...अथवा चतुर्गतिगमनकाले द्रव्यलिंगादिदानपूजादिकं वा बहिरंगसहकारिकारणं भवति।85।=धर्म द्रव्य के गति हेतुत्वपने में लोक प्रसिद्ध दृष्टांत कहते हैं–जैसे जल मछलियों के गमन में सहकारी है (और भी देखें धर्माधर्म - 2), अथवा जैसे भव्यों को सिद्ध गति में पुण्य सहकारी है; अथवा जैसे सर्व साधारण जीवों को चतुर्गति गमन में द्रव्य लिंग व दान पूजादि बहिरंग सहकारी कारण हैं; (अथवा जैसे शीतकाल में स्वयं अध्ययन करने वाले को अग्नि सहकारी है, अथवा जैसे भ्रमण करने वाले कुंभार के चक्र को उसकी अधस्तन शिला उदासीन कारण है ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/50/11- देखें पीछेवाला शीर्षक )–उसी प्रकार जीव पुद्गल की गति में धर्म द्रव्य सहकारी कारण है।
द्रव्यसंग्रह टीका/18/56/9 सिद्धभक्तिरूपेणेह पूर्वं सविकल्पावस्थायां सिद्धोऽपि यथा भव्यानां बहिरंगसहकारिकारणं भवति तथैव...अधर्मद्रव्यं स्थिते: सहकारिकारणं।=सिद्ध भक्ति के रूप के पहिले सविकल्पावस्था में सिद्ध भगवान् भी जैसे भव्य जीवों के लिए बहिरंग सहकारी कारण होते हैं, तैसे ही अधर्म द्रव्य जीव पुद्गलों को ठहरने में सहकारी कारण होता है।
- बिना उपादान के निमित्त कुछ न करे
धवला 1/1,1,163/403/12 मानुषोत्तरात्परतो देवस्य प्रयोगतोऽपि मनुष्याणां गमनाभावात् । न हि स्वतोऽसमर्थोऽन्यत: समर्थो भवत्यतिप्रसंगात्।=मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ देवों की प्रेरणा से भी मनुष्यों का गमन नहीं हो सकता। ऐसा न्याय भी है जो स्वत: असमर्थ होता है वह दूसरों के संबंध से भी समर्थ नहीं हो सकता।
बोधपाहुड़/60/ पृष्ठ153/14 (पं॰ जयचंद)–अपना भला बुरा अपने भावनि के अधीन है। उपादान कारण होय तो निमित्त भी सहकारी होय। अर उपादान न होय तौ निमित्त कछू न करै है। ( भावपाहुड़/2/ पं.जयचंद/पृष्ठ 159/2) (और भी देखें कारण - I.4)।
- सहकारी कारण को कारण कहना उपचार है
राजवार्तिक/ हिंदी/9/27/729 में श्लोकवार्तिक से उद्धृत—अन्य के नेत्रनि को ज्ञान का कारण सहकारी मात्र उपचार करि कहा है। परमार्थ तै ज्ञान का कारण आत्मा ही है। देखें कारण-III.2.5 में श्लोकवार्तिक।
- सहकारी कारण कार्य के प्रति प्रधान नहीं है
राजवार्तिक/1/2/14/20/18 आभ्यंतर आत्मीय: सम्यग्दर्शनपरिणाम: प्रधानम्, सति तस्मिन् बाह्यस्योपग्राहकत्वात् । अतो बाह्य आभ्यंतरस्योपग्राहक: पारार्थ्येन वर्तत इत्यप्रधानम् ।=सम्यग्दर्शन परिणाम रूप आभ्यंतर आत्मीय भाव ही तहाँ प्रधान है कर्म प्रकृति नहीं। क्योंकि उस सम्यग्दर्शन के होने पर वह तो उपग्राहक मात्र है। इसलिए बाह्य कारण आभ्यंतर का उपग्राहक होता है और परपदार्थ रूप से वर्तन करता है, इसलिए अप्रधान होता है।
- सहकारी को कारण मानना सदोष है—
समयसार / आत्मख्याति 265 न च बंधहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्यं वस्तु बंधहेतु: स्यात् ईर्यासमितिपरिणतपदव्यापाद्यमानवेगापतत्कालचोदितकुलिंगवत् बाह्यवस्तुनो बंधहेतुहेतोरबंधहेतुत्वेन बंधहेतुत्वस्यानैकांतिकत्वात् ।=यद्यपि बाह्य वस्तु बंध के कारण का (अर्थात् अध्यवसान का) कारण है, तथापि वह बंध का कारण नहीं है। क्योंकि ईर्या समिति में परिणमित मुनींद्र के चरण से मर जाने वाले किसी काल प्रेरित जीव की भाँति बाह्य वस्तु को बंध का कारणत्व मानने में अनैकांतिक हेत्वा भासत्व है। अर्थात् व्यभिचार आता है। ( श्लोकवार्तिक/2/1/6/29/373/11 )
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 801 अत्राभिप्रेतमेवैतत्स्वस्थितिकरणं स्वत:। न्यायात्कुतश्चिदत्रापि हेतुस्तत्रानवस्थिति: ।801।=इस स्वस्थिति करण के विषय में इतना ही अभिप्राय है कि स्थिति करण स्वयमेव ही होता है। यदि इसका भी न्यायानुसार कोई न कोई कारण मानेंगे तो अनवस्था दोष आता है।801।
- सहकारी कारण अहेतुवत् होता है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/351,679 मतिज्ञानादिवेलायामात्मोपादानकारणम् । देहेंद्रियास्तदर्थाश्च बाह्यं हेतुरहेतुवत् ।351। अस्त्युपादानहेतोश्च तत्क्षतिर्वा तदक्षति:। तदापि न बहिर्वस्तु स्यात्तद्धेतुरहेतुत:।679।=मति ज्ञानादि के उत्पन्न होने के समय आत्मा उपादान कारण है और देह, इंद्रिय, तथा उन इंद्रियों के विषय भूत पदार्थ केवल बाह्य हेतु हैं, अत: वे अहेतु के बराबर हैं।351। केवल अपने उपादान हेतु से ही चारित्र की क्षति अथवा चारित्र की अक्षति होती है। उस समय भी बाह्य वस्तु उस क्षति अक्षति का कारण नहीं है। और इसलिए दीक्षा देशादि देने अथवा न देनेरूप बाह्य वस्तु चारित्र की क्षति अक्षति के लिए अहेतु है।679।
- सहकारी कारण तो निमित्त मात्र होता है
सर्वार्थसिद्धि/1/20/121/3 (श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में मतिज्ञान निमित्तमात्र है।) ( राजवार्तिक/1/20/4/71/1 )
राजवार्तिक/1/2/11/20/8 (बाह्य साधन उपकरणमात्र है)
राजवार्तिक/5/7/4/446/18 (जीव पुद्गल की गति स्थिति आदि कराने में धर्म अधर्म आदि निष्क्रिय द्रव्य इंद्रियवत् बलाधान मात्र है।)
नयचक्र बृहद्/130 में उद्धृत–(सराग व वीतराग परिणामों की उत्पत्ति में बाह्य वस्तु निमित्त मात्र है।)
समयसार / आत्मख्याति/80 (जीव व पुद्गल कर्म एक दूसरे के परिणामों में निमित्त मात्र होते हैं।) ( समयसार / आत्मख्याति/91 ) ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/186 ) ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/12 ) ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/125 )।
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/67 (जीव के सुख-दुःख में इष्टानिष्ट विषय निमित्त मात्र है।)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/217 (प्रत्येक द्रव्य के निज-निज परिणाम में बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र है)
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/576 (सर्व द्रव्य अपने भावों के कर्ता भोक्ता है, पर भावों के कर्ता भोक्तापना निमित्तमात्र है।)
- निमित्त परमार्थ में अकिंचित्कर व हेय है
