आर्त्तध्यान: Difference between revisions
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वैसे तो ध्यान शब्द पारमार्थिक योग व | | ||
< | == सिद्धांतकोष से == | ||
< | <p class="HindiText">वैसे तो ध्यान शब्द पारमार्थिक योग व समाधि के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परंतु वास्तव में किन्हीं भी शुभ वा अशुभ परिणामों की एकाग्रता का हो जाना ही ध्यान है। संसारी जीव को चौबीस घंटे ही कलुषित परिणाम वर्तते हैं। कुछ इष्ट-वियोग जनित होते हैं, कुछ अनिष्ट-संयोग जनित, कुछ वेदना-जनित और कुछ आगामी भोगों की तृष्णा-जनित; इत्यादि सभी प्रकार के परिणाम आर्त्तध्यान कहलाते हैं। जो जीव को पारमार्थिक अधःपतन के कारण हैं और व्यवहार से अधोगति के कारण हैं। यद्यपि मोक्षमार्ग के साधकों को भी पूर्व अभ्यास के कारण वे कदाचित् होते हैं, परंतु ज्यों-ज्यों वह ऊपर चढ़ता है त्यों-त्यों ये दबते चले जाते हैं।</p> | ||
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<li class="HindiText"><strong>भेद व लक्षण</strong></li> | |||
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< | <li class="HindiText">[[ #1.1 | आर्त्तध्यान का सामान्य लक्षण]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #1.2 | आर्त्तध्यान का आध्यात्मिक लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.3 | आर्त्तध्यान के भेद]]</li> | |||
< | <li class="HindiText">[[ #1.4 | अनिष्ट योगज आर्त्तध्यान का लक्षण]]</li> | ||
< | <li class="HindiText">[[ #1.5 | इष्ट वियोगज आर्त्तध्यान का लक्षण]]</li> | ||
[[ | <li class="HindiText">[[ #1.6 | वेदना संबंधी आर्त्तध्यान का लक्षण]]</li> | ||
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<li class="HindiText"><strong>आर्त्तध्यान निर्देश</strong></li> | |||
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<p class=" | <li class="HindiText">[[ #2.1 | आर्त्तध्यान में संभव भाव व लेश्या]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #2.2 | आर्त्तध्यान का फल]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.3 | मनोज्ञ व निदान आर्त्तध्यान में अंतर]]</li> | |||
<p class=" | </ol> | ||
<li class="HindiText"><strong>आर्त्तध्यान का स्वामित्व</strong></li> | |||
<p class=" | <ol> | ||
<li class="HindiText">[[ #3.1 | 1-6 गुणस्थान तक होता है]]</li> | |||
< | <li class="HindiText">[[ #3.2 | आर्त्तध्यान के बाह्य चिह्न]]</li> | ||
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< | </ol> | ||
<p class="HindiText"><b>1. भेद व लक्षण</b></p> | |||
<p class="HindiText" id="1.1"><b>1. आर्त्तध्यान का सामान्य लक्षण</b></p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/28/445/10</span> <p class="SanskritText">ऋतं, दुःखं, अर्द नमर्तिर्वा, तत्र भवमार्तम्।</p> | |||
<p class="HindiText">= आर्त्त शब्द `ऋत' अथवा `अर्ति' इनमें-से किसी एक से बना है। इनमें-से `ऋत' का अर्थ दुःख है और `अर्ति' का `अर्दनं अर्तिः' ऐसी निरूक्ति होकर उसका अर्थ पीड़ा पहुँचाना है। इसमें (ऋत में या अर्ति में) जो होता है वह आर्त (वा आर्तध्यान) है।</p> | |||
<p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/28/1/627/26)</span>, <span class="GRef">( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 78/226)</span></p> | |||
<span class="GRef">महापुराण सर्ग संख्या 21/40-41</span> <p class="SanskritText">मूर्च्छाकौशील्यकेनाश्यकौसीद्यान्यतिगृघ्नुताः। भयोद्वेगानुशोकाच्च लिंगान्यार्ते स्मृतानि वै ॥40॥ बाह्यं च लिंगमार्तस्य गात्रग्लानिर्विवर्णता। हस्तान्यस्तकपोलत्वं साश्रुतान्यच्च तादृशम् ॥41॥ </p> | |||
<p class="HindiText">= परिग्रह में अत्यंत आसक्त होना, कुशील रूप प्रवृत्ति करना, कृपणता करना, ब्याज लेकर आजीविका करना, अत्यंत लोभ करना, भय करना, उद्वेग करना और अतिशय शोक करना ये आर्त्त ध्यान के बाह्य चिह्न हैं ॥40॥ इसी प्रकार शरीर का क्षीण हो जाना, शरीर की कांति नष्ट हो जाना, हाथों पर कपोल रखकर पश्चात्ताप करना, आँसू डालना, तथा इसी प्रकार और भी अनेक कार्य आर्तध्यान के बाह्य चिह्न कहलाते हैं।</p> | |||
<p><span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 167/4)</span></p> | |||
<span class="GRef">ज्ञानार्णव अधिकार 25/23/257</span> <p class="SanskritText">ऋते भवमथार्त्तं स्यादसद्ध्यानं शरीरिणाम्। दिग्मोहान्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात् ॥23॥</p> | |||
<p class="HindiText">= ऋत कहिये पीड़ा-दुःख उपजै सो आर्त्तध्यान है। सो वह ध्यान अप्रशस्त है। जैसे किसी प्राणी के दिशाओं के भूल जाने से उन्मत्तता होती है उसके समान है। यह ध्यान अविद्या अर्थात् मिथ्याज्ञान की वासना के वश से उत्पन्न होती है।</p> | |||
