लोकसामान्य निर्देश: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> लोकसामान्य निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> लोक का लक्षण</strong> <br /> | ||
देखें [[ आकाश#1.3 | आकाश - 1.3 ]](1. आकाशके जितने भाग में जीव, पुद्गल आदि षट् द्रव्य देखे जायें सो लोक है और उसके चारों तरफ शेष अनंत आकाश अलोक है, ऐसा लोकका निरुक्ति अर्थ है। 2. अथवा षट् द्रव्यों का समवाय लोक है )<br /> | देखें [[ आकाश#1.3 | आकाश - 1.3 ]](1. आकाशके जितने भाग में जीव, पुद्गल आदि षट् द्रव्य देखे जायें सो लोक है और उसके चारों तरफ शेष अनंत आकाश अलोक है, ऐसा लोकका निरुक्ति अर्थ है। 2. अथवा षट् द्रव्यों का समवाय लोक है )<br /> | ||
देखें [[ लौकांतिक#1 | लौकांतिक - 1]]। (3.जन्म-जरामरणरूप यह संसार भी लोक कहलाता है।)</span><br /> | देखें [[ लौकांतिक#1 | लौकांतिक - 1]]। (3.जन्म-जरामरणरूप यह संसार भी लोक कहलाता है।)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/12/10-13/455/20 </span><span class="SanskritText">यत्र पुण्यपापफललोकनं स लोकः।10।.... कः पुनरसौ। आत्मा। लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति लोक:।11।... सर्वज्ञेनानंताप्रतिहतकेवलदर्शनेन लोक्यते यः स लोकः। तेन धर्मादीनामपि लोकत्वं सिद्धम्।13।</span>=<span class="HindiText"> जहाँ पुण्य व पाप का फल जो सुख-दु:ख वह देखा जाता है सो लोक है इस व्युत्पत्ति के अनुसार लोक का अर्थ आत्मा होता है। जो पदार्थो को देखे व जाने सो लोक इस व्युत्पत्ति से भी लोक का अर्थ आत्मा है। आत्मा स्वयं अपने स्वरूप का लोकन करता है अतः लोक है। सर्वज्ञ के द्वारा अनंत व अप्रतिहत केवलदर्शन से जो देखा जाये सो लोक है, इस प्रकार धर्म आदि द्रव्यों का भी लोकपना सिद्ध है।<br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/5/12/10-13/455/20 </span><span class="SanskritText">यत्र पुण्यपापफललोकनं स लोकः।10।.... कः पुनरसौ। आत्मा। लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति लोक:।11।... सर्वज्ञेनानंताप्रतिहतकेवलदर्शनेन लोक्यते यः स लोकः। तेन धर्मादीनामपि लोकत्वं सिद्धम्।13।</span>=<span class="HindiText"> जहाँ पुण्य व पाप का फल जो सुख-दु:ख वह देखा जाता है सो लोक है इस व्युत्पत्ति के अनुसार लोक का अर्थ आत्मा होता है। जो पदार्थो को देखे व जाने सो लोक इस व्युत्पत्ति से भी लोक का अर्थ आत्मा है। आत्मा स्वयं अपने स्वरूप का लोकन करता है अतः लोक है। सर्वज्ञ के द्वारा अनंत व अप्रतिहत केवलदर्शन से जो देखा जाये सो लोक है, इस प्रकार धर्म आदि द्रव्यों का भी लोकपना सिद्ध है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> लोक का आकार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/137-138 </span><span class="PrakritGatha">हेटि्ठमलोयायारो वेत्तासणसण्णिहो सहावेण। मज्झिमलोयायारो उब्भियमुर अद्धसारिच्छो।137। उवरिमलोयाआरो उब्भियमुरवेण होइ सरिसत्तो। संठाणो एदाणं लोयाणं एण्हिं साहेमि।138।</span>= <span class="HindiText">इन (उपरोक्त) तीनों में से अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासनके सदृश है, | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/137-138 </span><span class="PrakritGatha">हेटि्ठमलोयायारो वेत्तासणसण्णिहो सहावेण। मज्झिमलोयायारो उब्भियमुर अद्धसारिच्छो।