राजवार्तिक/1/2/13/20/15 (क्षायिक सम्यक्त्व अंतर परिणामों से ही होता है, कर्म पुद्गल रूप बाह्य वस्तु हेय है।)
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/119 (पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्म भाव रूप परिणमित होता है। तहाँ निमित्तभूत जीव द्रव्य हेयतत्त्व है।)
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/143 (जीव की सिद्ध गति उपादान कारण से ही होती है। तहाँ काल द्रव्य रूप निमित्त हेय है) ( द्रव्यसंग्रह टीका/22/67/4 )
- भिन्न कारण वास्तव में कोई कारण नहीं
श्लोकवार्तिक/2/1/6/40/394 चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचित: सदा।40। वैशेषिक व नैयायिक लोग इंद्रियों को प्रमिति का कारण मानकर उन्हें प्रमाण कहते हैं। परंतु जड़ होने के कारण वे ज्ञप्ति के लिए साधकतम करण कभी नहीं हो सकते।
समयसार / आत्मख्याति/294 आत्मबंधयोर्द्विधाकरणे कार्ये कर्तृरात्मन: करणमीमांसायां निश्चयत: स्वतो भिन्नकरणासभवाद् भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणम् ।=आत्मा और बंध के द्विधा करने रूप कार्य में कर्ता जो आत्मा उसके कारण संबंधी मीमांसा करने पर, निश्चय से अपने से भिन्न करण का अभाव होने से भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है।
समयसार / आत्मख्याति/308-311 सर्वद्रव्याणां द्रव्यांतरेण सहोत्पादकभावाभावात् ।=सर्व द्रव्यों का अन्य द्रव्य के साथ उत्पाद्य उत्पादक भाव का अभाव है।
परीक्षामुख/2/6-8 नार्थालोकौ कारण परिच्छेद्यत्वात्तमोवत्।6। तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोऽंडुक ज्ञानवन्नक्तंचरज्ञानवच्च।7। अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ।8।=अन्वय व्यतिरेक से कार्य कारण भाव जाना जाता है। इस व्यवस्था के अनुसार ‘प्रकाश’ ज्ञान में कारण नहीं है, क्योंकि उसके अभाव में भी रात्रि को विचरने वाले बिल्ली चूहे आदि को ज्ञान पैदा होता है और उसके सद्भाव में भी उल्लू वगैरह को ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार अर्थ भी ज्ञान के प्रति कारण नहीं हो सकता, क्योंकि अर्थ के अभाव में भी केश मशकादि ज्ञान उत्पन्न होता है। दीपक जिस प्रकार घटादिकों से उत्पन्न न होकर भी उन्हें प्रकाशित करता है इसी प्रकार ज्ञान भी अर्थ से उत्पन्न न होकर उन्हें प्रकाशित करता है। ( न्यायदीपिका/2/4-5/26 )
- द्रव्य के परिणमन को सर्वथा निमित्ताधीन मानना मिथ्या है
समयसार/121-123 ण सयं बद्धो कम्मे ण परिणमदि कोहमादीहिं। जइ एस तुज्झ जीवो अपरिणामी तदा होदी।121। अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहि भावेहिं। संसाररस अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।122। सांख्य मतानुसारी शिष्य के प्रति आचार्य कहते हैं कि हे भाई ! ‘यह जीव कर्म में स्वयं नहीं बँधा है और क्रोधादि भाव से स्वयं नहीं परिणमता है’ यदि तेरा यह मत है तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है और जीव स्वयं क्रोधादि भावरूप नहीं परिणमता होने से संसार का अभाव सिद्ध होता है। अथवा सांख्य मत का प्रसंग आता है।121-122। और पुद्गल कर्मरूप जो क्रोध है वह जीव को क्रोध रूप परिणमन कराता है ऐसा तू माने तो यह प्रश्न होता है कि स्वयं न परिणमते हुए को वह कैसे परिणमन करा सकता है।123।
समयसार / आत्मख्याति/332-334 एवमीदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमाना: केचिच्छ्रमणाभासा: प्ररूपयंति;तेषां प्रकृतेरेकांतेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकांतेनाकर्तृत्वापत्ते: जीव: कर्तेति श्रुते: कोपो दु:शक्य: परिहर्तुम् ।=इस प्रकार ऐसे सांख्यमत को अपनी प्रज्ञा के अपराध से सूत्र के अर्थ को न जानने वाले कुछ श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं; उनकी एकांत प्रकृति के कर्तृत्व की मान्यता से समस्त जीवों के एकांत से अकर्तृत्व आ जाता है। इसलिए ‘जीव कर्ता है’ ऐसी जो श्रुति है उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है।
समयसार / आत्मख्याति/372/ क.221 रागजन्मनि निमित्ततां पर-द्रव्यमेव कलयंति ये तु ते। उत्तरंति न हि मोहवाहिनीं, शुद्धबोधविधुरांधबुद्धय:।221।=जो राग की उत्पत्ति में परद्रव्य का ही निमित्तत्व मानते हैं, वे जिनकी बुद्धि शुद्ध ज्ञान से रहित अंध है मोह नदी को पार नहीं कर सकते।221।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/566-571 अथ संति नयाभासा यथोपचाराख्यहेतुदृष्टांता:।566। अपि भवति बंध्यबंधकभावो यदि वानयोर्न शंक्यमिति। तदनेकत्वे नियमात्तद्बंधस्य स्वतोऽप्यसिद्धत्वात् ।570। अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथ:। न यत: स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया।571।=(जीव व शरीर में परस्पर बंध्य बंधक या निमित्त नैमित्तिक भाव मानकर शरीर को व्यवहारनय से जीव का कहना नयाभास अर्थात् मिथ्या नय है, क्योंकि अनेक द्रव्य होने से उनमें वास्तव में बंध्य बंधक भाव नहीं हो सकता। निमित्त नैमित्तिक भाव भी असिद्ध है क्योंकि स्वयं परिणमन करने वाले को निमित्त से क्या प्रयोजन)
- सभी कार्य निमित्त का अनुसरण नहीं करते
- कर्म व जीवगत कारण कार्य भाव की गौणता
- जीव के भाव को निमित्त मात्र करके पुद्गल स्वयं कर्म रूप परिणमते हैं
पंचास्तिकाय/65 अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं। गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमवगाढा।65।=आत्मा अपने रागादि भाव को करता है। वहाँ रहने वाले पुद्गल अपने भावों से जीव में अन्योन्य अवगाह रूप से प्रविष्ट हुए कर्म भाव को प्राप्त होते हैं। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/186 )
समयसार/80-81 जीवपरिणामहेदुं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तदेव जीवो वि परिणमइ।80। णवि कुव्वइ कम्मगुणो जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे। अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणामं जाण दोह्णं पि।81।=पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणमित होते हैं और जीव भी पुद्गल कर्म के निमित्त से परिणमन करता है।80। जीव कर्म के गुणों को नहीं करता। उसी तरह कर्म भी जीव के गुणों को नहीं करता। परंतु परस्पर निमित्त से दोनों के परिणमन जानो।81। ( समयसार/91,119 ) ( समयसार / आत्मख्याति/105,119 ) ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/12 )