<p class="HindiText" id="1.2"><b>2. आर्त्तध्यान का आध्यात्मिक लक्षण</b></p> | |||
<span class="GRef">चारित्रसार पृष्ठ 167/5</span> <p class="SanskritText">स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकार्त्तध्यानं।</p> | |||
<p class="HindiText">= (अन्य लोग जिसका अनुमान कर सकें वह बाह्य आर्त्तध्यान है) जिसे केवल अपना ही आत्मा जान सके उसे आध्यात्मिक आर्त्तध्यान कहते हैं।</p> | |||
<p class="HindiText" id="1.3"><b>3. आर्त्तध्यान के भेद</b></p> | |||
<span class="GRef">ज्ञानार्णव अधिकार 25/24</span> <p class="SanskritText">अनिष्टयोगजन्याद्यं तथेष्टार्थात्ययात्प्-रम्। रुक्प्रकोपात्तृतीयं स्यान्निदानातुर्यमंगिनाम् ॥24॥</p> | |||
<p class="HindiText">= पहिला आर्त्तध्यान तो जीवों के अनिष्ट पदार्थों के संयोग से होता है। दूसरा आर्त्तध्यान इष्ट पदार्थ के वियोग से होता है। तीसरा आर्त्तध्यान रोग के प्रकोप की पीड़ा से होता है और चौथा आर्त्तध्यान निदान कहिये आगामी काल में भोगों की वांछा के होने से होता है। इस प्रकार चार भेद आर्त्तध्यान के हैं।</p> | |||
<p class=" | <p class="HindiText"> <span class="GRef">(महापुराण सर्ग संख्या 21/31-36), (चारित्रसार पृष्ठ 167/4)</span></p> | ||
<span class="GRef">चारित्रसार पृष्ठ 167/4</span> <p class="SanskritText">तत्रात्तं बाह्याध्यात्मिकभेदाद् द्विविकल्पं।</p> | |||
<p class=" | <p class="HindiText">= बाह्य और अध्यात्म के भेद से आर्त्तध्यान दो प्रकार का है।....और वह आध्यात्मिक ध्यान चार प्रकार का होता है।</p> | ||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 48/201</span> <p class="SanskritText">इष्टवियोगानिष्टसंयोगव्याधिप्रतिकारभोगनिदानेषु वांछारूपं चतुर्विधमार्तध्यानम्।</p> | |||
< | <p class="HindiText">= इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग और रोग इन तीनों को दूर करने में तथा भोगों वा भोगों के कारणों में वांछा रूप चार प्रकार का आर्त्तध्यान होता है।</p> | ||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ 167/4)</span></p> | |||
<p class="HindiText">आर्त्तध्यान</p> | |||
< | <p class="HindiText">मनोज्ञ अमनोज्ञ</p> | ||
<p>अनुत्पत्ति संप्रयोग सकल्प अनुत्पत्ति विप्रयोग संकल्प</p> | |||
<p>बाह्य आध्यात्मिक बाह्य आध्यात्मिक</p> | |||
<p>चेनत कृत अचेनत कृत शारीरिक मानसिक शारीरिक मानसिक</p> | |||
<p>चेतनकृत अचेतनकृत</p> | |||
<p class="HindiText" id="1.4"><b>4. अनिष्ट योगज आर्त्तध्यान का लक्षण</b></p> | |||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/30</span> <p class="SanskritText">आर्त्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार ॥30॥</p> | |||
<p class="HindiText">= अमनोज्ञ पदार्थ के प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए चिंता सातत्य का होना प्रथम आर्त्तध्यान है।</p> | |||
<p class=" | <span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/30/9</span> <p class="SanskritText">अमनोज्ञमप्रियं विषकंटकशत्रुशस्त्रादि, तद्बाधाकारणत्वाद् `अमनोज्ञम्' इत्युच्यते। तस्य संप्रयोगे, स कथं नाम न मे स्यादिति संकल्पश्चिंता प्रबंधः स्मृतिसमन्वाहारः प्रथममार्त्त मित्थाख्यायते।</p> | ||
<p class="HindiText">= विष, कंटक, शत्रु और शस्त्र आदि जो अप्रिय पदार्थ हैं वे बाधा के कारण होने से अमनोज्ञ कहे जाते हैं। उनका संयोग होने पर वे मेरे कैसे न हों इस प्रकार का संकल्प चिंता प्रबंध अर्थात् स्मृति समन्वाहार यह प्रथम आर्त्तध्यान कहलाता है।</p> | |||
<p class=" | <p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/30/1-2/628)</span>, <span class="GRef">( महापुराण सर्ग संख्या 21/32,35)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 89</span> <p class="SanskritText">अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्त्तध्यानम्।</p> | |||
<p | <p class="HindiText">= अनिष्ट के संयोग से उत्पन्न होने वाला जो आर्त्तध्यान....।</p> | ||
<span class="GRef">चारित्रसार पृष्ठ 168/5</span> <p class="SanskritText">एतद्दुःखसाधनसद्भावे तस्य विनाशकांक्षोत्पन्नविनाशसंकल्पाध्यवसानं द्वितीयार्तं।</p> | |||
<p class=" | <p class="HindiText">= (शारीरिक व मानसिक) दुःखों के कारण उत्पन्न होने पर उसके विनाश की इच्छा उत्पन्न होने से उनके विनाश के संकल्प का बार-बार चिंतवन करना दूसरा आर्त्तध्यान है।</p> | ||
< | <span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 473</span> <p class=" PrakritText ">दुक्खयर-विसय-जोए-केम इमं चयदि इदि विचितंतो। चेट्ठदि जो विक्खित्तो अट्ठ-ज्झाणं हवे तस्स ॥473॥</p> | ||
<p class="HindiText">= दुखकारी विषयों का संयोग होने पर `यह कैसे दूर हो' इस प्रकार विचारता हुआ जो विक्षिप्त चित्त हो चेष्टा करता है उसके आर्त्त ध्यान होता है।</p> | |||
