कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 308: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:32, 2 July 2021
सत्तण्हं पयडीणं उवसमदो होदि उवसमं सम्मं ।
खयदो य होदि खइयं केवलि-मूले मणूसस्स ।।308।।
जीव के साथ कर्मों का बंधन―जीव के साथ अनेक कर्म प्रकृतियां लगी हुई हैं और ये प्रकृत्या लग गयी हैं और उन कर्मों की स्थितियां भी होती हैं । यदि इस मुझ जीव के साथ कोई मुझसे विपरीत विजातीय चीज न लगी हो तो हम नाना तरह के विषम परिणमन नहीं कर सकतें जैसे पानी अपने आप स्वभाव से शीतल है, पर उसके गरम किए जाने पर थोड़ा गरम, अधिक गरम, उससे भी अधिक, ये जो विषमतायें हैं वे यह सिद्ध करती हैं कि इसके साथ कोई गर्म चीज, इसके स्वभाव के विरुद्ध चीज लगी हुई है, इसी तरह जीव में क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक की नाना परिणतियां दिखती हैं और वे कषायें भी अपनी सीमा में नाना प्रकार के भेद वाली हैं ।
इतनी विचित्र परिणतियां जो जीव में चलती हैं उनसे ही यह सिद्ध है कि इस जीव के साथ कोई विजातीय चीज लगी है तब इसके नाना परिणमन हो रहे हैं । विजातीय चीज भी बहुत सूक्ष्म होना चाहिए क्योंकि जीव अमूर्त है, इस अमूर्त के साथ जो भी विजातीय का बंधन होगा वह सूक्ष्म बंधन होगा, ऐसा सूक्ष्म किंतु मूर्तिक कोई विजातीय परपदार्थ लगा है जिसको कर्म नाम से कहते हैं । कर्म की बात सभी लोग स्वीकार करते हैं कि जीव के साथ कर्म लगे हैं । जैसे कर्म हैं वैसे सुख दुःख भोगने पड़ते हैं, मगर वे कर्म क्या चीज हैं इसका स्पष्ट अर्थ जैनशासन में मिलता है । कर्म एक सूक्ष्म वर्गणायें हैं, और वे इतनी सूक्ष्म हैं कि पहाड़, बज्र आदिक से नहीं टकरा सकते, पर वे हैं मूर्तिक । वे ऐसी ही जाति के हैं और वे जीव के साथ संसार अवस्था में सदा रहते हैं । जब जीव कषाय करता है, विकल्प करता है तो ये ही कर्मवर्गणायें कर्मरूप बन जाती हैं । और, जब वे कर्मरूप बने तो उसी समय उनमें वह सब व्यवहार हो जाता है कि इतने दिनों तक जीव में रहेंगे और इस तरह-तरह से बनेंगे और उनके उदय के समय जीव स्वयं ऐसा फल प्राप्त किया करेगा । ये सब व्यवस्थायें तुरंत बन जाती हैं ।
148 कर्मप्रकृतियों में सम्यक्त्वघातक सात प्रकृतियाँ―कर्मप्रकृतियाँ 148 हैं । जिनका भिन्न-भिन्न काम है । कुछ कर्मप्रकृतियों के उदय से शरीर में रचनायें होती है । कुछ कर्मप्रकृतियों के उदय से ज्ञान का आवरण होता है । तो जैसे-जैसे वह आवरण हटता है वैसे-वैसे इसका ज्ञान बढ़ता है । कुछ कर्मप्रकृतियों के कारण इस जीव को शरीर में रुके रहना पड़ता है । कुछ प्रकृतियों के उदय से जीव ऊँच नीच कुल में उत्पन्न होते हैं, कुछ प्रकृतियों के उदय से सांसारिक सुख दुःख हुआ करते हैं, यह बेसुध हो जाय, उल्टा चले, खोटे मार्ग में चले, ये सब बातें इन कर्मप्रकृतियों के उदय में हुआ करती हैं । तो उन 148 प्रकृतियों में से 7 प्रकृतियाँ ऐसी हैं कि जो जीव के सम्यग्दर्शन को नहीं होने देतीं । उनका नाम है अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति । अनंतानुबंधी कषाय उसे कहते हैं जों बहुत काल तक जीव के साथ संस्कार बनाये रखे । जैसे―ऐसा क्रोध जग जाय कि मैं तो इससे बदला लेकर ही रहूंगा, चाहे जितना समय लग जाय । यहाँ तक कि वह क्रोध का संस्कार दूसरे भव में भी जाय, उसे कहते हैं अनंतानुबंधी क्रोध । सर्पों के बारे में यह बात प्रसिद्ध है कि कोई मनुष्य यदि सर्प को छेड़ दे तो वह ऐसा क्रोध का संस्कार बना लेता है कि 12 वर्ष तक भी उस पुरुष को ढूंढ़कर वह डसता है । तो देखिये―तिर्यंचों में भी ऐसा अनंतानुबंधी क्रोध होता है । इनमें भी समझ है, इनमें भी कषाय की तीव्रता है । इटावा की एक घटना है कि किसी ने कुछ लड्डू लाकर हाथी के महावत को दिया और कह दिया कि लो ये लड्डू, इस हाथी को खिला देना । सो उस महावत ने हाथी को न खिलाकर स्वयं ही, खा डाले व रख लिये, तो उस हाथी को इतना क्रोध आया कि अपनी सूंड़ में महावत को लपेटकर भींतों में पटक-पटक कर मार डाला । तो इन तिर्यंचों में भी ये तीव्र कषायें चलती हैं । जो क्रोध ऐसा हो कि भविष्य में भी अपना संस्कार बनाये ऐसे क्रोध को कहते हैं―अनंतानुबंधी क्रोध । इसी प्रकार अनंतानुबंधी मान, माया, लोभ आदि कषायें भी होती हैं । कहो ऐसी मान कषाय जग जाय कि जिसका संस्कार अगले भव में भी जाय, कहो ऐसी मायाचारी की जाय कि जिसका संस्कार बहुत काल तक चले, अथवा कहो इस तरह का लोभमयी (लालचमयी) संस्कार बन जाय कि जो संस्कार बहुत काल तक चले, ये सब अनंतानुबंधी कषायें हैं । इन कषायों में रहते संते इस जीव को अपने आत्मा की सुध नहीं हो सकती । इसी प्रकार मिथ्यात्व―जो विपरीत परिणाम करा दे, सम्यक᳭मिथ्यात्व, जो मिथ्या, सम्यक् (मिलवा) परिणाम करा दे, और सम्यक् प्रकृति―जो सम्यग्दर्शन का दूषण बना दे, ऐसी हैं ये तीन प्रकृतियाँ । यों सात प्रकृतियाँ सम्यक्त्व का घात करती हैं । इन 7 प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व होता है, मायने 7 प्रकृतियाँ दब गई, थोड़ी देर को सम्यग्दर्शन हो गया । प्रकृतियाँ उखड़ेगी तो सम्यग्दर्शन मिट जायगा । 7 प्रकृतियों से क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है । ये 7 प्रकृतियाँ न रहें तो शुद्ध सम्यग्दर्शन सदा रहेगा । इस सम्यक्त्व की चर्चा अब आगे चलेगी ।
उपशमसम्यक्त्व का लाभ―यह जीव अनादिकाल से कर्मबंधन से बंधा हुआ है । तो कर्म के उदय से इस जीव की कलुषतायें अनादि से चली आ रही हैं, ऐसी स्थिति में इन 7 प्रकृतियों का उपशम कैसे हो सकता है ? इसके उत्तर में काललब्धि आदिक कारण को ही बताया जा सकता है । प्रथम तो जब जीव का संसार कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तन काल शेष रहता है तब सम्यक्त्व की पात्रता होती है । यह एक काललब्धि है और अगर अर्द्धपुद्गल परिवर्तन से अधिक काल है, जीव का संसार में रहने का तो उसके प्रथमोपशम सम्यक्त्व नहीं बन सकता है । दूसरी काललब्धि यह है कि जब कर्मों में उत्कृष्ट स्थिति होती है या जघन्य स्थिति होती है तब औपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता । उत्कृष्ट स्थिति में तो योग्यता नहीं । जघन्य स्थिति बहुत ऊँचे साधुजनों के होती, वहाँ औपशमिक की बात ही क्या है ? तो औपशमिक सम्यक्त्व कब होता है कि जब अंत: कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति के कर्म बँधते हैं तब वहाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने की योग्यता है ।
एक सागर बहुत बड़ा काल है और उसका प्रमाण उपमा से जाना जाता है । एक दो हजार कोश का लंबा चौड़ा गड्ढा हो और उसमें कोमल रोम के छोटे-छोटे टुकड़े, जिनका कि दूसरा टुकड़ा न हो सके, भर दिए जाये, और उसमें ऊपर से हाथी फिरा दिये जाये जिससे कि वे सभी रोम दब जायें । फिर प्रत्येक 100 वर्ष में एक रोम निकाला जाय । तो सारे रोम निकालने में जितना समय लगे उसका नाम है व्यवहारपल्य । उससे असंख्यात गुना होता है उद्धारपल्य, उससे असंख्यात गुना होता है अद्धापल्य और एक करोड़ अद्धापल्य में एक करोड़ अद्धापल्य का गुणा करने से जो समय आयेगा उसका नाम है एक कोड़ाकोड़ी अद्धापल्य, ऐसे 10 कोड़ाकोड़ी अद्धापल्य का नाम है एक सागर ऐसे एक कोड़ाकोड़ी सागर की स्थिति बँधे तब जीव में सम्यक्त्व उत्पन्न होने की योग्यता होती है । फिर वहाँ प्रायोग्यलब्धि बने, फिर और कम स्थिति बंधे, ऐसे जब 34 बंधापसरण हो जाते हैं तब वहां करणलब्धि प्राप्त होती है और उपशमसम्यक्त्व की योग्यता बनती है । करणलब्धि
