कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 291: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:32, 2 July 2021
अह लहदि अज्जवत्तं तह ण वि पावेइ उत्तमं गोत्तं ।
उत्तम कुले वि पत्ते धण-हीणो जायदे जीवो ।।291।।
आर्यक्षेत्र में जन्म पाकर भी उत्तम कुल के न होने से क्लेशपात्रता―कभी यह जीव आर्य क्षेत्र में भी उत्पन्न हुआ पर वहाँ पर भी उत्तम कुल ने प्राप्त किया तब तो फिर यह जीव आत्मशील से वंचित ही रहा । देखिये―जहां उत्तम कुल नहीं मिलता वहाँ कैसा वातावरण रहता है, लोग वहाँ प्राय: करके आकुलित रहा करते हैं । आकुलतायें मिटने का उपाय सिवाय ज्ञानप्रकाश के और कुछ नहीं है । जहाँ परवस्तुओं को अपनाया, उनमें स्नेह किया, उनमें अपने मन के अनुकूल परिणमन देखना चाहा, बस वहाँ ही आकुलता के प्रसंग आ गए । इन आकुलताओं के मेटने का उपाय मात्र सम्यग्ज्ञान है । किसी को इष्ट का वियोग हो तो जब तक उसकी यह दृष्टि रहती है कि बेचारा कितना अच्छा था, वह बेचारा हमारी कितनी फिक्र करता था, आज यहाँ से चला गया । यों सोच सोचकर उसका दुःख बढ़ता रहता है, लेकिन कदाचित् उसे वस्तु की स्वतंत्रता का बोध हो जाय कि यहाँ प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र है, सबकी सत्ता न्यारी-न्यारी है, सब जुदे-जुदे ही आते हैं, जुदे-जुदे ही कर्मफल भोगते हैं, जैसे मैं जीव सबसे निराला हूँ वैसे ही सभी जीव मेरे से अत्यंत निराले हैं, यहां कोई मेरा नहीं, लो इस प्रकार की दृष्टि बनायी कि उस विषयक सभी आकुलतायें समाप्त हो जाती हैं । तो भला बतलाओ, आकुलता किसने पैदा करायी ? अरे खुद की अज्ञानदशा ने ही तो उन आकुलताओं को पैदा किया । आश्रयभूत बाह्यपदार्थों ने उन आकुलताओं को नहीं उत्पन्न किया और न वे आकुलतायें उन साधनों से दूर हो सकती हैं । निमित्तभूत कारण की बात तो अवश्य हैं पर आश्रयभूत पदार्थों को हम अपनी कल्पना में लाकर, उपयोग में लाकर उन्हें कारणभूत बना दिया करते हैं । हम जब भ्रम में हैं तब दुःखी हैं, भ्रम दूर हो गया तो आनंद हो गया । तो ज्ञानप्रकाश मिले बस इससे ही आकुलतायें दूर हो सकती हैं, अन्य उपायों से आकुलता नहीं दूर हो सकती हैं । आकुलता दूर करने की इच्छा जिन्हें है उन्हें यह निर्णय रखना चाहिए कि हम वस्तुस्वरूप के सही ज्ञान का अर्जन करें । पदार्थ वास्तव में कैसा है, हम इस बात को दृढ़ता से समझ लेंगे बस आकुलतायें खतम ।
प्रतिष्ठा की चाह में दुःखसंदोहभागिता―आप लोग देख रहे हैं कि सभी मनुष्य अपनेअपने दुःख मान रहे हैं तो दुःख काहे से है ? दुःख है उन समस्त मिथ्या धारणाओं से, जिनको कि चित्त में बसा रखा है । इनसे मेरी इज्जत है, इनसे मेरी प्रतिष्ठा है, ये ही मेरे सब कुछ हैं, इनसे मुझे सुख मिलेगा आदि इस प्रकार की मिथ्या धारणाओं के कारण ये जीव दुःखी हैं । लोग धनिक क्यों बनना चाहते ? क्या किसी को खाने पीने की कमी है? अथवा ठंडगर्मी आदि से बचने के साधन नहीं हैं इसलिए धनिक होना चाहते ? अरे धनिक तो इसलिए होना चाहते कि इतने लोगों के बीच में हमारी प्रतिष्ठा होगी । ये लोग समझ जायेंगे कि यह भी कुछ हैं । बस इस थोडीसी इज्जत प्रतिष्ठा की चाह करके लोग धनार्जन करने की होड़ करते हैं । लेकिन जो परद्रव्य हैं उन पर किसी का कुछ अधिकार तो नहीं है । लोग धनिक होना चाहते हैं अथवा संतानवान होना चाहते हैं, उन द्रव्यों का परिणमन अपनी इच्छानुकूल देखना चाहते हैं । वैसा देखने को मिलता नहीं इसीलिए लोग दुःखी रहा करते हैं । संतान चाहने वाले लोगों के मन में भीतर में एक ऐसा भाव पड़ा रहता है कि इससे मेरी कीर्ति होगी, इससे मेरा कुल चलेगा, मेरा नाम चलेगा, लोग कहेंगे कि यह उनका लड़का है, अगर कोई ऐसा सोचता हो कि हमारी वृद्धावस्था आने पर हमारा लड़का हमारी मदद करेगा इसलिए हमें संतान चाहिए, तो उसका यह सोचना गलत है । अरे अगर आपके पुण्य का उदय होगा तब तो आपकी संतान आपकी मदद करेगी, अन्यथा नहीं । अगर आपके पाप का उदय चल रहा है तो बहुत-बहुत प्रेम दिखाने वाली संतान भी आपके प्रतिकूल हो जायगा । और वह संतान कितना ही प्रतिकूल हो जाय, यदि आपके पुण्य का उदय है तो अन्य पड़ोसी लोग भी आपकी मदद कर देंगे । तो संतान से कीर्ति अथवा आराम की आशा करना कोरा स्वप्न है । तो जो लोग कुछ भी वैभव चाह रहे हैं वे इसीलिए चाहते हैं कि मेरी कीर्ति हो । यहाँ मेरी के मायने है यह पर्याय, यह देह। बस इस पर्याय को निरखकर, समझते हैं कि मैं तो यही हूँ और इस मेरे की कीर्ति हो । उन्होंने यह नहीं समझ पाया कि मैं यह देह नहीं हूँ । मैं तो इस देह के अंदर विराजमान जो शुद्ध चैतन्यमात्र अंतस्तत्व है, वह हूँ । उस चैतन्यमात्र अंतस्तत्व को लोग जानते ही कहां हैं? वे तो इस दिखने वाली पर्याय में ही अहंबुद्धि किए जा रहे हैं । तो देखिये आ व्यर्थ का ही एक विकार बनाकर, भ्रम बनाकर इस जीव ने अपने आपको कितना दुःखी कर डाला? इस जीव को अपने आपके ज्ञानप्रकाश का जब पता पड़ेगा तो अपने आपको सुखी कर लेगा । इस जीव का सच्चे ज्ञान के सिवाय अन्य कोई साथी नहीं है । विपदा में, संपदा में हर जगह सुख मिलता है, शांति मिलती है तो वह ज्ञान की ही करामात है । हमारा ज्ञान सही बना रहे तो फिर कुछ आपत्ति नहीं है । आपत्ति तो ज्ञान के विरुद्ध परिणमन से है । जब दुःख नहीं चाहते तो एक ही तो कर्तव्य करने का रह गया कि हम विशुद्धज्ञान का अर्जन करें ।