137। उवरिमलोयाआरो उब्भियमुरवेण होइ सरिसत्तो। संठाणो एदाणं लोयाणं एण्हिं साहेमि।138।</span>= <span class="HindiText">इन (उपरोक्त) तीनों में से अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासनके सदृश है, और मध्यलोकका आकार खड़े किये हुए आधे मृदंग के ऊर्ध्व भाग के समान है। ऊर्ध्वलोक का आकार खडे किए हुए मृदंग के सदृश है।138। <span class="GRef">( धवला 4/1,3.2/गाथा 6/11)</span> <span class="GRef">( त्रिलोकसार/6 )</span>; <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/4-9 )</span> <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/35/112/11 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1,3,2/ </span> | <span class="GRef"> धवला 4/1,3,2/गाथा 7/11 </span> <span class="PrakritText">तलरुक्खसंठाणो।7।</span>= <span class="HindiText">यह लोक तालवृक्षके आकारवाला है।<br /> | ||
<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/ | <span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/प्र.24 प्रो. लक्षमीचंद </span>- मिस्रदेशके गिरजे में बने हुए महास्तूप से यह लोकाकाशका आकार किंचिंत् समानता रखता प्रतीत होता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> लोक का विस्तार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/149-163 </span><span class="PrakritGatha">सेढिपमाणायामं भागेसु दक्खिणुत्तरेसु पुढं। पुव्बावरेसु वासं भूमिमुहे सत्त येक्कपंचेक्का।149। चोद्दसरज्जुपमाणो उच्छेहो होदि सयललोगस्स।अद्धमुरज्जस्सुदवो समग्गमुखोदयसरिच्छो।150। व हेट्ठिममज्धिमउवरिमलोउच्छेहो कमेण रज्जू वो। सत्त य जोयणलक्खं जोयणलक्खूणसगरज्जू।151। इहरयणसक्करावालुपंकधूमतममहातमादिपहा। सुरवद्धम्मि महीओ सत्त च्चिय रज्जुअंतरिआ।152।धम्मावंसामेघाअंजणरिट्ठाणउब्भमघवीओ। माघविया इय ताणं पुढवीणं वोत्तणामाणि।153।मज्झिमजगस्स हेट्ठिमभागादो णिग्गदो पढमरज्जू। सक्करपहपुढवीए हेट्ठिमभागम्मि णिट्ठादि।154। तत्तो दोइरज्जू वालुवपहहेट्ठि समप्पेदि। तह य तइज्जारज्जूपंकपहहेट्ठास्स भागम्मि।155। धूमपहाए हेट्ठिमभागम्मि समप्पदे तुरियरज्जू। तह पंचमिया रज्जू तमप्पहाहेट्ठिमपएसे।156। महतमहेट्ठिमयंते छट्ठी हि समप्पदे रज्जू। तत्तो सत्तमरज्जू लोयस्स तलम्मि णिट्ठादि।157। मज्झिमजगस्स उवरिमभागादु दिवड्ढरज्जुपरिमाणं। इगिजोयणलक्खूणं सोहम्मविमाणधयदंडे।158। वच्चदि दिवड्ढरज्जू माहिंदसणक्कुमारउवरिम्मि। णिट्ठादि अद्धरज्जूबंभुत्तर उड्ढभागम्मि।159। अवसादि अद्धरज्जू काविट्ठस्सोवरिट्ठभागम्मि। स च्चियमहसुक्कोवरि सहसारोवरि अ स च्चेय।160। तत्तो य अद्धरज्जू आणदकप्पस्स उवरिमपएसे। स य आरणस्स कप्पस्स उवरिमभागम्मि गेविज्जं।161। तत्तो उवरिमभागे णवाणुत्तरओ होंति एक्करज्जूवो। एवं उवरिमलोए रज्जुविभागो समुद्दिट्ठं।162। णियणिय चरिमिंदयधयदंडग्गं कप्पभूमिअवसाणं कप्पादीदमहीए विच्छेदो लोयविच्छेदो।169।</span> = | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/149-163 </span><span class="PrakritGatha">सेढिपमाणायामं भागेसु दक्खिणुत्तरेसु पुढं। पुव्बावरेसु वासं भूमिमुहे सत्त येक्कपंचेक्का।149। चोद्दसरज्जुपमाणो उच्छेहो होदि सयललोगस्स।अद्धमुरज्जस्सुदवो समग्गमुखोदयसरिच्छो।150। व हेट्ठिममज्धिमउवरिमलोउच्छेहो कमेण रज्जू वो। सत्त य जोयणलक्खं जोयणलक्खूणसगरज्जू।151। इहरयणसक्करावालुपंकधूमतममहातमादिपहा। सुरवद्धम्मि महीओ सत्त च्चिय रज्जुअंतरिआ।