<p class=" | <span class="GRef">ज्ञानार्णव अधिकार 25/25-28</span> <p class="SanskritText">ज्वलनजलविषास्त्रव्यालशार्दूलदैत्यैः स्थलजलविलसत्त्वै र्दूर्जनारातिभूपैः। स्वजनधनशरीरध्वंसिभिस्तैरनिष्टैर्भवति यदिह योगादाद्यमात्त तदेतत् ॥25॥ तथा चरत्थिरैर्भावैरनेकैः समुपस्थितैः। अनिष्टैर्यन्मनः क्लिष्टं स्यादार्त्तं तत्प्रकीर्तितम् ॥26॥ श्रुतैर्दृष्टैः स्मृतैर्ज्ञातेः प्रत्यासत्तिं च संसृतैः। योऽनिष्ठार्थैर्मनःक्लेशः पूर्वमार्त्तं तदिष्यते ॥27॥ अशेषानिष्टसंयोगे तद्वियोगानुचिंतनम्। यत्स्यात्तदपि तत्त्वज्ञैः पूर्वमार्त्तं प्रकीर्तितम् ॥28॥</p> | ||
<p class="HindiText">= इस जगत् में अपना स्वजन धन शरीर इनके नाश करने वाले अग्नि, जल, विष, सर्प, शस्त्र, सिंह, दैत्य तथा स्थल के जीव, जल के जीव, बिल के जीव तथा दुष्ट जन, वैरी राजा इत्यादि अनिष्ट पदार्थों के संयोग से जो हो सो पहिला आर्त्तध्यान है ॥25॥ तथा चर और स्थिर अनेक अनिष्ट पदार्थों के संयोग होने पर जो मन क्लेश रूप हो उसको भी आर्त्तध्यान कहा है ॥26॥ जो सुने, देखे, स्मरण में आये, जाने हुए तथा निकट प्राप्त हुए अनिष्ट पदार्थों से मन को क्लेश होता है उसे पहिला आर्त्तध्यान कहते हैं ॥27॥ जो समस्त प्रकार के संयोग होने पर उनके वियोग होने का बार-बार चिंतन हो उसे भी तत्त्व के जानने वालों ने पहिला अनिष्ट संयोगज नामा आर्त्तध्यान कहा है ॥28॥</p> | |||
<p class="HindiText" id="1.5"><b>5. इष्ट वियोगज आर्त्तध्यान का लक्षण</b></p> | |||
< | <span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/31 </span><p class="SanskritText">विपरीतं मनोज्ञस्य ॥31॥</p> | ||
< | <p class="HindiText">= मनोज्ञ वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति की सतत चिंता करना दूसरा आर्त्तध्यान है।</p> | ||
< | <p><span class="GRef">(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1702)</span></p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/31/447/1</span> <p class="SanskritText">मनोज्ञस्येष्टस्य स्वपुत्रदारधनादेर्विप्रयोगे तत्संप्रयोगाय संकल्पश्चिंताप्रबंधो द्वितीयमार्त्तमवगन्तव्यम्।</p> | |||
<p class=" | <p class="HindiText">= मनोज्ञ अर्थात् अपने इष्ट पुत्र स्त्री और धनादिक के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए संकल्प अर्थात् निरंतर चिंता करना दूसरा आर्त्तध्यान जानना जाहिए।</p> | ||
<p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/31/1/628)</span> <span class="GRef">( महापुराण सर्ग संख्या 21/32,34)</span></p> | |||
< | <span class="GRef">चारित्रसार पृष्ठ 169/1</span> <p class="SanskritText">मनोज्ञं नाम धनधान्यहिरण्यसुवर्णवस्तुवाहनशयनासनस्रक्चंदनवनितादिसुखसाधनं मे स्यादिति गर्द्धनं। मनोज्ञस्य विप्रयोगस्य उत्पत्तिसंकल्पाध्यावसानं तृतीयात्तं॥</p> | ||
<p class="HindiText">= धन, धान्य, चाँदी, सुवर्ण, सवारी, शय्या, आसन, माला, चंदन और स्त्री आदि सुखों के साधन को मनोज्ञ कहते हैं। ये मनोज्ञ पदार्थ मेरे हों इस प्रकार चिंतवन करना, मनोज्ञ पदार्थ के वियोग होने पर उनके उत्पन्न होने का बार-बार चिंतन करना आर्त्तध्यान है।</p> | |||
<span class="GRef">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 474</span> <p class=" PrakritText ">मणहर-विसय-विओगे-कह तं वामेमि इदि वियप्पो जो। संतावेण पयट्टो सोच्चिय अट्टं हवे झाणं ॥474॥</p> | |||
<p class=" | <p class="HindiText">= मनोहर विषय का वियोग होने पर `कैसे इसे प्राप्त करूं' इस प्रकार विचारता हुआ जो दुःख से प्रवृत्ति करता है यह भी आर्त्तध्यान है।</p> | ||
<span class="GRef">ज्ञानार्णव अधिकार 25/29-31</span> <p class="SanskritText">राज्यैश्वर्यकलत्रबांधवसुहृत्सौभाग्यभोगात्ययचित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषयप्रध्वंसभावेऽथवा। संत्रासभ्रमशोकमोहविवशैर्यत्खिद्यतेऽहर्निशं तत्स्यादिष्टवियोगजं तनुमतां ध्यानं कलंकास्पदम् ॥21॥ दृष्टश्रुतानुभूतैस्तैः पदार्थैश्चित्तरंजकैः। वियोगे यन्मनः खिन्नं स्यादार्त्तं तद्द्वितीयकम् ॥30॥ मनोज्ञवस्तुविधवसे मनस्तत्संगमार्थिभिः क्लिश्यते यत्तदेतत्स्याद्द्वितीयार्त्तस्य लक्षणम् ॥31॥</p> | |||
<p class="HindiText">= जो राज्य ऐश्वर्य स्त्री, कुटुंब, मित्र, सौभाग्य भोगादि के नाश होने पर तथा चित्त को प्रीति उत्पन्न करने वाले सुंदर स्त्रियों के विषयों का प्रध्वंस होते हुए, संत्रास, पीड़ा, भ्रम, शोक, मोह के कारण निरंतर खेद रूप होना सो जीवों के इष्ट वियोग जनित आर्त्तध्यान है, और यह ध्यान पाप का स्थान है ॥29॥ देखे, सुने, अनुभव किये, मन को रंजायमान करने वाले पूर्वोक्त पदार्थों का वियोग होने से जो मन को खेद हो वह भी दूसरा आर्त्तध्यान है ॥30॥ अपने मन की प्यारी वस्तु के विध्वंस होने पर पुनः उसकी प्राप्ति के लिए जो क्लेश रूप होना सो दूसरे आर्त्तध्यान का लक्षण है।</p> | |||