उत्तम कुल पाने पर भी धनहीनता में दु:खभागिता―यह जीव मनुष्य बना, आर्यक्षेत्र में जन्म लिया, इसने उत्तम गोत्र पाया, मगर धनहीन रहा, भूख प्यास, सर्दी गर्मी आदिक के दुःख से बचने का साधन न रहा । ऐसी स्थिति वाले लोगों को तो हम निर्धन कह सकते पर लखपति करोड़पति आदि भी तो अपने को तृष्णावश गरीब ही अनुभव करते हैं । उनके मनमें यही चाह बनी रहती है कि इतना धन और हो जाय तो अच्छा है । एक ब्राह्मण को अपनी लड़की की शादी करने के लिए धनाभाव के कारण विशेष चिंता रहा करती थी । एक दिन उसने राजा से शादी में कुछ मदद करने के लिए निवेदन किया । राजा ने कहा―ठीक है कल सुबह तुम्हें जितना धन चाहिए हो हमसे मांग लेना । वह ब्राह्मण घर आया । शाम को खाट पर लेटे हुए में सोच रहा था कि कल राजा से कितना धन मांगना चाहिए? विचार हुआ कि 100 माँग लेंगे । उस समय उस बेचारे की दृष्टि में 100) काफी थे । परंतु ध्यान आया कि अरे 100) से क्या होगा? जब राजा ने कह ही दिया है कि तुम्हें जितना चाहिए हो सो मांग लेना, सो हजार रुपये मांग लेना चाहिए । पर फिर याद आया कि अरे हजार रुपये से क्या होगा? हजारपति तो हमारे ये पड़ोसी लोग भी हैं पर ये भी तो सुखी नहीं हैं, हमें तो लाख रुपये मांग लेने चाहिए, पर जब लखपतियों पर दृष्टि गई तो सोचा कि ये लोग भी तो सुखी नहीं है, हमें करोड़ रुपये माँग लेना चाहिए । करोड़पतियों पर जब दृष्टि गई तो वे भी सुखी नजर न आये । सोचा कि आधा राज्य मांग लेंगे, पर विकल्प हुआ कि लोग कहेंगे कि देखो यह राज्य तो इस अमुक राजा का था और इसे मांगने पर दिया है ।
सो सोचा कि वह भी बात ठीक न रहेगी, पूरा राज्य मांग लेना चाहिए । अब सुबह होने को था सो वह सामायिक करने बैठ गया । उस समय परिणाम विशुद्ध हुए, तब राजा की दशा पर दृष्टि गई तो सोचा कि देखो―यह राजा कितना हैरान रहा करता है, इसको इस राज्य वैभव के पीछे न जाने कितनी-कितनी चिंतायें करनी पड़ती हैं? इसलिए यह राजा भी सुखी नहीं है । हमें पूरा राज्य लेकर क्या करना, आधा ही राज्य मांगना चाहिए । फिर सोचा कि आधे राज्य में भी दुःख है, करोड़ रुपये ही माँग लेना चाहिए, पर करोड़पतियों की हालत पर विशेष चिंतन चलने से ऐसा पाया कि वे भी बहुत दुःखी रहा करते हैं, उनको बैठने की फुरसत नहीं, इधर उधर दौड़धूप मचाये रहते हैं । रात्रि को अच्छी तरह सो भी नहीं सकते हैं, जगह-जगह उनके लिए टेलीफोन लगे हुए हैं । यहाँ तक कि संडास तक में बहुत से लोग टेलीफोन लगवा लेते हैं । यों करोड़पतियों की हालत पर विचार करके क्रमश: लखपति, हजारपति व शतपतियों पर दृष्टि गई । किसी के सुखी न देखा । इसी चिंतन में वह ब्राह्मण रात्रिभर सो न सका था, अब प्रातःकाल भगवान का भजन करने बैठा तो उस समय उसका यही चिंतन बना हुआ था कि हमें राजा से कुछ न मांगना चाहिए, हमारी जैसी स्थिति है वैसी ही ठीक है । इतने में सामने से वह राजा टहलता हुआ निकला और बोला ऐ विप्र ! माँगो―क्या चाहते हो? तो हाथ जोड़कर वह विप्र बोला―महाराज हमें कुछ न चाहिए । हमें तो यही स्थिति ठीक है । सो हमें चाहिए कि आज जो हमारी स्थिति है उसी में व्यवस्था बनायें । यों तो आवश्यकतायें अनंत हैं, उनकी पूर्ति कभी हो नहीं सकती ।