अनंतानुबंधी: Difference between revisions
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<span class="HindiText">= अनंत संसार का कारण होनेसे मिथ्यादर्शन अनंत कहलाता है तथा जो कषाय उसके अनुबंधी हैं, वे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं। | <span class="HindiText">= अनंत संसार का कारण होनेसे मिथ्यादर्शन अनंत कहलाता है तथा जो कषाय उसके अनुबंधी हैं, वे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं। | ||
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<span class="HindiText"> "जो सर्वथा एकांत तत्त्वार्थ के कहने वाले जे अन्यमत, जिनका श्रद्धान तथा बाह्य वेष, ता विषै सत्यार्थपने का अभिमान करना, तथा पर्यायनि विषै एकांत तै आत्मबुद्धि करि अभिमान तथा प्रीति करनी, यह अनंतानुबंधी का कार्य है। </span> | <span class="HindiText"> "जो सर्वथा एकांत तत्त्वार्थ के कहने वाले जे अन्यमत, जिनका श्रद्धान तथा बाह्य वेष, ता विषै सत्यार्थपने का अभिमान करना, तथा पर्यायनि विषै एकांत तै आत्मबुद्धि करि अभिमान तथा प्रीति करनी, यह अनंतानुबंधी का कार्य है। </span> | ||
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<p><span class="HindiText">• अनंतानुबंधी प्रकृति का बंध उदय सत्त्व व तत्संबंधी नियम व शंका समाधान | <p><span class="HindiText">• देखें - अनंतानुबंधी प्रकृति का बंध [[उदय#4.4| उदय]] सत्त्व व तत्संबंधी नियम व शंका समाधान[[ वह वह नाम ]]।</span><br /> | ||
<span class="HindiText">• अनंतानुबंधी में दशों करणों की संभावना – देखें [[ करण#2 | करण - 2]]।<br /> | <span class="HindiText">• अनंतानुबंधी में दशों करणों की संभावना – देखें [[ करण#2 | करण - 2]]।<br /> | ||
<span class="HindiText">• अनंतानुबंधी की उद्वेलना - देखें [[ संक्रमण#4 | संक्रमण - 4]]।<br /> | <span class="HindiText">• अनंतानुबंधी की उद्वेलना - देखें [[ संक्रमण#4 | संक्रमण - 4]]।<br /> |
Latest revision as of 22:15, 17 November 2023
जीवों की कषायों की विचित्रता सामान्य बुद्धि का विषय नहीं है। आगम में वे कषाय अनंतानुबंधी आदि चार प्रकार की बतायी गयी हैं। इन चारों के निमित्त-भूत कर्म भी इन्हीं नाम वाले हैं। यह वासना रूप होती हैं व्यक्त रूप नहीं। तहाँ पर पदार्थों के प्रति मेरे-तेरे पने की, या इष्ट-अनिष्टपने की जो वासना जीव में देखी जाती है, वह अनंतानुबंधी कषाय है, क्योंकि वह जीव का अनंत संसार से बंध कराती है। यह अनंतानुबंधी प्रकृति के उदय से होती है। अभिप्राय की विपरीतता के कारण इसे सम्यक्त्वघाती तथा परपदार्थों में राग-द्वेष उत्पन्न कराने के कारण चारित्रघाती स्वीकार किया है।
- अनंतानुबंधी का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /8/9/386 अनंतसंसारकारणत्वांमिथ्यादर्शनमनंतम्। तदनुबंधिनोऽनंतानुबंधिनः क्रोधमानमायालोभाः। = अनंत संसार का कारण होनेसे मिथ्यादर्शन अनंत कहलाता है तथा जो कषाय उसके अनुबंधी हैं, वे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं। (राजवार्तिक अध्याय 8/9, 5/574/3)