<span class="GRef">नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 89</span><p class="SanskritText"> स्वदेशत्यागाद् द्रव्यनाशाद् मित्रजनविदेशगमनात् कमनीयकामिनीवियोगात्-समुपजातमार्तध्यान्।</p> | |||
<p class="HindiText">= स्वदेश के त्याग से, द्रव्य के नाश से, मित्रजन के विदेश गमन से, कमनीय कामिनी के वियोग से उत्पन्न होने वाला आर्त्तध्यान है।</p> | |||
<p class="HindiText" id="1.6"><b>6. वेदना संबंधी आर्त्तध्यान का लक्षण</b></p> | |||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/32</span> <p class="SanskritText">वेदनायाश्च ॥32॥</p> | |||
< | <p class="HindiText">= वेदना के होने पर (अर्थात् वातादि विकार जनित शारीरिक वेदना के होने पर) उसे दूर करने की सतत चिंता करना तीसरा आर्त्तध्यान है।</p> | ||
< | <span class="GRef">ज्ञानार्णव अधिकार 25/32-33</span> <p class="SanskritText">कासश्वासभगंदरजलोदरजराकुष्ठातिसारज्वरैः, पित्तश्लेष्ममरुत्प्रकोपजनितैः रोगैः शरीरांतकैः। स्यात्सत्त्वप्रबलैः प्रतिक्षणभवैर्यद्याकुलत्वं नृणाम्, तद्रोगार्त्तमनिंदितैः प्रकटितं दुर्वार-दुःखाकरम् ॥32॥ स्वल्पानामपि रोगाणां माभृत्स्वप्नेऽपि संभवः। ममेतया नृणां चिंता स्यादार्त्तं तत्ततीयवम् ॥33॥</p> | ||
<p class="HindiText">= वात पित्त कफ के प्रकोप से उत्पन्न हुए शरीर को नाश करने वाला वीर्य से प्रबल और क्षण-क्षण में उत्पन्न होने वाले कास, श्वास, भगंदर, जलोदर, जरा, कोढ़, अतिसार, ज्वरादिक रोगों से मनुष्यों के जो व्याकुलता होती है, उसे अनिंदित पुरुषों ने रोग पीड़ा चिंतवन नामा आर्त्तध्यान कहा है, यह ध्यान दुर्निवार और दुखों का आकार है जो कि आगामी काल में पाप बंध का कारण है ॥32॥ जीवों के ऐसी चिंता हो कि मेरे किंचित् रोग की उत्पत्ति स्वप्न में भी न हो सो ऐसा चिंतवन तीसरा आर्त्तध्यान है ॥33॥</p> | |||
<p class=" | <p class="HindiText">• निदान व अपध्यान के लक्षण - देखें [[ निदान ]]। [[ अपध्यान]]।</p> | ||
<p class="HindiText"><b>2. आर्त्तध्यान निर्देश</b></p> | |||
<p class=" | <p class="HindiText" id="2.1"><b>1. आर्त्तध्यान में संभव भाव व लेश्या</b></p> | ||
<span class="GRef">महापुराण सर्ग संख्या 21/38</span> <p class="SanskritText">अप्रशस्ततमं लेश्यात्रयमाश्रित्य जृंभितं। अंतर्मुहूर्तकालं तद् अप्रशप्तावलंबनं ॥38॥</p> | |||
< | <p class="HindiText">= यह चारों प्रकार का आर्त्तध्यान अत्यंत अशुभ कृष्ण, नील और कापोत लेश्या का आश्रय कर उत्पन्न होता है, इसका काल अंतर्मुहूर्त है और आलंबन अशुभ है।</p> | ||
<p class="HindiText"><span class="GRef">( ज्ञानार्णव अधिकार 25/40)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 169/3)</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="2.2"><b>2. आर्त्तध्यान का फल</b></p> | |||
<p class=" | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/29</span> <p class="HindiText">यह संसार का कारण है।</p> | ||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/33/1/629 </span><p class="SanskritText">तिर्यग्भवगमनपर्यवसानम्।</p> | |||
<p class="HindiText">= इस आर्त्तध्यान का फल तिर्यंच गति है।</p> | |||
<p><span class="GRef">(हरिवंश पुराण सर्ग 56/18)</span>, <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 169/4)</span></p> | |||
<span class="GRef">ज्ञानार्णव अधिकार 25/42</span> <p class="SanskritText">अनंतदुःखसकीर्णस्य तिर्यग्गतैः, फलं...॥42॥</p> | |||
<p class="HindiText">= आर्त्तध्यान का फल अनंत दुखों से व्याप्त तिर्यंच गति है।</p> | |||
<p class="HindiText" id="2.3"><b>3. मनोज्ञ व निदान आर्त्तध्यान में अंतर</b></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 9/33/1/33</span> <p class="SanskritText">विपरीतं मनोज्ञस्येत्यनेनैव निदानं संगृहीतमिति; तन्न; किं कारणम्। अप्राप्तपूर्वविषयत्वान्निदानस्य। सुखमात्रया प्रलंभितस्याप्राप्तपूर्वप्रार्थनाभिमुख्यादनागतार्थप्राप्तिनिबंधनं निदानमित्यस्ति विशेषः।</p><p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - `विपरीतं मनोज्ञस्य' इस सूत्र से निदान का संग्रह हो जाता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि निदान अप्राप्त की प्राप्ति के लिए होता है, इसमें पारलौकिक विषय-सुख की गृद्धि से अनागत अर्थ की प्राप्ति के लिए सतत चिंता रहती है। इस प्रकार इन दोनों में अंतर है।</p> | |||
[ | <p class="HindiText">3. आर्त्तध्यान का स्वामित्व</p> | ||
<p class="HindiText" id="3.1"><b>1. 1-6 गुणस्थान तक होता है</b></p> | |||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/34</span> <p class="SanskritText">तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥34॥</p> | |||