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/187 यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृत: शुभाशुभभावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारेण प्रविशंत: कर्मपुद्गला: स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यैर्ज्ञानावरणादिभावै: परिणमंते। अत: स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं न पुनरात्मकृतम् ।=(मेघ जल के संयोग से स्वत: उत्पन्न हरियाली व इंद्रगोप आदिवत्) जब यह आत्मा राग द्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभ भावरूप परिणमित होता है तब अन्य, योगद्वारों से प्रविष्ट होते हुए कर्म पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भाव रूप परिणमित होते हैं। इससे कर्मों की विचित्रता का होना स्वभावकृत है किंतु आत्मकृत नहीं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/169 जीवपरिणाममात्रं बहिरंगसाधनमाश्रित्य जीवं परिणमयितारमंतरेणापि कर्मत्वपरिणमनशक्तियोगिन: पुद्गलस्कंधा: स्वयमेव कर्मभावेन परिणमंति।=बहिरंग साधनरूप से जीव के परिणामों का आश्रय लेकर, जीव उसको परिणमाने वाला न होने पर भी, कर्मरूप परिणमित होने की शक्तिवाले पुद्गलस्कंध स्वयमेव कर्मभाव से परिणमित होते हैं। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/65-66 ), ( समयसार / आत्मख्याति/91 )
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/297 सति तत्रोदये सिद्धा: स्वतो नोकर्मवर्गणा:। मनो देहेंद्रियाकारं जायते तन्निमित्तत:।297।=उस पर्याप्ति नामकर्म का उदय होने पर स्वयंसिद्ध आहारादि नोकर्मवर्गणाएँ उसके निमित्त से मन देह और इंद्रियों के आकार रूप हो जाती हैं।
- 11 वें गुणस्थान में अनुभागोदय में हानिवृद्धि रहते हुए भी जीव के परिणाम अवस्थित रहते हैं
लब्धिसार/ जीव तत्त्वप्रदीपिका/307/389 अत: कारणादवस्थितविशुद्धिपरिणामेऽप्युपशांतकषाये एतच्चतुस्त्रिंशत्प्रकृतीनां अनुभागोदयस्त्रिस्थानसंभवी भवति, कदाचिद्धीयते, कदाचिद्वर्धते, कदाचिद्धानिवृद्धिभ्यां विना एकादृश एवावतिष्ठते।= (यद्यपि तहाँ परिणामों की अवस्थिति के कारण शरीर वर्ण आदि 25 प्रकृतियें भी अवस्थित रहती हैं परंतु) अब शेष ज्ञानावरणादि 34 प्रकृतियें भव प्रत्यय हैं। उपशांत कषाय गुणस्थान के अवस्थित परिणामों की अपेक्षा रहित पर्याय का ही आश्रय करके इनका अनुभाग उदय इहाँ तीन अवस्था लिए है। कदाचित् हानिरूप हो है, कदाचित् वृद्धिरूप हो है, कदाचित् अवस्थित जैसा का तैसा रहे है।
- जीव व कर्म में बध्य घातक विरोध नहीं है
योगसार/अध्याय/9/49 न कर्म हंति जीवस्य न जीव: कर्मणो गुणान् । बध्यघातकभावोऽस्ति नान्योन्यं जीवकर्मणो:।=न तो कर्म जीव के गुणों का घात करता है और न जीव कर्म के गुणों का घात करता है। इसलिए जीव और कर्म का आपस में बध्य घातक संबंध नहीं है।
- जीव व कर्म में कारण कार्य मानना उपचार है
धवला 6/1/9,1-8/11/5 मुह्यत इति मोहनीयम् । एवं संते जीवस्स मोहणीयत्तं पसज्जदि त्ति णासंकणिज्जं, जीवादो अभिणम्हि पोग्गलदव्वे कम्मसण्णिदे उवयारेण कत्तारत्तमारोविय तथा उत्तीदो।=जो मोहित होता है वह मोहनीय कर्म है। प्रश्न–इस प्रकार की व्युत्पत्ति करने पर जीव के मोहनीयत्व प्राप्त होता है ? उत्तर–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए;क्योंकि, जीव से अभिन्न और कर्म ऐसी संज्ञा वाले पुद्गल कर्म में उपचार से कर्मत्व का आरोपण करके उस प्रकार की व्युत्पत्ति की गयी है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/121-122 तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद्द्रव्यकर्मकर्ताप्युपचारात् ।121। परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण एव कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण:।... परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता, न त्वात्मात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण:।122।=आत्मा भी अपने परिणाम का कर्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचार से है।121। परमार्थत: आत्मा अपने परिणाम स्वरूप भावकर्म का ही कर्ता है किंतु पुद्गल परिणाम स्वरूप द्रव्यकर्म का नहीं।... (इसी प्रकार) परमार्थत: पुद्गल अपने परिणाम स्वरूप उस द्रव्यकर्म का ही कर्ता है किंतु आत्मा के परिणाम स्वरूप भाव कर्म का कर्ता नहीं है।122। ( समयसार/105 )
- ज्ञानियों का कर्म अकिंचित्कर है
समयसार/169 पुढवीपिंडसमाणा पुव्वणिबद्धा दु पच्चया तस्स। कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सव्वे वि णाणिस्स।169। =उस ज्ञानी के पूर्वबद्ध समस्त प्रत्यय मिट्टी के ढेले के समान हैं और वे कार्मण शरीर के साथ बँधे हुए हैं। (विशेष देखें विभाव - 4.2)
आप्तमीमांसा अनु/162-163 निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवितम् । किं करोति विधिस्तेषां सतां ज्ञानैकचक्षुषाम् ।162। जीविताशा धनाशा च तेषां येषां विधिर्विधि:। किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता।163।=निर्धनत्व ही जिनका धन है और मृत्यु ही जिनका जीवन है (अर्थात् इनमें साम्यभाव रखते हैं) ऐसे साधुओं को एक मात्र ज्ञान चक्षु खुल जाने पर यह दैव या कर्म क्या कर सकता है।162। जिनको जीने की या धन की आशा है उनके लिए ही ‘दैव’ दैव है, पर निराशा ही जिनकी आशा है ऐसे वीतरागियों को यह दैव या कर्म क्या कर सकता है।163।
- मोक्षमार्ग में आत्म परिणामों की विवक्षा प्रधान है कर्मों की नहीं
