प्रवचनसार - गाथा 72 - तात्पर्य-वृत्ति: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
णरणारयतिरियसुरा भजन्ति जदि देहसंभवं दुक्खं । (72)
किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं ॥76॥
अर्थ:
[नरनारकतिर्यक्सुरा:] मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव (सभी) [यदि] यदि [देहसंभवं] देहोत्पन्न [दुःखं] दुःख को [भजंति] अनुभव करते हैं, [जीवानां] तो जीवों का [सः उपयोग:] वह (शुद्धोपयोग से विलक्षण- अशुद्ध) उपयोग [शुभ: वा अशुभ:] शुभ और अशुभ-दो प्रकार का [कथं भवति] कैसे है? (अर्थात् नहीं है) ॥७२॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथ पूर्वोक्तप्रकारेण शुभोपयोगसाध्यस्येन्द्रिय-सुखस्य निश्चयेन दुःखत्वं ज्ञात्वा तत्साधकशुभोपयोगस्याप्यशुभोपयोगेन सह समानत्वं
व्यवस्थापयति --
णरणारयतिरियसुरा भजंति जदि देहसंभवं दुक्खं सहजातीन्द्रियामूर्तसदानन्दैकलक्षणंवास्तवसुखमलभमानाः सन्तो नरनारकतिर्यक्सुरा यदि चेदविशेषेण पूर्वोक्तपरमार्थसुखाद्विलक्षणं पञ्चेन्द्रियात्मकशरीरोत्पन्नं निश्चयनयेन दुःखमेव भजन्ते सेवन्ते, किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं व्यवहारेण विशेषेऽपि निश्चयेन सः प्रसिद्धः शुद्धोपयोगाद्विलक्षणः शुभाशुभोपयोगः कथंभिन्नत्वं लभते, न कथमपीति भावः ॥७६॥
एवं स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयेन प्रथमस्थलं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[णरणारयंतिरियसुरा भजंति जदि देहसंभवं दुक्खं] - सहज अतीन्द्रिय, अमूर्त, सदानन्द एक लक्षण वास्तविक सुख को प्राप्त नहीं करते हुये मनुष्य, नारकी, तिर्यंच, देव यदि समानरूप से पूर्वोक्त पारमार्थिक सुख से विलक्षण पंचेन्द्रियात्मक शरीर से उत्पन्न दुःख को ही निश्चयनय से भोगते हैं, [किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं] - व्यवहार से विशेष भेद होने पर भी निश्चय से शुद्धोपयोग से विलक्षण वह प्रसिद्ध शुभ-अशुभ उपयोग भिन्नता को कैसे प्राप्त हो सकता है? किसी भी प्रकार प्राप्त नहीं हो सकता - यह भाव है ।
इस प्रकार स्वतंत्र चार गाथाओं द्वारा प्रथम स्थल पूर्ण हुआ ।