रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 91: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
द्देशावकाशिकं वा सामायिकं प्रोषधोपवासो वा ।
वैय्यावृत्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि ।। 91 ।।
चार शिक्षाव्रतों का निर्देश―शिक्षाव्रत चार कहे गए हैं । (1) देशावकाशिक, (2) सामायिक, (3) प्रोषधोपवास और (4) वैय्यावृत्य । अन्य ग्रंथों में और प्रकार से नाम दिए हैं । यहाँ और तरह नाम दिए हैं । पर उससे फर्क कुछ नहीं आता । देशावकाशिक व्रत के दोष की बात कही गई है । काल की अवधि लेकर क्षेत्र में और कम कर लेना जिससे बाहरी गमनागमन न हो । सामायिक है―तीन काल सामायिक करना । प्रोषधोपवास―प्रोषधोपवास है प्रोषध पूर्वक उपवास करना और वैय्यावृत्य में अतिथि सम्विभाग व्रत आया और अन्य प्रकार से भी वैय्यावृत्य आती है इन सबसे मुनिव्रत की शिक्षा मिलती है । जितना अधिक कम क्षेत्र करें व्यवहार का उससे बाहर का विकल्प न रहा तो उस विधि से मुनिव्रत आगे भली प्रकार पले उसका अभ्यास बनता है । तीन काल सामायिक करता, मायने राग द्वेष को दूर करता और यह ही करता है रातदिन मुनि, तो जो रातदिन मुनि की आंतरिक चर्या है उसका अभ्यास सामायिक से बनता है । प्रोषधोपवास में सप्तमी अष्टमी नवमी इसी प्रकार त्रयोदशी चतुर्दशी और पूर्णिमा को जल भी न लेना यह खास नियम है । चाहे शक्ति न हो तो अष्टमी चतुर्दशी को कुछ आहार ले लिया, वह जघन्य प्रोषधोपवास बन गया, पर तीन दिन शाम को जल तक न लेना, और मुनिजन तो शाम को जल लेते नहीं, तो उसका अभ्यास तो नहीं बनता । अतिथि सम्विभाग करता है तो जो मुनि को आहारदान कराता उसको भले प्रकार दिख जाता कि इस तरह आहार लेना चाहिए मुनि अवस्था में । तो इन चारों से मुनिव्रत की शिक्षा मिलती इस कारण इसे शिक्षाव्रत कहा गया।