[[Category: | <p class="HindiText">= यह आर्त्तध्यान अविरत, देशविरत, और प्रमत्त संयत जीवों के होता है।</p> | ||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/34/447/14</span> <p class="SanskritText">अविरताः सम्यग्दृष्ट्यंताः देशविरताः संयतासंयताः प्रमत्तसंयताः...तत्र विरतदेशविरतानां चतुर्विधमप्यार्त्तं भवति,...प्रमत्तसंयतानां तु निदानवर्ज्यमन्यदार्त्तत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात्क्दाचित्स्यात्।</p> | |||
<p class="HindiText">= असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीव अविरत कहलाते हैं, संयतासंयत जीव देशविरत कहलाते हैं, प्रमाद से युक्त क्रिया करने वाले प्रमत्त संयत कहलाते हैं। इनमें से अविरत और देशविरत जीवों के चारों ही प्रकार का आर्त्तध्यान होता है। प्रमत्त संयतों के तो निदान के सिवा बाकी के तीन प्रमाद की तीव्रता वश कदाचित् होते हैं।</p> | |||
<p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 9/34/1/629)</span> <span class="GRef">( हरिवंश पुराण सर्ग 56/18)</span> <span class="GRef">(महापुराण सर्ग संख्या 21/37)</span> <span class="GRef">( चारित्रसार पृष्ठ 169/3)</span> <span class="GRef">( ज्ञानार्णव अधिकार 25/38-39)</span> <span class="GRef">(द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 48,48/201)</span></p> | |||
<p class="HindiText">• साधु योग्य आर्तध्यान की सीमा - देखें [[ संयत#3 | संयत - 3]]</p> | |||
<p class="HindiText" id="3.2"><b>2. आर्त्तध्यान के बाह्य चिह्न</b></p> | |||
<span class="GRef">ज्ञानार्णव अधिकार 25/43</span> <p class="SanskritText">शंकाशोकभयप्रमादकलहश्चित्तभ्रमोद्भ्रांतयः। उन्मादो विषयोत्सुकत्वसमकृन्निद्रांगजाड्यश्रमाः। मूर्छादीनि शरीरिणामविरतं लिंगानि बाह्यान्यलमार्त्ता-धिष्ठितचेतसां श्रुतधरैर्व्यावर्णितानि स्फूटम् ॥43॥</p> | |||
<p class="HindiText">= इस आर्त्तध्यान के आश्रितचित्त वाले पुरुषों के बाह्य चिह्न शास्त्रों के पारगामी विद्वानों ने इस प्रकार कहे हैं कि-प्रथम तो शंका होती है, अर्थात् हर बात में संदेह होता है, फिर शोक होता है, भय होता है, प्रमाद होता है-सावधानी नहीं होती, कलह करता है, चित्तभ्रम हो जाता है, उद्भ्रांति होती है, चित्त एक जगह नहीं ठहरता, विषय सेवन में उत्कष्ठा होती है, निरंतर निद्रा गमन होता है, अंग में जड़ता होती है, खेद होता है, मूर्च्छा होती है, इत्यादि चिन्ह आर्तध्यानी के प्रगट होते हैं।</p> | |||
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== पुराणकोष से == | |||
<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> तीव्र संक्लेश भावों का उत्पादक, तिर्यंच आयु का बंधक, एक दुर्ध्यान । इष्टवियोगज, अनिष्टयोगज, वेदना जनित और निदानरूप भेद से यह चार प्रकार का होता है । <span class="GRef"> महापुराण 5.120-121, 21.31, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_56#4|हरिवंशपुराण - 56.4]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.47-48 </span></p> | |||
<p class="HindiText">यह ध्यान पहले से छठे गुणस्थान तक होता है । इसमें कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ होती है । परिग्रह में आसक्ति, कुशीलता, कृपणता, ब्याज लेकर आजीविका करना, अतिलोभ, भय, उद्वेग, शोक, शारीरिक क्षीणता, कांतिहीनता, पश्चात्ताप, आँसू बहाना आदि इसके बाह्य चिह्न है । <span class="GRef"> महापुराण 21.37-41, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_56#4|हरिवंशपुराण - 56.4-18]] </span></p> | |||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
वैसे तो ध्यान शब्द पारमार्थिक योग व समाधि के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परंतु वास्तव में किन्हीं भी शुभ वा अशुभ परिणामों की एकाग्रता का हो जाना ही ध्यान है। संसारी जीव को चौबीस घंटे ही कलुषित परिणाम वर्तते हैं। कुछ इष्ट-वियोग जनित होते हैं, कुछ अनिष्ट-संयोग जनित, कुछ वेदना-जनित और कुछ आगामी भोगों की तृष्णा-जनित; इत्यादि सभी प्रकार के परिणाम आर्त्तध्यान कहलाते हैं। जो जीव को पारमार्थिक अधःपतन के कारण हैं और व्यवहार से अधोगति के कारण हैं। यद्यपि मोक्षमार्ग के साधकों को भी पूर्व अभ्यास के कारण वे कदाचित् होते हैं, परंतु ज्यों-ज्यों वह ऊपर चढ़ता है त्यों-त्यों ये दबते चले जाते हैं।
- भेद व लक्षण
- आर्त्तध्यान का सामान्य लक्षण
- आर्त्तध्यान का आध्यात्मिक लक्षण
- आर्त्तध्यान के भेद
- अनिष्ट योगज आर्त्तध्यान का लक्षण
- इष्ट वियोगज आर्त्तध्यान का लक्षण
- वेदना संबंधी आर्त्तध्यान का लक्षण
- आर्त्तध्यान निर्देश
- आर्त्तध्यान का स्वामित्व
1. भेद व लक्षण
1. आर्त्तध्यान का सामान्य लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/28/445/10
ऋतं, दुःखं, अर्द नमर्तिर्वा, तत्र भवमार्तम्।
= आर्त्त शब्द `ऋत' अथवा `अर्ति' इनमें-से किसी एक से बना है। इनमें-से `ऋत' का अर्थ दुःख है और `अर्ति' का `अर्दनं अर्तिः' ऐसी निरूक्ति होकर उसका अर्थ पीड़ा पहुँचाना है। इसमें (ऋत में या अर्ति में) जो होता है वह आर्त (वा आर्तध्यान) है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/28/1/627/26), ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 78/226)