धवला पुस्तक 6/1,9-1,23/41/5 अनंतां भवाननुबद्धं शीलं येषां ते अनंतानुबंधिनः। ...जेहि कोह-माण-माया-लोहेहि अविणट्ठसरूवेहि सह जीवो अणंते भवे हिंडदि तेसिं कोह-माण-माया-लोहाणं अणंताणुबंधी सण्णा त्ति उत्तं होदि। ...एदेहि जीवम्हि जणिदसंसकारस्स अणंतेसु भवेसु अवट्ठाणब्भुवगमादो। अधवा अणंतो अणुबंधो तेसिं कोह-माण-माया-लोहाणं ते अणंताणुबंधी कोह-माण-माया-लोहा। एदेहिंतो संसारो अणंतेसु भवेसु अणुबंधं ण छद्देदि त्ति अणंताणुबंधो संसारो। सो जेसिं ते अणंताणुबंधिणो कोह-माण-माया-लोहा। = 1. अनंत भवों को बाँधना ही जिनका स्वभाव है, वे अनंतानुबंधी कहलाते हैं। अनंतानुबंधी जो क्रोध, मान, माया, लोभ होते हैं, वे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाते हैं। जिन अविनष्ट स्वरूप वाले अर्थात् अनादि परंपरागत क्रोध, मान, माया और लोभ के साथ जीव अनंतभवों में परिभ्रमण करता है उन क्रोध, मान, माया व लोभ कषायों की `अनंतानुबंधी' संज्ञा है, यह अर्थ कहा गया है।
2. इन कषायों के द्वारा जीव में उत्पन्न हुए संस्कार का अनंत भवों में अवस्थान माना गया है। अथवा जिन क्रोध, मान, माया, लोभों का अनुबंध (विपाक या संबंध) अनंत होता है वे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाते हैं।
3. इनके द्वारा वृद्धिगत संसार अनंत भवों में अनुबंध को नहीं छोड़ता है इसलिए `अनंतानुबंध' यह नाम संसार का है। वह संसारात्मक अनंतानुबंध जिनके होता है वे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं।
धवला पुस्तक भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 26/55/5 न विद्यते अंतः अवसानं यस्य तदनंतं मिथ्यात्वम्, तदनुबध्नंतीत्येवं शीला अनंतानुबंधिनः क्रोध-मान-माया-लोभाः। = नहीं पाइये है अंत जाका ऐसा अनंत कहिये मिथ्यात्व ताहि अनुबंधति कहिये आश्रय करि प्रवर्ते ऐसे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं।
गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 283/608/13 अनंतसंसारकारणत्वात्, अनंतं मिथ्यात्वम् अनंतभवसंस्कारकालं वा अनुबध्नंति संघटयंतीत्यनंतानुबंधिन इति निरुक्तिसामर्थ्यात्। = अनंत संसार का कारण मिथ्यात्व वा अनंत संसार अवस्था रूप काल ताहि अनुबध्नंति कहिए संबंध रूप करें तिनिको अनंतानुबंधी कहिए। ऐसा निरुक्ति से अर्थ है।
दर्शनपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 2/पं. जयचंद
"जो सर्वथा एकांत तत्त्वार्थ के कहने वाले जे अन्यमत, जिनका श्रद्धान तथा बाह्य वेष, ता विषै सत्यार्थपने का अभिमान करना, तथा पर्यायनि विषै एकांत तै आत्मबुद्धि करि अभिमान तथा प्रीति करनी, यह अनंतानुबंधी का कार्य है। ( समयसार / 20/क./137/पं. जयचंद )। - अनंतानुबंधी का स्वभाव सम्यक्त्व को घातना है
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/115 पढमो दंसणघाई विदिओ तह घाइ देसविरइ त्ति। तइओ संजमघाई चउत्थो जहखायघाईया। = प्रथम अनंतानुबंधी कषाय सम्यग्दर्शन का घात करती है, द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशविरति की घातक है। तृतीय प्रत्याख्यानावरण कषाय सकलसंयम की घातक है और चतुर्थ संज्वलन कषाय यथाख्यात चारित्र की घातक है।
(पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/110), (गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा संख्या/283/608), ( गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 45), (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 1/204-205) - देखें सासादन - 2.6। - वास्तव में यह सम्यक्त्व व चारित्र दोनों को घातती है
धवला पुस्तक 1/1,1,10/165/1 अनंतानुबंधिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपादनफलत्वात्। ...यस्माच्च विपरीताभिनिवेशोऽभूदनंतानुबंधिनो, न तद्दर्शनमोहनीयं तस्य चारित्रावरणत्वात्। तस्योभयप्रतिबंधकत्वादुभयव्यपदेशो न्याय्य इति चेन्न, इष्टत्वात्। = अनंतानुबंधी प्रकृतियों की द्विस्वभावता का कथन सिद्ध हो जाता है तथा जिस अनंतानुबंधी के उदय से दूसरे गुणस्थान में विपरीतभिनिवेश होता है, वह अनंतानुबंधी दर्शन मोहनीय का भेद न होकर चारित्र का आवरण करने वाला होने से चारित्र मोहनीय का भेद है।
प्रश्न - अनंतानुबंधी सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबंधक होने से उसे उभयरूप संज्ञा देना न्याय संगत है? उत्तर - यह आरोप ठीक नहीं है, क्योंकि यह तो हमें इष्ट ही है, अर्थात् अनंतानुबंधी को सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों का प्रतिबंधक माना ही है।
( धवला पुस्तक 6/1,9-1,23/42/3)।
गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./546/79/12 मिथ्यात्वेन सह उदीयमाना कषायः सम्यक्त्वं घ्नंति। अनंतानुबंधिना च सम्यक्त्वसंयमौ। = मिथ्यात्व के साथ उदय होने वाली कषाय सम्यक्त्व को घातती है और अनंतानुबंधी के साथ सम्यक्त्व व चारित्र दोनों को घातती है। - एक ही प्रकृति में दो गुणों को घातने की शक्ति कैसे संभव है
धवला पुस्तक 6/1,9-1,23/42/4 का एत्थ जुत्ती। उच्चदे-ण ताव एदे दंसणमोहणिज्जा, सम्मत्त-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तेहि चेव आवरियस्स सम्मत्तस्स आवरणे फलाभावादो। ण चारित्तमोहणिज्जा वि, अपच्चक्खाणावरणादीहिं आवरिदचारित्तस्स आवरणे फलाभावा। तदो एदोसिमभावो चेय। ण च अभावो सुत्तम्हि एसेसिमत्थित्तपदुप्पायणादो। तम्हा एदेसिमुदएण सासणगुणुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो सिद्ध दंसणमोहणीयत्तं चारित्तमोहणीयत्तं च। = प्रश्न - अनंतानुबंधी कषायों की शक्ति दो प्रकार की है, इस विषय में क्या युक्ति है? उत्तर - ये चतुष्क दर्शन मोहनीय स्वरूप नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के द्वारा ही आवरण किये जाने वाले दर्शन मोहनीय के फल का अभाव है। और न इन्हें चारित्र मोहनीय स्वरूप ही माना जा सकता है, क्योंकि अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के द्वारा आवरण किये गये चारित्र के आवरण करने में फल का अभाव है। इसलिए उपर्युक्त अनंतानुबंधी कषायों का अभाव ही सिद्ध होता है। किंतु उनका अभाव नहीं है, क्योंकि सूत्र में इनका अस्तित्व पाया जाता है। इसलिए इन अनंतानुबंधी कषायों के उदय से सासादन भाव की उत्पत्ति अन्यथा हो नहीं सकती है। इस हो अन्यथानुपत्ति से इनके दर्शनमोहनीयता और चारित्रमोहनीयता अर्थात् सम्यक्त्व और चारित्र को घात करने की शक्ति का होना, सिद्ध होता है। - चारित्र मोह की प्रकृति सम्यक्त्व घातक कैसे?