राजवार्तिक/1/2/10-1/20/3 औपशमिकादिसम्यग्दर्शनमात्मपरिणामत्वात् मोक्षकारणत्वेन विवक्ष्यते न च सम्यक्त्वकर्मपर्याय: पौद्गलिकत्वेऽस्य परपर्यायत्वात् ।10।...स्यादेतत्...सम्यग्दर्शनोत्पाद आत्मनिमित्त: सम्यक्त्वपुद्गलनिमित्तश्च, तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुपपद्यते इति; तन्न, किं कारणम् । उपकरणमात्रत्वात् ।=औपशमिकादि सम्यग्दर्शन सीधे आत्मपरिणाम स्वरूप होने से मोक्ष के कारण रूप से विवक्षित होते हैं, सम्यक्त्व नाम कर्म की पर्याय नहीं क्योंकि परद्रव्य की पर्याय होने के कारण वह तो पौद्गलिक है। प्रश्न–सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति जिस प्रकार आत्म परिणाम से होती है, उसी प्रकार सम्यक्त्वनामा कर्म के निमित्त से भी होती है, अत: उसको भी मोक्ष कारणपना प्राप्त होता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि वह तो उपकरणमात्र है।
- कर्मों की उपशम क्षय व उदय आदि अवस्थाएँ भी कथंचित् अयत्न साध्य हैं
सर्वार्थसिद्धि/2/3/152/10 अनादिमिथ्यादृष्टेर्भव्यस्य कर्मोदयापादितकालुष्ये सति कुतस्तदुपशम:। काललब्ध्यादिनिमित्तत्वात् । तत्र काललब्धिस्तावत् ...। ‘आदि’ शब्देन जातिस्मरणादि: परिगृह्यते। =प्रश्न–अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मों के उदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इनका उपशम कैसे होता है ? उत्तर–काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है। अब यहाँ काललब्धि को बताते हैं (देखें नियति - 2)। आदि शब्द से जातिस्मरण आदि का ग्रहण करना चाहिए (देखें सम्यग्दर्शन - III.2)।
सर्वार्थसिद्धि/10/2/466/5 कर्माभावो द्विविध:–यत्नसाध्योऽयत्नसाध्यश्चेति। तत्र चरमदेहस्य नारकतिर्यग्देवायुषामभावो न यत्नसाध्य: असत्त्वात् । यत्नसाध्य इत ऊर्ध्वमुच्यते। असंयतसम्यग्दृष्टयादिषु सप्तप्रकृतिक्षय: क्रियते।=कर्म का अभाव दो प्रकार का है–यत्नसाध्य और अयत्नसाध्य। इनमें से चरम देह वाले के नरकायु तिर्यंचायु और देवायु का अभाव यत्नसाध्य नहीं है, क्योंकि इसके उनका सत्त्व उपलब्ध नहीं होता। यत्न साध्य का अभाव इनसे आगे कहते हैं-असंयत दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में सात प्रकृतियों का क्षय करता है। (आगे भी 10वें गुणस्थान में यथायोग्य कर्मों का क्षय करता है (देखें सत्त्व )।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/379,932,926 प्रयत्नमंतरेणापि दृङ्मोहोपशमो भवेत् । अंतर्मुहूर्तमात्रं च गुणश्रेण्यनतिक्रमात् ।379। तस्मात्सिद्धोऽस्ति सिद्धांतो दृङ्मोहस्येतरस्य वा। उदयोऽनुदयो वाथ स्यादनन्यगति: स्वत:।932। अस्त्युदयो यथानादे: स्वतश्चोपशमस्तथा। उदय: प्रथमो भूय: स्यादर्वागपुनर्भवात् ।926।= उक्त कारण सामग्री के मिलते ही (अर्थात् दैव व कालादि लब्धि मिलते ही) प्रयत्न के बिना भी गुणश्रेणी निर्जरा के अनुसार केवल अंतर्मुहूर्त काल में ही दर्शन मोहनीय का उपशम हो जाता है।379। इसलिए यह सिद्धांत सिद्ध होता है कि दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय इन दोनों के उदय अथवा अनुदय ये दोनों ही अपने आप होते हैं, एक दूसरे के निमित्त से नहीं।932। जिस तरह अनादिकाल से स्वयं मोहनीय का उदय होता है उसी तरह उपशम भी काल लब्धि के निमित्त से स्वयं होता है। इस तरह मुक्ति होने के पहले उदय और उपशम बार-बार होते रहते हैं।
- जीव के भाव को निमित्त मात्र करके पुद्गल स्वयं कर्म रूप परिणमते हैं
- निमित्त की कथंचित् प्रधानता
- निमित्त नैमित्तिक संबंध भी वस्तुभूत है
आप्तमीमांसा/24 अद्वैतैकांतपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते। कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात् प्रजायते।24।=अद्वैत एकांतपक्ष होनेतै (अर्थात् जगत् एक ब्रह्म के अतिरिक्त कोई नहीं है, ऐसा मानने से) कर्ता कर्म आदि कारकनि के बहुरि क्रियानि के भेद जो प्रत्यक्ष प्रमाण करि सिद्ध है सो विरोधरूप होय है। बहुरि सर्वथा यदि एक ही रूप होय तौ आप ही कर्ता आप ही कर्म होय। अर आप ही तै आपकी उत्पत्ति नाहीं होय। (और भी देखें कारण-III.1.4), (अष्टसहस्री पृष्ठ 149,159) ( स्याद्वादमंजरी/16/197/171 )
श्लोकवार्तिक 2/1/7/13/565/1 तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठ: संबंध: संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपित।=व्यवहार नय का आश्रय लेने पर संयोग समवाय संबंधों के समान दो में ठहरने वाला कारण कार्य भाव संबंध भी प्रतीतियों से सिद्ध होने के कारण वस्तुभूत ही है केवल कल्पना आरोपित ही नहीं है।
- कारण के बिना कार्य नहीं होता
राजवार्तिक/10/2/1/640/27 मिथ्यादर्शनादीनां पूर्वोक्तानां कर्मास्रवहेतूनां निरोधे कारणाभावात् कार्याभाव इत्यभिनवकर्मादानाभाव:।=मिथ्या दर्शन आदि पूर्वोक्त आस्रव के हेतुओं का निरोध हो जाने पर नूतन कर्मों का आना रुक जाता है? क्योंकि कारण के अभाव से कार्य का अभाव होता है।
धवला 1/1,1,63/306/9 अप्रमत्तादीनां संयतानां किमित्याहारककाययोगी न भवेदिति चेन्न, तत्र तदुत्थापने निमित्ताभावात् ।=प्रश्न–प्रमाद रहित संयतों के आहारक काय योग क्यों नहीं होता है? उत्तर–क्योंकि तहाँ उसे उत्पन्न कराने में निमित्त कारण का (असंयम की बहुलता का) अभाव है।
धवला 12/4,2,13,17/382 ।2 ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जदि अइप्पसंगादो।=कारण के बिना कहीं भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है; क्योंकि, वैसा होने में अतिप्रसंग दोष आता है। (उत्कृष्ट संक्लेश से उत्कृष्ट प्रदेश बंध होने का प्रकरण है)।
धवला 6/1,9-9/6,7/421/3 णेरइया मिच्छाइट्ठी कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तुमुप्पदेंति। मूलसूत्र 6/ उप्पज्जमाणं सव्वं हि कज्जं कारणादो चेव उप्पज्जदि, कारणेण विणा कज्जुप्पत्तिविरोहादो। एवं णिच्छिदकारणस्स तस्संखाविसयमिदं पुच्छासुत्तं।=नारकी मिथ्यादृष्टि जीव कितने कारणों से प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं। सूत्र 6।। उत्पन्न होने वाला सभी कार्य कारण से ही उत्पन्न होता है क्योंकि कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति का विरोध है। इस प्रकार निश्चित कारण की संख्या विषयक यह पृच्छा सूत्र है।
