ज्ञानार्णव - श्लोक 35: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
दूषयंति दुराचारा निर्दोषामपि भारतीम्।
विधुविंबश्रियं कोका: सुधारसमयीमिव।।35।।
दुराचारियों द्वारा बवर्णवाद― दुराचारी पुरुष दुष्टजन निर्दोषजनों में भी दोष लगाया करते हैं। जैसे यद्यपि चंद्रमा सुधारस का स्थान है, उस चंद्रबिंब की शोभा लोग बड़े चाव से निरखते हैं, वह संताप शांत करने वाला है लेकिन उस चंद्रबिंब को चकवा दूषण दिया करता है कि इस चंद्रमा ने हमारी चकवी का बिछोह कर दिया। देखिये कुछ ऐसा प्रसंग है निमित्तनैमित्तिक कि चकवा चकवी दिन में तो साथ रहते हैं पर रात्रि होने पर उनका वियोग हो जाता है। न जाने क्या उनकी बुद्धि बन गई हो, हमने तो चकवा चकवी देखा ही नहीं है। पर यह बात बड़ी प्रसिद्ध है, शास्त्रों में भी दृष्टांत रूप में दी गई है। न जाने क्या बात हो जाती है कि रात्रि को जल में रहने वाले चकवा चकवी दोनों का गमन विरुद्ध-विरुद्ध दिशा को हो जाता है। तो देखो चंद्रमा की सभी लोग बड़ी प्रशंसा करते हैं लेकिन चकवा-चकवी मन ही मन उस चंद्रमा को दूषण दे रहे हैं।
दुष्टों के शिष्टों के प्रति अनिष्टबुद्धि― अच्छा और भी देखिये, कोई साधु जा रहा हो, सामने से कोई शिकारी आ रहा हो तो शिकारी साधु को देखकर घृणा करता है, आज तो बड़ा असगुन हुआ, मुझे आज शिकार न मिलेगा। तो दुष्टजन निर्दोष पुरुषों को भी दूषण देते हैं, निर्दोष वाणी को भी दूषण दिया करते हैं। किसी में कोई दोष लगाना हो पचासों बहाने हैं। कोई कम बोलता हो, ज्यादा बोलना पसंद करता हो तो उसे यह कहा जा सकता है कि यह बड़ा घमंडी है, यह बोलता चालता ही नहीं है, किसी से मिलता जुलता ही नहीं है, और यदि बहुत ज्यादा बोलता हो तो यह दोष लगाया जा सकता है कि यह बकवादी पुरुष है, बोलता ही रहता है, कुछ धीरता नहीं, गंभीरता नहीं। कम बोले तो लोग दोष लगाते, ज्यादा बोले तो लोग दोष लगाते, और मौन रहे तो लोग दोष लगाते। अब और क्या करे बतावो।
न्यायपथ पर चलन―देखिये, करना क्या चाहिये सो सुनो। कोई कुछ कहे, दोष लगाये, बात को तो करने दो, तुमने क्या निर्णय किया है, शांति का पथ क्या है, तुम्हारा हित किसमें है? इसका निर्णय रहे और उस पर ही चलते रहो। सारा जहान कुछ भी कहे तो उससे क्या होगा? खुद ही जो जैसी करनी करेगा वैसा ही फल पावेगा। खुद ही अगर भले हैं तो भला फल मिलेगा, खुद ही अगर बुरे हैं तो बुरा ही फल मिलेगा। इसलिये आवश्यक कार्य यह करने का है कि जो यथार्थ न्यायपथ है उस पथ पर चलें। ये सारे समागम मायाजाल हैं, विनश्वर हैं। विकल्पजालों में बढने से तो अपने आपको संक्लेशमय ही बनाया। विकल्प बनाना युक्त नहीं है। आचार्यदेव इस ग्रंथ की भूमिका में श्रोताजनों की ऐसी स्थिति बता रहे हैं, उन्हें उदार और विवेकशील बना रहे हैं ताकि वे आगे के वक्तव्य को निष्पक्षता से है और अपने आत्महित की दृष्टि से सुनें और अपना कल्याण करें।