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 1140 सत्यं तत्राविनाभाविनो बंधसत्त्वोदयं प्रति। द्वयोरन्यतरस्यातो विवक्षायां न दूषणम् ॥1140॥ = मिथ्यात्व के बंध, उदय, सत्त्व के साथ अनंतानुबंधी कषाय का अविनाभाव है। इसलिए दो में से एक की विवक्षा करने से दूसरे की विवक्षा आ जाती है। अतः कोई दोष नहीं।
गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 546/71/12 मिथ्यात्वेन सहोदीयमानाःकषायाःसम्यक्त्वं घ्नंति। अनंतानुबंधिना च सम्यक्त्वसंयमौ। = मिथ्यात्व के साथ उदय होने वाली कषाय सम्यक्त्व को घातती है और अनंतानुबंधी के द्वारा सम्यक्त्व और संयम घाता जाता है। - अनंतानुबंधी का जघन्य व उत्कृष्ट सत्त्व काल
- ओघ की अपेक्षा
कषायपाहुड़ पुस्तक 2/$118/99/5 अणंताणु0 चउक्क विहत्ती केवचिरं का0। अणादि0 अपज्जवसिदा अणादि0 सपज्जवसिदा, सादि सपज्जवसिदा वा। जा सा सपज्जवसिदा तिस्से इमो णिद्देसो-जह0 अंतोमुहुत्तं, उक्क0 अद्धपोग्गलपरियट्टं देसूण। = अनंतानुबंधी चतुष्क की विभक्ति वाले जीवों का कितना काल है? अनादि-अनंत, अनादि सांत और सादि सांत काल है। सादि सांत अनंतानुबंधी चतुष्कविभक्ति का जघन्यकाल अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है।
कषायपाहुड़ पुस्तक 2/$125/108/5 अथवा सव्वत्थ उप्पज्जमाणसासणस्स एगसमओ वत्तव्वो। पंचिंदियअपज्जत्तएसु सम्मत्त-सम्मामि0 विहत्ति0 जह0 एगसमओ। = अथवा जिन आचार्यों के मत से सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेंद्रियादि सभी पर्यायों में उत्पन्न होता है उनके मतसे पंचेंद्रिय और पंचेंद्रिय पर्याप्त जीवों के अनंतानुबंधी चतुष्क का एक समय जघन्य काल कहना चाहिए। - आदेश की अपेक्षा
कषायपाहुड़ पुस्तक 2/$119/101/1 आदेसेण णिरयगदीए णेरयिएसु मिच्छत्त-बारस-कसाय-णवनोकसाय0 विहत्ती केव0। जह0 दस वाससहस्साणि, उक्क0 तेत्तीसं सागरोवमाणि। ...पढमादि जाव सत्तमा त्ति एव चेव वत्तव्वं। ...णवरि सत्तमाए पुढवीए अणंताणु0 चउक्कस्स जह0 अंतोमुहुत्त। = आदेश की अपेक्षा नरकगति में नारकियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषाय विभक्ति का कितना काल है। उत्तर - जघन्य काल दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सम्यक्त्व-प्रकृति, सम्यक्मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी चतुष्क का काल भी समझना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनका जघन्यकाल एक समय है। पहली पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार समझना चाहिए। परंतु सातवीं पृथिवी में अनंतानुबंधी का जघन्यकाल अंतर्मुहूर्त है।
कषायपाहुड़ पुस्तक 2/$120/102/1 तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु...अणंताणु0 चउक्कस्स जह0 एगसमओ, उक्क0 दोण्हं पि अणंतकालो। = तिर्यंच गति में अनंतानुबंधी चतुष्क का जघन्य काल एक समय है तथा पूर्वोक्त बाईस और अनंतानुबंधी चतुष्क इन दोनों का उत्कृष्ट अनंतकाल है।
कषायपाहुड़ पुस्तक 2/$120/10/27 एवं मणुसतियस्स वत्तव्वं। कषायपाहुड़ पुस्तक 2/$122/104/2 देवाणं णारगभंगो। = मनुष्य-त्रिक् अर्थात् सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी के भी उक्त अट्ठाईस प्रकृतियों का काल समझना चाहिए। देवगति में सामान्य देवों के अट्ठाईस प्रकृतियों की विभक्ति का सत्त्व काल सामान्य नारकियों के समान कहना चाहिए।
- ओघ की अपेक्षा
- जघन्य व उत्कृष्ट अंतर काल
कषायपाहुड़ पुस्तक 2/$135/123/7 अणंताणुबंधिचउक्क0 विहत्ति0 जह0 अंतोमुहुत्त, उक्क0 वेछावट्ठिसागरोवमाणि देसूणाणि। = अनंतानुबंधी चतुष्क का जघन्य अंतरकाल अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अंतरकाल कुछ कम एक सौ बत्तीस सागर है। - अंतर्मुहूर्त मात्र उदयवाली भी इस कषाय में अनंतानुबंधीपना कैसे?