धवला 6/1,9-9,30/430/9 णइसग्गिमवि पढमसम्मत्तं तच्चट्ठे उत्तं, तं हि एत्थेव दट्ठव्वं, जाइस्सरण-जिणबिंबदंसणेहिं विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो।=नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व का भी पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न हुए सम्यक्त्व में ही अंतर्भाव कर लेना चाहिए, क्योंकि जाति-स्मरण और जिनबिंब दर्शनों के बिना उत्पन्न होने वाला प्रथम नैसर्गिक सम्यक्त्व असंभव है। (सम्यक्त्व के कारणों के लिए देखें सम्यग्दर्शन - III.2)
धवला 7/2,1,18/70/9 ण च कारणेण बिणा कज्जाणामुप्पत्ती अत्थि।...तदो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि बि अत्थि त्ति णिच्छओ कायव्वो।=कारण के बिना तो कार्यों की उत्पत्ति होती नहीं। इसलिए जितने कार्य हैं उतने उनके कारण रूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए।
धवला 9/4,1,44/117/6 ण च णिक्कारणाणि, कारणेण बिणा कज्जाणमुप्पत्तिविरोहादो।...ण च कारणविरोहीण तक्कज्जेहिविरोहो जुज्जदे कारणविरोहादुवारेणेव सव्वत्थ कज्जेसु विरोहुवलंभादो। =यदि कहा जाय कि जन्म जरादिक अकारण हैं, सो भी ठीक नहीं है;क्योंकि, कारण के बिना कार्यों की उत्पत्ति का विरोध है जो कारण के साथ अविरोधी हैं उनका उक्त कारण के कार्यों के साथ विरोध उचित नहीं है;क्योंकि, कारण के विरोध के द्वारा ही सर्वत्र कार्यों में विरोध पाया जाता है।
स्याद्वादमंजरी/16/197/17 द्विष्ठसंबंधसंवित्तिर्नैकरूपप्रवेदनात् । द्वयो: स्वरूपग्रहणे सति संबंधवेदनम्। इति वचनात् ।=दो वस्तुओं के संबंध में रहने वाला ज्ञान दोनों वस्तुओं के ज्ञान होने पर ही हो सकता है। यदि दोनों में से एक वस्तु रहे तो उस संबंध का ज्ञान नहीं होता।
न्यायदीपिका/2/4/27 न हि किंचित्स्वस्मादेव जायते।=कोई भी वस्तु अपने से ही पैदा नहीं होती, किंतु अपने से भिन्न कारणों से पैदा होती है।
देखें नय - V.9.5 उपादान होते हुए भी निमित्त के बिना मुक्ति नहीं।
- उचित निमित्त के सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/92 द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसंनिधिसद्भावे... उत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते।=जिसने पूर्वावस्था को प्राप्त किया है, ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता है, वह उत्पाद से लक्षित होता है। ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/102,124 )।
- उपादान की योग्यता के सद्भाव में भी निमित्त के बिना कार्य नहीं होता
धवला/1/1,1,33/233/2 सर्वजीवावयवेषु क्षयोपशमस्योत्पत्त्यभ्युपगमात् । न सर्वावयवै: रूपाद्युपलब्धिरपि तत्सहकारिकारणबाह्यनिवृत्तेरशेषजीवावयवव्यापित्वाभावात् ।=जीव के संपूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार है। (यद्यपि यह क्षयोपशम ही जीव की ज्ञान के प्रति उपादानभूत योग्यता है, देखें कारण (I/18) परंतु ऐसा मान लेनेपर भी जीव के संपूर्ण प्रदेशों के द्वारा रूपादि की उपलब्धि का प्रसंग भी नहीं आता है;क्योंकि, रूपादिक के ग्रहण करने में सहकारी कारणरूप बाह्यनिर्वृत्ति (इंद्रिय) जीव के संपूर्ण प्रदेशों में नहीं पायी जाती है।
- निमित्त के बिना केवल उपादान व्यावहारिक कार्य करने को समर्थ नहीं है
स्वयंभू स्तोत्र/ मू./59 यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेर्निमित्तमभ्यंतरमूलहेतो:। अध्यात्मवृत्तस्य तदंगभूतमभ्यंतरं केवलमप्यलं न।51।=जो बाह्य वस्तु गुण दोष या पुण्य-पाप की उत्पत्ति का निमित्त होती है वह अंतरंग में वर्तनेवाले गुणदोषों की उत्पत्ति के अभ्यंतर मूल हेतु की अंगभूत होती है। (अर्थात् उपादान को सहकारी कारणभूत होती है)। उसकी अपेक्षा न करके केवल अभ्यंतर कारण उस गुणदोष की उत्पत्ति में समर्थ नहीं है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1070/1159/4 बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृतं रागद्वेषयोर्बीजं, तस्मिन्नसति सहकारिकारणे न च कर्ममात्राद्रागद्वेषवृत्तिर्यथा सत्यपि मृत्पिंडे दंडाद्यनंतरकरणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति मन्यते।=मन से विचारकर जब जीव बाह्य परिग्रह का स्वीकार करता है तब रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। यदि सहकारीकारण न होगा तो केवल कर्ममात्र से रागद्वेष उत्पन्न होते नहीं। यद्यपि मृत्पिंड से घट उत्पन्न होता है तथापि दंडादिक कारण नहीं होंगे तो घट की उत्पत्ति नहीं होती है।
धवला 1/1,1,60/298/1 यतो नाहारर्द्धिरात्मनमपेक्ष्योत्पद्यते स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । अपि तु संयमातिशयापेक्षया तस्या: समुत्पत्तिरिति।=आहारक ऋद्धि स्वत: की अपेक्षा करके उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि स्वत: से स्वत: की उत्पत्तिरूप क्रिया के होने में विरोध आता है। किंतु संयमातिशय की अपेक्षा आहारक ऋद्धि की उत्पत्ति होती है।
कषायपाहुड़ 1/1,13-14/256/295/4 ण च अण्णादो अण्णम्मि कोहो ण उप्पज्जइ; अक्कोसादो जीवेकम्मकलंकंकिए कोहुप्पत्तिदंसणादो। ण च उबलद्धे अणुववण्णदा; विरोहादो। ण कज्जं तिरोहियं संतं आविब्भावमुवणमइ; पिंडवियारणे घडोवलद्धिप्पसंगादो। ण च णिच्चं तिरोहिज्जइ; अणाहियअइसयभावादो। ण तस्स आविब्भावो वि; परिणामवज्जियस्स अवत्थंतराभावादो। ण गद्दहस्स सिंगं अण्णेहिंतो उप्पज्जइ; तस्स विसेसेणेव सामण्णसरूवेण वि पुव्वमभावादो। ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति-अणुप्पत्तिप्पसंगादो। णाणुप्पत्ती सव्वाभावप्पसंगादो। ण चेव (वं); उवलब्भमाणत्तादो। ण सव्वकालमुप्पत्ती वि; णिच्चस्सुप्पत्तिविरोहादो। ण णिच्चं पि; कमाकमेहि कज्जमकुणंतस्स पमाणविसए अवट्ठाणाणुववत्तीदो। तम्हा ण्णेहिंतो अण्णस्स सारिच्छ-तब्भावसामण्णेहि संतस्स विसेससरूवेण असंतस्स कज्जस्सुप्पत्तीए होदव्वमिदि सिद्धं।