महापुराण सर्ग संख्या 21/40-41
मूर्च्छाकौशील्यकेनाश्यकौसीद्यान्यतिगृघ्नुताः। भयोद्वेगानुशोकाच्च लिंगान्यार्ते स्मृतानि वै ॥40॥ बाह्यं च लिंगमार्तस्य गात्रग्लानिर्विवर्णता। हस्तान्यस्तकपोलत्वं साश्रुतान्यच्च तादृशम् ॥41॥
= परिग्रह में अत्यंत आसक्त होना, कुशील रूप प्रवृत्ति करना, कृपणता करना, ब्याज लेकर आजीविका करना, अत्यंत लोभ करना, भय करना, उद्वेग करना और अतिशय शोक करना ये आर्त्त ध्यान के बाह्य चिह्न हैं ॥40॥ इसी प्रकार शरीर का क्षीण हो जाना, शरीर की कांति नष्ट हो जाना, हाथों पर कपोल रखकर पश्चात्ताप करना, आँसू डालना, तथा इसी प्रकार और भी अनेक कार्य आर्तध्यान के बाह्य चिह्न कहलाते हैं।
(चारित्रसार पृष्ठ 167/4)
ज्ञानार्णव अधिकार 25/23/257
ऋते भवमथार्त्तं स्यादसद्ध्यानं शरीरिणाम्। दिग्मोहान्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात् ॥23॥
= ऋत कहिये पीड़ा-दुःख उपजै सो आर्त्तध्यान है। सो वह ध्यान अप्रशस्त है। जैसे किसी प्राणी के दिशाओं के भूल जाने से उन्मत्तता होती है उसके समान है। यह ध्यान अविद्या अर्थात् मिथ्याज्ञान की वासना के वश से उत्पन्न होती है।
2. आर्त्तध्यान का आध्यात्मिक लक्षण
चारित्रसार पृष्ठ 167/5
स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकार्त्तध्यानं।
= (अन्य लोग जिसका अनुमान कर सकें वह बाह्य आर्त्तध्यान है) जिसे केवल अपना ही आत्मा जान सके उसे आध्यात्मिक आर्त्तध्यान कहते हैं।
3. आर्त्तध्यान के भेद
ज्ञानार्णव अधिकार 25/24
अनिष्टयोगजन्याद्यं तथेष्टार्थात्ययात्प्-रम्। रुक्प्रकोपात्तृतीयं स्यान्निदानातुर्यमंगिनाम् ॥24॥
= पहिला आर्त्तध्यान तो जीवों के अनिष्ट पदार्थों के संयोग से होता है। दूसरा आर्त्तध्यान इष्ट पदार्थ के वियोग से होता है। तीसरा आर्त्तध्यान रोग के प्रकोप की पीड़ा से होता है और चौथा आर्त्तध्यान निदान कहिये आगामी काल में भोगों की वांछा के होने से होता है। इस प्रकार चार भेद आर्त्तध्यान के हैं।
(महापुराण सर्ग संख्या 21/31-36), (चारित्रसार पृष्ठ 167/4)
चारित्रसार पृष्ठ 167/4
तत्रात्तं बाह्याध्यात्मिकभेदाद् द्विविकल्पं।
= बाह्य और अध्यात्म के भेद से आर्त्तध्यान दो प्रकार का है।....और वह आध्यात्मिक ध्यान चार प्रकार का होता है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 48/201
इष्टवियोगानिष्टसंयोगव्याधिप्रतिकारभोगनिदानेषु वांछारूपं चतुर्विधमार्तध्यानम्।
= इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग और रोग इन तीनों को दूर करने में तथा भोगों वा भोगों के कारणों में वांछा रूप चार प्रकार का आर्त्तध्यान होता है।
(चारित्रसार पृष्ठ 167/4)
आर्त्तध्यान
मनोज्ञ अमनोज्ञ
अनुत्पत्ति संप्रयोग सकल्प अनुत्पत्ति विप्रयोग संकल्प
बाह्य आध्यात्मिक बाह्य आध्यात्मिक
चेनत कृत अचेनत कृत शारीरिक मानसिक शारीरिक मानसिक
चेतनकृत अचेतनकृत
4. अनिष्ट योगज आर्त्तध्यान का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/30
आर्त्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार ॥30॥
= अमनोज्ञ पदार्थ के प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए चिंता सातत्य का होना प्रथम आर्त्तध्यान है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/30/9
अमनोज्ञमप्रियं विषकंटकशत्रुशस्त्रादि, तद्बाधाकारणत्वाद् `अमनोज्ञम्' इत्युच्यते। तस्य संप्रयोगे, स कथं नाम न मे स्यादिति संकल्पश्चिंता प्रबंधः स्मृतिसमन्वाहारः प्रथममार्त्त मित्थाख्यायते।
= विष, कंटक, शत्रु और शस्त्र आदि जो अप्रिय पदार्थ हैं वे बाधा के कारण होने से अमनोज्ञ कहे जाते हैं। उनका संयोग होने पर वे मेरे कैसे न हों इस प्रकार का संकल्प चिंता प्रबंध अर्थात् स्मृति समन्वाहार यह प्रथम आर्त्तध्यान कहलाता है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/30/1-2/628), ( महापुराण सर्ग संख्या 21/32,35)।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 89
अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्त्तध्यानम्।
= अनिष्ट के संयोग से उत्पन्न होने वाला जो आर्त्तध्यान....।
चारित्रसार पृष्ठ 168/5
एतद्दुःखसाधनसद्भावे तस्य विनाशकांक्षोत्पन्नविनाशसंकल्पाध्यवसानं द्वितीयार्तं।
= (शारीरिक व मानसिक) दुःखों के कारण उत्पन्न होने पर उसके विनाश की इच्छा उत्पन्न होने से उनके विनाश के संकल्प का बार-बार चिंतवन करना दूसरा आर्त्तध्यान है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 473
दुक्खयर-विसय-जोए-केम इमं चयदि इदि विचितंतो। चेट्ठदि जो विक्खित्तो अट्ठ-ज्झाणं हवे तस्स ॥473॥
= दुखकारी विषयों का संयोग होने पर `यह कैसे दूर हो' इस प्रकार विचारता हुआ जो विक्षिप्त चित्त हो चेष्टा करता है उसके आर्त्त ध्यान होता है।
ज्ञानार्णव अधिकार 25/25-28