के मायने इतने ऊंचे परिणाम कि जो कभी नहीं हुए और एक विशिष्ट काल के लिए हो रहे हैं अध:करण, अपूर्वकरण, अनवृत्तिकरण । तो अध:करण का जब अंतिम समय आता है तो चारों गतियों के कोई भी जीव अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक् मिथ्यात्व, इन 7 प्रकृतियों का उपशम करके प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है ।
औपशमिक सम्यक्त्व व क्षायिक सम्यक्त्व का निर्देश―सम्यक्त्व की उत्पत्ति में निमित्त कारण तो होता है कर्म का उपशम आदि और बाह्य कारण होते हैं अनेक, जैसे जिनबिंब का दर्शन, साधुवों का सत्संग, वेदना का अनुभव आदि । ऐसे बाह्य कारण मिले और अंतरंग कारण सम्यक्त्वघात सात प्रकृतियों का उपशम प्राप्त हो तो उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है, क्षय हो तो क्षायिक सम्यक्त्व व क्षयोपशम हो तो क्षयोपशम सम्यक्त्व होता है, उपशम सम्यक्त्व में ये कर्म बिल्कुल दब जाते हैं। तो यों समझिये कि जैसे तैल में नीचे गंदगी बैठ जाय तो तैल ऊपर से पूरा निर्मल होता है लेकिन उसकी गंदगी शीशी में नीचे बैठ जाती है । अगर उस शीशी को हिला दिया जायें तो वह सारा तैल उस कीचड़ से फिर मलिन बन जाता है, इसी प्रकार जीव की ये 7 कर्मप्रकृतियां दबी हैं तो उस समय सम्यग्दर्शन है, निर्मल है, लेकिन वे उखड़ जायें तो सम्यक्त्व मलिन ही नहीं बल्कि मिट भी जायेगा। लेकिन क्षायिक सम्यक्त्व में 7 प्रकृतियों का क्षय होता है, अत: यह सम्यक्त्व कभी नहीं मिटता है । जैसे शीशी में तैल की गंदगी नीचे बैठी हे तो तैल का साफ भाग निकालकर दूसरी शीशी में रख लिया जाय तो फिर उस साफ तैल के गंदा होने की संभावना नहीं है, इसी प्रकार जहाँ कर्म हैं ही नहीं उनका क्षय हो गया तो उनका क्षायिक सम्यग्दर्शन सदा के लिए निर्मल रहता है और क्षयोपशम सम्यक्त्व में होता यही है कि उन 7 प्रकृतियों में से कुछ प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय है । कुछ का उपशम है और कुछ का उदय है, तो ऐसी स्थिति में वह क्षयोपशम सम्यक्त्व कुछ मलिन रहता है, मगर सम्यक्त्व है । जैसे वही शीशी में रखा हुआ तैल थोड़ासा हिलाने पर कुछ मलिन रहता है, कुछ निर्मल भी रहता है इसी प्रकार क्षयोपशम सम्यक्त्व भी कुछ मलिन रहता है । सम्यक्त्व 3 प्रकार के होते हैं । इस सम्यक्त्व के समय में जब कि वह उत्पन्न होता है, प्रतिसमय गुण श्रेणी निर्जरा होती है, कर्म कई गुना खिरते रहते हैं और वहाँ इतने कर्म खिर जाते हैं कि अनंत संसार नहीं रहता । उन खिरने वाले कर्मों के प्रमाण की बात देखी जाय तो इतने कर्म खिरेंगे कि आगे खिरने के लिए थोड़े से कर्म शेष रह जाते हैं । इस मनुष्य में तीन प्रकार के सम्यक्त्व प्राप्त करने की योग्यता है । वैसे चारों गतियों में उपशम सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व तो होता ही है पर क्षायिक सम्यक्त्व को मनुष्य ही उत्पन्न कर सकता है । भले ही हम आप आजकल नहीं उत्पन्न कर सकते, लेकिन यह योग्यता मनुष्यों में ही बतायी गयी है । केवलीभगवान् श्रुतकेवली निकट हों तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व बनता है । इस तरह इन 7 प्रकृतियों के उपशम और क्षयोपशम होने से औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व होता है यह यहाँ बताया गया है । अब क्षायोपशमिक सम्यक्त्व किस तरह होता है, उसका निरूपण करते हैं ।