=‘किसी अन्य के निमित्त से किसी अन्य में क्रोध उत्पन्न नहीं होता है’ यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि 1. कर्मों से कलंकित हुए जीव में कटुवचन के निमित्त से क्रोध की उत्पत्ति देखी जाती है। और जो बात पायी जाती है उसके संबंध में यह कहना कि यह बात नहीं बन सकती, ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कहने में विरोध आता है। 2. यदि कार्य को सर्वथा नित्य मान लिया जावे तो वह तिरोहित नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वथा नित्य पदार्थ में किसी प्रकार का अतिशय नहीं हो सकता है। तथा नित्य पदार्थ का आविर्भाव भी नहीं बन सकता, क्योंकि जो परिणमन से रहित है, उसमें दूसरी अवस्था नहीं हो सकती है। 3. ‘कारण में कार्य छिपा रहता है और वह प्रगट हो जाता है’ ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर मिट्टी के पिंड को विदारने पर घड़े की उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। 4. ‘अन्य कारणों से गधे के सींग की उत्पत्ति का प्रसंग देना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसका पहिले से ही जिस प्रकार विशेष रूप से अभाव है उसी प्रकार सामान्य रूप से भी अभाव है। इस प्रकार जब वह सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार से असत् है तो उसकी उत्पत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। 5. तथा कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति अथवा अनुपत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। 6. ‘यदि कहा जाये कि कार्य की उत्पत्ति मत होओ’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि (सर्वदा) कार्य की अनुत्पत्ति मानने पर सभी के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। 7. ‘यदि कहा जाये कि सभी का अभाव होता है तो हो जाओ’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सभी पदार्थों की उपलब्धि पायी जाती है। 8. यदि (दूसरे पक्ष में) यह कहा जाये कि सर्वदा सबकी उत्पत्ति होती ही रहे’ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो पदार्थ क्रम से अथवा युगपत् कार्य को नहीं करता है वह पदार्थ प्रमाण का विषय नहीं होता है। इसलिए जो सादृश्यसामान्य और तद्भाव सामान्य रूप से विद्यमान है तथा विशेष (पर्याय) रूप से अविद्यमान है ऐसे किसी भी कार्य की, किसी दूसरे कारण से उत्पत्ति होती है यह सिद्ध हुआ।
- निमित्त के बिना कार्योत्पत्ति मानने में दोष
कषायपाहुड़ 1/1,13/256/295/9 ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जइ; सव्वकालं सव्वस्स उप्पत्ति–अणुप्पत्तिप्पसंगादो।=कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति मानना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होने लगे तो सर्वदा सभी कार्यों की उत्पत्ति अथवा अनुत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है।
परीक्षामुख/6/63 समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ।=यदि पदार्थ स्वयं समर्थ होकर क्रिया करते हैं तो सदा कार्य की उत्पत्ति होनी चाहिए, क्योंकि, केवल सामान्य आदि कार्य करने में किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते।
- सभी निमित्त धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं होते
पंचास्तिकाय.कार्तिकेयानुप्रेक्षा/तत्व प्रदीपिका/88 यथा हि गतिपरिणत: प्रभंजनो वैजयंतीनां गतिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथा धर्म:। स खलु निष्क्रियत्वात् न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते। कुतोऽस्य सहकारित्वेन गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम् ।...अपि च यथा गतिपूर्वस्थितिपरिणतिपरिणतस्तुरंगोऽश्ववारस्य स्थितिपरिणामस्य हेतुकर्तावलोक्यते न तथाधर्म:। स खलु निष्क्रियत्वात्... उदासीन एवासौ प्रसरो भवतीति।=जिस प्रकार गति परिणत पवन ध्वजाओं के गति परिणाम का हेतु कर्ता (प्रेरक) दिखाई देता है, उसी प्रकार धर्म नहीं है। वह वास्तव में निष्क्रिय होने से कभी गति परिणाम को ही प्राप्त नहीं होता; तो फिर उसे (पर के) सहकारी की भाँति पर के गति परिणाम का हेतु कर्तृत्व कहाँ से होगा ? किंतु केवल उदासीन ही प्रसारक है। और जिस प्रकार गतिपूर्वक स्थिति परिणत अश्व सवार के स्थिति परिणाम का हेतु कर्ता (प्रेरक) दिखाई देता है उसी प्रकार अधर्म नहीं है।... वह तो केवल उदासीन ही प्रसारक है। (तात्पर्य यह कि सभी कारण धर्मास्तिकायवत् उदासीन नहीं है। निष्क्रिय कारण उदासीन होता है और क्रियावान् प्रेरक होता है)।
- निमित्त नैमित्तिक संबंध भी वस्तुभूत है
- कर्म व जीवगत कारण कार्य भाव की कथंचित् प्रधानता
- जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध का निर्देश
मूलाचार/967 जीवपरिणामहेदू कम्मत्तण पोग्गला परिणमंति। ण दु णाणपरिणदो पुण जीवो कम्मं समादियदि।=जिनको जीव के परिणाम कारण हैं ऐसे रूपादिमान परमाणु कर्मस्व रूप से परिणमते हैं, परंतु ज्ञानभावकरि परिणत हुआ जीव कर्मभावकरि पुद्गलों को नहीं ग्रहण करता।
समयसार/80 जीवपरिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ।80।=पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणत होते हैं और जीव भी पुद्गल कर्म के निमित्त से परिणमन करता है। ( समयसार/312-313 ), ( पंचास्तिकाय/60 ), ( नयचक्र बृहद्/83 ), ( योगसार (अमितगति)/3/9-10 )। पंचास्तिकाय/128-130 जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदु परिणामो। परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी।128। गदिमधिगस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते। तेहिं कु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा।129। जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिणिधणा सणिधणो वा।130।=जो वास्तव में संसार-स्थित जीव हैं उससे परिणाम होता है, परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में गमन होता है।128। गतिप्राप्त को देह होती है, देह से इंद्रियाँ होती हैं, इंद्रियों से विषय ग्रहण और विषय ग्रहण से राग अथवा द्वेष होता है।129। ऐसे भाव संसार चक्र में जीव को अनादि अनंत अथवा अनादि सांत होते रहते हैं, ऐसा जिनवरों ने कहा है।130। ( नयचक्र बृहद्/131-133 ); (योगसार/अमितगति/4/29,31 तथा 2/33); ( तत्त्वानुशासन/16-19 ); ( सागार धर्मामृत/6/31 )