ज्वलनजलविषास्त्रव्यालशार्दूलदैत्यैः स्थलजलविलसत्त्वै र्दूर्जनारातिभूपैः। स्वजनधनशरीरध्वंसिभिस्तैरनिष्टैर्भवति यदिह योगादाद्यमात्त तदेतत् ॥25॥ तथा चरत्थिरैर्भावैरनेकैः समुपस्थितैः। अनिष्टैर्यन्मनः क्लिष्टं स्यादार्त्तं तत्प्रकीर्तितम् ॥26॥ श्रुतैर्दृष्टैः स्मृतैर्ज्ञातेः प्रत्यासत्तिं च संसृतैः। योऽनिष्ठार्थैर्मनःक्लेशः पूर्वमार्त्तं तदिष्यते ॥27॥ अशेषानिष्टसंयोगे तद्वियोगानुचिंतनम्। यत्स्यात्तदपि तत्त्वज्ञैः पूर्वमार्त्तं प्रकीर्तितम् ॥28॥
= इस जगत् में अपना स्वजन धन शरीर इनके नाश करने वाले अग्नि, जल, विष, सर्प, शस्त्र, सिंह, दैत्य तथा स्थल के जीव, जल के जीव, बिल के जीव तथा दुष्ट जन, वैरी राजा इत्यादि अनिष्ट पदार्थों के संयोग से जो हो सो पहिला आर्त्तध्यान है ॥25॥ तथा चर और स्थिर अनेक अनिष्ट पदार्थों के संयोग होने पर जो मन क्लेश रूप हो उसको भी आर्त्तध्यान कहा है ॥26॥ जो सुने, देखे, स्मरण में आये, जाने हुए तथा निकट प्राप्त हुए अनिष्ट पदार्थों से मन को क्लेश होता है उसे पहिला आर्त्तध्यान कहते हैं ॥27॥ जो समस्त प्रकार के संयोग होने पर उनके वियोग होने का बार-बार चिंतन हो उसे भी तत्त्व के जानने वालों ने पहिला अनिष्ट संयोगज नामा आर्त्तध्यान कहा है ॥28॥
5. इष्ट वियोगज आर्त्तध्यान का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/31
विपरीतं मनोज्ञस्य ॥31॥
= मनोज्ञ वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति की सतत चिंता करना दूसरा आर्त्तध्यान है।
(भगवती आराधना / मूल या टीका गाथा 1702)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/31/447/1
मनोज्ञस्येष्टस्य स्वपुत्रदारधनादेर्विप्रयोगे तत्संप्रयोगाय संकल्पश्चिंताप्रबंधो द्वितीयमार्त्तमवगन्तव्यम्।
= मनोज्ञ अर्थात् अपने इष्ट पुत्र स्त्री और धनादिक के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए संकल्प अर्थात् निरंतर चिंता करना दूसरा आर्त्तध्यान जानना जाहिए।
(राजवार्तिक अध्याय 9/31/1/628) ( महापुराण सर्ग संख्या 21/32,34)
चारित्रसार पृष्ठ 169/1
मनोज्ञं नाम धनधान्यहिरण्यसुवर्णवस्तुवाहनशयनासनस्रक्चंदनवनितादिसुखसाधनं मे स्यादिति गर्द्धनं। मनोज्ञस्य विप्रयोगस्य उत्पत्तिसंकल्पाध्यावसानं तृतीयात्तं॥
= धन, धान्य, चाँदी, सुवर्ण, सवारी, शय्या, आसन, माला, चंदन और स्त्री आदि सुखों के साधन को मनोज्ञ कहते हैं। ये मनोज्ञ पदार्थ मेरे हों इस प्रकार चिंतवन करना, मनोज्ञ पदार्थ के वियोग होने पर उनके उत्पन्न होने का बार-बार चिंतन करना आर्त्तध्यान है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 474
मणहर-विसय-विओगे-कह तं वामेमि इदि वियप्पो जो। संतावेण पयट्टो सोच्चिय अट्टं हवे झाणं ॥474॥
= मनोहर विषय का वियोग होने पर `कैसे इसे प्राप्त करूं' इस प्रकार विचारता हुआ जो दुःख से प्रवृत्ति करता है यह भी आर्त्तध्यान है।
ज्ञानार्णव अधिकार 25/29-31
राज्यैश्वर्यकलत्रबांधवसुहृत्सौभाग्यभोगात्ययचित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषयप्रध्वंसभावेऽथवा। संत्रासभ्रमशोकमोहविवशैर्यत्खिद्यतेऽहर्निशं तत्स्यादिष्टवियोगजं तनुमतां ध्यानं कलंकास्पदम् ॥21॥ दृष्टश्रुतानुभूतैस्तैः पदार्थैश्चित्तरंजकैः। वियोगे यन्मनः खिन्नं स्यादार्त्तं तद्द्वितीयकम् ॥30॥ मनोज्ञवस्तुविधवसे मनस्तत्संगमार्थिभिः क्लिश्यते यत्तदेतत्स्याद्द्वितीयार्त्तस्य लक्षणम् ॥31॥
= जो राज्य ऐश्वर्य स्त्री, कुटुंब, मित्र, सौभाग्य भोगादि के नाश होने पर तथा चित्त को प्रीति उत्पन्न करने वाले सुंदर स्त्रियों के विषयों का प्रध्वंस होते हुए, संत्रास, पीड़ा, भ्रम, शोक, मोह के कारण निरंतर खेद रूप होना सो जीवों के इष्ट वियोग जनित आर्त्तध्यान है, और यह ध्यान पाप का स्थान है ॥29॥ देखे, सुने, अनुभव किये, मन को रंजायमान करने वाले पूर्वोक्त पदार्थों का वियोग होने से जो मन को खेद हो वह भी दूसरा आर्त्तध्यान है ॥30॥ अपने मन की प्यारी वस्तु के विध्वंस होने पर पुनः उसकी प्राप्ति के लिए जो क्लेश रूप होना सो दूसरे आर्त्तध्यान का लक्षण है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 89
स्वदेशत्यागाद् द्रव्यनाशाद् मित्रजनविदेशगमनात् कमनीयकामिनीवियोगात्-समुपजातमार्तध्यान्।
= स्वदेश के त्याग से, द्रव्य के नाश से, मित्रजन के विदेश गमन से, कमनीय कामिनी के वियोग से उत्पन्न होने वाला आर्त्तध्यान है।
6. वेदना संबंधी आर्त्तध्यान का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/32
वेदनायाश्च ॥32॥
= वेदना के होने पर (अर्थात् वातादि विकार जनित शारीरिक वेदना के होने पर) उसे दूर करने की सतत चिंता करना तीसरा आर्त्तध्यान है।
ज्ञानार्णव अधिकार 25/32-33
कासश्वासभगंदरजलोदरजराकुष्ठातिसारज्वरैः, पित्तश्लेष्ममरुत्प्रकोपजनितैः रोगैः शरीरांतकैः। स्यात्सत्त्वप्रबलैः प्रतिक्षणभवैर्यद्याकुलत्वं नृणाम्, तद्रोगार्त्तमनिंदितैः प्रकटितं दुर्वार-दुःखाकरम् ॥32॥ स्वल्पानामपि रोगाणां माभृत्स्वप्नेऽपि संभवः। ममेतया नृणां चिंता स्यादार्त्तं तत्ततीयवम् ॥33॥