धवला पुस्तक 6/1,9-1,23/41/9 एदेसिमुदयकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो चेय,...तदो एददेसिमणंतभवाणुबंधित्तं ण जुज्जदि त्ति। ण एस दोसो, एदेहि जीवम्हि जणिदसंसकारस्स अणंतेसु भवेसु अवट्ठाणब्भुवगमादो। = प्रश्न - उन अनंतानुबंधी क्रोधादिकषायों का काल अंतर्मुहूर्त मात्र ही है ...अतएव इन कषायों में अनंतानुबंधिता घटित नहीं होती?
उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इन कषायों के द्वारा जीव में उत्पन्न हुए संस्कार का अवस्थान अनंतभवों में माना गया है।(विशेष देखें अनंतानुबंधी - 1)।
- अनंतानुबंधी का वासना काल
गोम्मट्टसार कर्मकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या./46,47 अंतोमुहुत्तपक्खं छम्मासं संखासंखणंतभवं। संजलणमादियाणं वासणकालो दुणियमेण ॥46॥ उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकालः स च संज्वलनानामंतर्मुहूर्तः। प्रत्याख्यानावरणानामेकपक्ष अप्रत्याख्यानावरणानां षण्मासाः अनंतानुबंधिनां संख्यातभवाः असंख्यातभवाः, अनंतभवाः वा भवंति नियमेन। = उदय का अभाव होते संतै भी जो कषायनिका संस्कार जितने काल रहै ताका नाम वासनाकाल है। सो संज्वलन कषायनिका वासनाकाल अंतर्मुहूर्त मात्र है। प्रत्याख्यानकषायनिका एक पक्ष है। अप्रत्याख्यान कषायनिका छः महीना है। अनंतानुबंधी कषायनिका संख्यात भव, असंख्यात भव, अनंत भव पर्यंत वासना काल है। जैसे-काहू पुरुष ने क्रोध किया पीछे क्रोध मिटि और कार्य विषै लग्या, तहाँ क्रोध का उदय तो नाहीं परंतु वासना काल रहै, तेतैं जीहस्यों क्रोध किया था तीहस्यों क्षमा रूप भी न प्रवर्तै सो ऐसैं वासना काल पूर्वोक्त प्रमाण सब कषायनिका नियम करके जानना।(चारित्रसार पृष्ठ 90/1)।
- अन्य संबंधित विषय
• देखें - अनंतानुबंधी प्रकृति का बंध उदय सत्त्व व तत्संबंधी नियम व शंका समाधानवह वह नाम ।
• अनंतानुबंधी में दशों करणों की संभावना – देखें करण - 2।
• अनंतानुबंधी की उद्वेलना - देखें संक्रमण - 4।
• कषायों की तीव्रता मंदता में अनंतानुबंधी नहीं, लेश्या कारण है – देखें कषाय - 3।
• अनंतानुबंधी का सर्वघातियापन – देखें अनुभाग - 4।
• अनंतानुबंधी की विसंयोजना - देखें विसंयोजना ।
• यदि अनंतानुबंधी द्विस्वभावी है तो इसे दर्शनचारित्र मोहनीय क्यों नहीं कहते? – देखें अनंतानुबंधी - 3।
• अनंतानुबंधी व मिथ्यात्वजन्य विपरीताभिनिवेश में अंतर – देखें सासादन - 1.2।