और भी देखो–प्रकृतिबंध-1.6 में परिणाम प्रत्यय प्रकृतियों के लक्षण व भेद।
पंचाध्यायी x`/ इ/41,1071 जीवस्याशुद्धरागादिभावानां कर्मकारणम् । कर्मणस्तस्य रागादिभावा: प्रत्युपकारिवत् ।41। अस्ति सिद्धं ततोऽन्योन्यं जीवपुद्गलकर्मणो:। निमित्तनैमित्तिको भावो यथा कुंभकुलालयो:।1071।=परस्पर उपकार की तरह जीव के अशुद्ध रागादि भावों का कारण द्रव्यकर्म है और उस द्रव्यकर्म के कारण रागादि भाव है।41। इसलिए जिस प्रकार कुंभ और कुंभार में निमित्त नैमित्तिक भाव है उसी प्रकार जीव और पुद्गलात्मक कर्म में परस्पर निमित्त नैमित्तिकभाव है यह सिद्ध होता है।1071। ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/109;131-132;1069-1070 ) - जीव व कर्मों की विचित्रता परस्पर सापेक्ष है
धवला 7/2,1,19/70/9 ण च कारणेण विणा कज्जाणमुप्पत्ती अत्थि।... ततो कज्जमेत्ताणि चेव कम्माणि वि अत्थि त्ति णिच्छओ कायव्वो। जदि एवं तो भमर-महुवर...कयंबादि सण्णिदेहि वि णामकम्मेहि होदव्वमिदि। ण एस दोसो इच्छिज्जमाणादो।=कारण के बिना तो कार्यों की उत्पत्ति होती नहीं है। इसलिए जितने (पृथिवी, अप्, तेज आदि) कार्य हैं उतने उनके कारण रूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए। प्रश्न–यदि ऐसा है तो भ्रमर, मधुकर-कदंब आदिक नामों वाले भी नाम कर्म होने चाहिए ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यह बात तो इष्ट ही है।
धवला 10/4,2,3,1/13/7 जा सा णोआगमदव्वकम्मवेयणा सा अट्ठविहा...। कुदो। अट्ठविहस्स दिस्समाणस्स अण्णाणादंसण...वीरियादिअंतरायकज्जस्स अण्णहाणुववत्तीदो। ण च कारणभेदेण विणा कज्जभेदो अत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो।=जो वह नोआगम द्रव्यकर्म वेदना कही है, वह ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि के भेद से आठ प्रकार की है। क्योंकि ऐसा नहीं मानने पर अज्ञान अदर्शन...एवं वीर्यादि के अंतराय रूप आठ प्रकार का कार्य जो दिखाई देता है वह नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि यह आठ प्रकार का कार्य भेद कारण भेद के बिना भी बन जायेगा, सो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्र ऐसा पाया नहीं जाता। कषायपाहुड़ 1/1,1/37/56/4 एदस्स पमाणस्स वडि्ढहाणितरतमभावो ण ताव णिक्कारणो; वडि्ढहाण्णिहि विणा एगसरूवेणावट्ठाणप्पसंगादो।
ण च एवं तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्वांजंतं वड्ढि हाणि तरतमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्धं।=इस ज्ञान प्रमाण का वृद्धि और हानि के द्वारा जो तरतम भाव होता है, वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योंकि ज्ञान प्रमाण में वृद्धि और हानि से होने वाले तरतम भाव को निष्कारण मान लेने पर वृद्धि और हानि रूप कार्य का ही अभाव हो जाता है। और ऐसी स्थिति में ज्ञान के एकरूप से रहने का प्रसंग प्राप्त होता है। परंतु ऐसा नहीं है, क्योंकि एकरूप ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है। इसलिए ये तरतमता सकारण होनी चाहिए। उसमें जो हानि वृद्धि के तरतम भाव का कारण है वह आवरण कर्म है।
कषायपाहुड़ 4/3,22/29/15/9 एगट्ठिदिबंधकालो सव्वेसिं जीवाणं समाणपरिणामो किण्ण होदि। ण, अंतरंगकारणभेदेण सरिसत्ताणुववत्तीदो। एगजीवस्स सव्वकालमेगपमाणद्धाएट्ठिदिबंधो किण्ण होदि। ण, अंतरंगकारणेसु दव्वादिसंबंधेण परियत्तमाणस्स एगम्मि चेव अंतरंगकारणे सव्वकालमवट्ठाणाभावादो।=प्रश्न–सब जीवों के एक स्थितिबंध का काल समान परिणाम वाला क्यों नहीं होता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि अंतरंग कारण में भेद होने से उसमें समानता नहीं बन सकती। प्रश्न–एक ही जीव के सर्वदा स्थिति बंध एक समान काल वाला क्यों नहीं होता है? उत्तर–नहीं; क्योंकि, यह जीव अंतरंग कारणों में द्रव्यादि के संबंध से परिवर्तन करता रहता है, अत: उसका एक ही अंतरंग कारण में सर्वदा अवस्थान नहीं पाया जाता है।
कषायपाहुड़ 4/1,22/44/24/5 सो केण जणिदो। अणंताणुबंधीणमुदएण। अणंताणुबंधीणमुदओ कुदो जायदे। परिणामपचएण।=प्रश्न–वह (सासादन परिणाम) किस कारण से उत्पन्न होता है? उत्तर–अनंतानुबंधी चतुष्क के उदय से होता है। प्रश्न–अनंतानुबंधी चतुष्क का उदय किस कारण से होता है? उत्तर–परिणाम विशेष के कारण से होता है।
- जीव की अवस्थाओं में कर्म मूल हेतु है
राजवार्तिक/5/24/9/488 ।21 तादात्मनोऽस्वतंत्रीकरणे मूलकारणम् ।=वह (कर्म) आत्मा को परतंत्र करने में मूलकारण है।
राजवार्तिक/1/3/6/23/16 लोके हरिशार्दूलवृकभुजगादयो निसर्गत: क्रौर्यशौर्याहारादिसंप्रतिपत्तौ वर्तंते इत्युच्यंते न चासावाकस्मिकी कर्मनिमित्तत्वात् ।=लोक में भी शेर, भेड़िया, चीता, साँप आदि में शूरता-क्रूरता आहार आदि परोपदेश के बिना होने से यद्यपि नैसर्गिक कहलाते हैं; परंतु वे आकस्मिक नहीं हैं, क्योंकि कर्मोदय के निमित्त से उत्पन्न होते हैं।
देखें विभाव - 3.1 (जीव की रागादिरूप परिणति में कर्म ही मूल कारण है)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/ सु./319 ण य को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं। उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि।319।=न तो कोई देवी देवता आदि जीव को लक्ष्मी देता है और न कोई उसका उपकार करता है। शुभाशुभ कर्म ही जीव का उपकार या अपकार करते हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/201 स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदय:।=अपने-अपने ज्ञान के घात में अपने-अपने आवरण का उदय वास्तव में मूल कारण है।
- कर्म की बलवत्ता के उदाहरण
समयसार/161-163 (सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र के प्रतिबंधक क्रम से मिथ्यात्व, अज्ञान व कषाय नाम के कर्म हैं।)
भगवती आराधना/1610 असाता के उदय में औषधियें भी सामर्थ्यहीन हैं।
सर्वार्थसिद्धि/1/20/101/2 प्रबल श्रुतावरण के उदय से श्रुतज्ञान का अभाव हो जाता है।