= वात पित्त कफ के प्रकोप से उत्पन्न हुए शरीर को नाश करने वाला वीर्य से प्रबल और क्षण-क्षण में उत्पन्न होने वाले कास, श्वास, भगंदर, जलोदर, जरा, कोढ़, अतिसार, ज्वरादिक रोगों से मनुष्यों के जो व्याकुलता होती है, उसे अनिंदित पुरुषों ने रोग पीड़ा चिंतवन नामा आर्त्तध्यान कहा है, यह ध्यान दुर्निवार और दुखों का आकार है जो कि आगामी काल में पाप बंध का कारण है ॥32॥ जीवों के ऐसी चिंता हो कि मेरे किंचित् रोग की उत्पत्ति स्वप्न में भी न हो सो ऐसा चिंतवन तीसरा आर्त्तध्यान है ॥33॥
• निदान व अपध्यान के लक्षण - देखें निदान । अपध्यान।
2. आर्त्तध्यान निर्देश
1. आर्त्तध्यान में संभव भाव व लेश्या
महापुराण सर्ग संख्या 21/38
अप्रशस्ततमं लेश्यात्रयमाश्रित्य जृंभितं। अंतर्मुहूर्तकालं तद् अप्रशप्तावलंबनं ॥38॥
= यह चारों प्रकार का आर्त्तध्यान अत्यंत अशुभ कृष्ण, नील और कापोत लेश्या का आश्रय कर उत्पन्न होता है, इसका काल अंतर्मुहूर्त है और आलंबन अशुभ है।
( ज्ञानार्णव अधिकार 25/40) ( चारित्रसार पृष्ठ 169/3)
2. आर्त्तध्यान का फल
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/29
यह संसार का कारण है।
राजवार्तिक अध्याय 9/33/1/629
तिर्यग्भवगमनपर्यवसानम्।
= इस आर्त्तध्यान का फल तिर्यंच गति है।
(हरिवंश पुराण सर्ग 56/18), ( चारित्रसार पृष्ठ 169/4)
ज्ञानार्णव अधिकार 25/42
अनंतदुःखसकीर्णस्य तिर्यग्गतैः, फलं...॥42॥
= आर्त्तध्यान का फल अनंत दुखों से व्याप्त तिर्यंच गति है।
3. मनोज्ञ व निदान आर्त्तध्यान में अंतर
राजवार्तिक अध्याय 9/33/1/33
विपरीतं मनोज्ञस्येत्यनेनैव निदानं संगृहीतमिति; तन्न; किं कारणम्। अप्राप्तपूर्वविषयत्वान्निदानस्य। सुखमात्रया प्रलंभितस्याप्राप्तपूर्वप्रार्थनाभिमुख्यादनागतार्थप्राप्तिनिबंधनं निदानमित्यस्ति विशेषः।
= प्रश्न - `विपरीतं मनोज्ञस्य' इस सूत्र से निदान का संग्रह हो जाता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि निदान अप्राप्त की प्राप्ति के लिए होता है, इसमें पारलौकिक विषय-सुख की गृद्धि से अनागत अर्थ की प्राप्ति के लिए सतत चिंता रहती है। इस प्रकार इन दोनों में अंतर है।
3. आर्त्तध्यान का स्वामित्व
1. 1-6 गुणस्थान तक होता है
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/34
तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥34॥
= यह आर्त्तध्यान अविरत, देशविरत, और प्रमत्त संयत जीवों के होता है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/34/447/14
अविरताः सम्यग्दृष्ट्यंताः देशविरताः संयतासंयताः प्रमत्तसंयताः...तत्र विरतदेशविरतानां चतुर्विधमप्यार्त्तं भवति,...प्रमत्तसंयतानां तु निदानवर्ज्यमन्यदार्त्तत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात्क्दाचित्स्यात्।
= असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीव अविरत कहलाते हैं, संयतासंयत जीव देशविरत कहलाते हैं, प्रमाद से युक्त क्रिया करने वाले प्रमत्त संयत कहलाते हैं। इनमें से अविरत और देशविरत जीवों के चारों ही प्रकार का आर्त्तध्यान होता है। प्रमत्त संयतों के तो निदान के सिवा बाकी के तीन प्रमाद की तीव्रता वश कदाचित् होते हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 9/34/1/629) ( हरिवंश पुराण सर्ग 56/18) (महापुराण सर्ग संख्या 21/37) ( चारित्रसार पृष्ठ 169/3) ( ज्ञानार्णव अधिकार 25/38-39) (द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 48,48/201)
• साधु योग्य आर्तध्यान की सीमा - देखें संयत - 3
2. आर्त्तध्यान के बाह्य चिह्न
ज्ञानार्णव अधिकार 25/43
शंकाशोकभयप्रमादकलहश्चित्तभ्रमोद्भ्रांतयः। उन्मादो विषयोत्सुकत्वसमकृन्निद्रांगजाड्यश्रमाः। मूर्छादीनि शरीरिणामविरतं लिंगानि बाह्यान्यलमार्त्ता-धिष्ठितचेतसां श्रुतधरैर्व्यावर्णितानि स्फूटम् ॥43॥
= इस आर्त्तध्यान के आश्रितचित्त वाले पुरुषों के बाह्य चिह्न शास्त्रों के पारगामी विद्वानों ने इस प्रकार कहे हैं कि-प्रथम तो शंका होती है, अर्थात् हर बात में संदेह होता है, फिर शोक होता है, भय होता है, प्रमाद होता है-सावधानी नहीं होती, कलह करता है, चित्तभ्रम हो जाता है, उद्भ्रांति होती है, चित्त एक जगह नहीं ठहरता, विषय सेवन में उत्कष्ठा होती है, निरंतर निद्रा गमन होता है, अंग में जड़ता होती है, खेद होता है, मूर्च्छा होती है, इत्यादि चिन्ह आर्तध्यानी के प्रगट होते हैं।
पुराणकोष से
तीव्र संक्लेश भावों का उत्पादक, तिर्यंच आयु का बंधक, एक दुर्ध्यान । इष्टवियोगज, अनिष्टयोगज, वेदना जनित और निदानरूप भेद से यह चार प्रकार का होता है । महापुराण 5.120-121, 21.31, हरिवंशपुराण - 56.4, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.47-48
यह ध्यान पहले से छठे गुणस्थान तक होता है । इसमें कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ होती है । परिग्रह में आसक्ति, कुशीलता, कृपणता, ब्याज लेकर आजीविका करना, अतिलोभ, भय, उद्वेग, शोक, शारीरिक क्षीणता, कांतिहीनता, पश्चात्ताप, आँसू बहाना आदि इसके बाह्य चिह्न है । महापुराण 21.37-41, हरिवंशपुराण - 56.4-18