परमात्मप्रकाश/ मू./1/66,78 इस पंगु आत्मा को कर्म ही तीनों लोकों में भ्रमण कराता है।66। कर्म बलवान हैं, बहुत हैं, विनाश करने को अशक्य हैं, चिकने हैं, भारी हैं और वज्र के समान हैं।78।
राजवार्तिक/1/15/13/61/15 चक्षुदर्शनावरण और वीर्यांतराय के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के अवष्टंभ (बल) से चक्षुदर्शन की शक्ति उत्पन्न होती है।
राजवार्तिक/5/24/9/488/21 सुख-दुःख की उत्पत्ति में कर्म बलवान हेतु हैं।
आप्तपरीक्षा/114-115/246-247 कर्म जीव को परतंत्र करने वाले हैं। ( राजवार्तिक/5/24/9/488/20 ) ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/244/508/2 )
धवला 1/1,1,33/234/3 कर्मों की विचित्रता से ही जीव प्रदेशों के संघटन का विच्छेद व बंधन होता है।
धवला 1/1,1,33/242/8 नाम कर्मोदय की वशवर्तिता से इंद्रियाँ उत्पन्न होती हैं।
समयसार / आत्मख्याति/157-159 कर्म मोक्ष के हेतु का तिरोधान करने वाला है।
समयसार / आत्मख्याति/2,4,31,32, क 3 इत्यादि (इन सर्व स्थलों पर आचार्य ने मोहकर्म की बलवत्ता प्रगट की है)
समयसार / आत्मख्याति/89 जीव के लिए कर्म संयोग ऐसा ही है जैसा स्फटिक के लिए तमालपत्र।
तत्त्वसार/8/33 ऊर्ध्व गमन के अतिरिक्त अन्यत्र गमनरूप क्रिया कर्म के प्रतिघात से तथा निज प्रयोग से समझनी चाहिए।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/211 कर्म की कोई ऐसी शक्ति है कि इससे जीव का केवलज्ञान स्वभाव नष्ट हो जाता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/14/44/10 जीव प्रदेशों का विस्तार कर्माधीन है, स्वाभाविक नहीं।
स्याद्वादमंजरी/17/238/6 स्व ज्ञानावरण के क्षयोपशमविशेष के वश से ज्ञान की निश्चित पदार्थों में प्रवृत्ति होती है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/105,328,687,874,925 जीव विभाव में कर्म की सामर्थ्य ही कारण है।105। आत्मा की शक्ति की बाधक कर्म की शक्ति है।328। मिथ्यात्व कर्म ही सम्यक्त्व का प्रत्यनीक (बाधक) है।687। दर्शनमोह के उपशमादि होने पर ही सम्यक्त्व होता है और नहीं होने पर नहीं ही होता है।874। कर्म की शक्ति अचिंत्य है।925।
समयसार/317/ क 198/पं. जयचंद–जहाँ तक जीव की निर्बलता है तहाँ तक कर्म का जोर चलता है।
समयसार/172/ क116/पं. जयचंद–रागादि परिणाम अबुद्धिपूर्वक भी कर्म की बलवत्ता से होते हैं।
–देखें विभाव - 3.1–(कर्म जीव का पराभव करते हैं)
- जीव की एक अवस्था में अनेक कर्म निमित्त होते हैं
राजवार्तिक/1/15/13/61/15 इस चक्षुषा चक्षुर्दर्शनावरणवीर्यांतरायक्षयोपशमांगोपांगनामावष्टंभाद् अविभावितविशेषसामर्थ्येन किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोचनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते बालवत् ।=चक्षुदर्शनावरण और वीर्यांतराय इन दो कर्मों के क्षयोपशम से तथा साथ-साथ अंगोपांग नामकर्म के उदय से होने वाला सामान्य अवलोकन चक्षुदर्शन कहलाता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/201-202 सत्यं स्वावरणस्योच्चैर्मूलं हेतुर्यथोदय:। कर्मांतरोदयापेक्षो नासिद्ध: कार्यकृद्यथा।201। अस्ति मत्यादि यज्ज्ञानं ज्ञानावृत्युदयक्षते:। तथा वीर्यांतरायस्य कर्मणोऽनुदयादपि।202।=जैसे अपने-अपने घात में अपने-अपने आवरण का उदय मूलकारण है वैसे ही वह ज्ञानावरण आदि दूसरे कर्मों के उदय की अपेक्षा सहित कार्यकारी होता है, यह भी असिद्ध नहीं है।201। जैसे जो मत्यादिक ज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है वैसे ही वह वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से भी होता है।202।
- कर्म के उदय में तदनुसार जीव के परिणाम अवश्य होते हैं
राजवार्तिक/7/21/25/549/27 यद्यभ्यंतरसंयमघातिकर्मोदयोऽस्ति तदुदयेनावश्यमनिवृत्तपरिणामेन भवितव्यं ततश्च महाव्रतत्वमस्य नोपपद्यत इति मतम्; तन्न; किं कारणम्, उपचारात् राजकुले सर्वगतंचैत्रवत् ।=प्रश्न–(छठे गुणस्थानवर्ती संयत को) यदि संयतघाती कर्म का उदय है तो अवश्य ही उसे अविरति के परिणाम होने चाहिए। और ऐसा होने पर उसके महाव्रतत्वपना घटित नहीं होता (अत: संज्वलन के उदय के सद्भाव में छठे गुणस्थानवर्ती साधु को महाव्रती कहना उचित नहीं है)। उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि राजकुल में चैत्र या खोजे पुरूष को सर्वगत कहने की भाँति यहाँ उपचार से उसे महाव्रती कहा जाता है।
धवला/12/4,2,13,254/457/6 ण च सुहुमसांपराइय मोहणीय भावो अत्थि, भावेण विणा दव्वकम्मस्स अत्थित्तविरोहादो सुहुससांपराइयसण्णाणुवत्तीदो वा।=सूक्ष्मसांपरायिक गुणस्थान में मोहनीय का भाव नहीं हो, ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि भाव के बिना द्रव्यकर्म के रहने का विरोध है, अथवा वहाँ भाव के न मानने पर ‘सूक्ष्मसांपरायिक’ यह संज्ञा ही नहीं बनती है।
नोट–(यद्यपि मूल सूत्र नं. 254 ‘‘तस्स मोहणीयवेयणाभावदो णत्थि’’ के अनुसार वहाँ मोहनीय का भाव नहीं है। परंतु यह कथन नय विवक्षा से आचार्य वीरसेन स्वामी ने समन्वित किया है। तहाँ द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा से सत् का ही विनाश होने के कारण उस गुणस्थान के अंतिम समय में मोहनीय के भाव का भी विनाश हो जाता है और पर्यायार्थिक नय असत् अवस्था में ही अभाव या विनाश स्वीकार करता होने के कारण उसकी अपेक्षा वह मोहनीय का भाव उस गुणस्थान के अंतिम समय में है और उपशांत कषाय या क्षीण कषाय के प्रथम समय में विनष्ट होता है। विशेष–देखो उत्पाद/2/7)
लब्धिसार/ जीवतत्व प्रदीपिका/304/384/19 द्रव्यकर्मोदये सति संक्लेशपरिणामलक्षणभावकर्मण: संभवेन तयो: कार्यकारणभावप्रसिद्धे:।=(उपशांत कषाय गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त मात्र है। तदुपरांत अवश्य ही मोह कर्म का उदय आता है जिसके कारण वह नीचे गिर जाता है।) नियमकरि द्रव्यकर्म के उदय के निमित्ततै संक्लेशरूप भाव कर्म प्रगट हो है। इसलिए दोनों में कार्य कारण भाव सिद्ध है।
- जीव व कर्म में परस्पर निमित्त-नैमित्तिक संबंध का निर्देश
- निमित्त के उदाहरण