152।धम्मावंसामेघाअंजणरिट्ठाणउब्भमघवीओ। माघविया इय ताणं पुढवीणं वोत्तणामाणि।153।मज्झिमजगस्स हेट्ठिमभागादो णिग्गदो पढमरज्जू। सक्करपहपुढवीए हेट्ठिमभागम्मि णिट्ठादि।154। तत्तो दोइरज्जू वालुवपहहेट्ठि समप्पेदि। तह य तइज्जारज्जूपंकपहहेट्ठास्स भागम्मि।155। धूमपहाए हेट्ठिमभागम्मि समप्पदे तुरियरज्जू। तह पंचमिया रज्जू तमप्पहाहेट्ठिमपएसे।156। महतमहेट्ठिमयंते छट्ठी हि समप्पदे रज्जू। तत्तो सत्तमरज्जू लोयस्स तलम्मि णिट्ठादि।157। मज्झिमजगस्स उवरिमभागादु दिवड्ढरज्जुपरिमाणं। इगिजोयणलक्खूणं सोहम्मविमाणधयदंडे।158। वच्चदि दिवड्ढरज्जू माहिंदसणक्कुमारउवरिम्मि। णिट्ठादि अद्धरज्जूबंभुत्तर उड्ढभागम्मि।159। अवसादि अद्धरज्जू काविट्ठस्सोवरिट्ठभागम्मि। स च्चियमहसुक्कोवरि सहसारोवरि अ स च्चेय।160। तत्तो य अद्धरज्जू आणदकप्पस्स उवरिमपएसे। स य आरणस्स कप्पस्स उवरिमभागम्मि गेविज्जं।161। तत्तो उवरिमभागे णवाणुत्तरओ होंति एक्करज्जूवो। एवं उवरिमलोए रज्जुविभागो समुद्दिट्ठं।162। णियणिय चरिमिंदयधयदंडग्गं कप्पभूमिअवसाणं कप्पादीदमहीए विच्छेदो लोयविच्छेदो।169।</span> = | ||
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<li | <li class="HindiText"> दक्षिण और उत्तर भाग में लोक का आयाम जगश्रेणी प्रमाण अर्थात् सात राजू है। पूर्व और पश्चिम भाग में भूमि और मुख का व्यास क्रम से सात, एक, पाँच और एक राजू है। तात्पर्य यह है कि लोक की मोटाई सर्वत्र सात राजू है, और विस्तार क्रम से लोक के नीचे सात राजू, मध्यलोक में एक राजू, ब्रह्म स्वर्ग पर पाँच राजू और लोक के अंत में एक राजू है।149। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> संपूर्ण लोक की ऊँचाई 14 राजू प्रमाण है। अर्धमृदंग की ऊँचाई संपूर्ण मृदंग की ऊँचाई के सदृश है। अर्थात् अर्धमृदंग सदृश अधोलोक जैसे सात राजू ऊँचा है उसी प्रकार ही पूर्ण मृदंग के सदृश ऊर्ध्वलोक भी सात ही राजू ऊँचा है।150। क्रम से अधोलोक की ऊँचाई सात राजू, मध्यलोक की ऊँचाई 1,00,000 योजन, और ऊर्ध्वलोक की ऊँचाई एक लाख योजन कम सात राजू है।151। <span class="GRef">( धवला 4/1,3,2/गाथा 8/11 )</span>; <span class="GRef">( त्रिलोकसार/113 )</span>; <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/11,16-17 )</span>।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> तहाँ भी - तीनों लोकों में से अर्धमृदंगाकार अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, महातमप्रभा ये सात पृथिवियाँ एक-एक राजू के अंतराल से हैं।152। धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये इन उपर्युक्त पृथिवियों के अपरनाम हैं।153। मध्यलोक के अधोभाग से प्रारंभ होकर पहला राजू शर्कराप्रभा पृथिवी के अधोभाग में समाप्त होता है।154। इसके आगे दूसरा राजू प्रारंभ होकर बालुकाप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है। तथा तीसरा राजू पंकप्रभा के अधोभाग में।155। चौथा धूमप्रभा के अधोभाग में, पाँचवाँ तमःप्रभा के अधोभाग में।156। और छठा राजू महातमःप्रभा के अंत में समाप्त होता है। इससे आगे सातवाँ राजू लोक के तलभाग में समाप्त होता है।157। (इस प्रकार अधोलोक की 7 राजू ऊँचाई का विभाग है।) </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> रत्नप्रभा पृथिवी के तीन भागों में खरभाग 16000 यो., पंक भाग 84000 यो. और अब्बहुल भाग 80,000 योजन मोटे हैं। देखें [[ रत्नप्रभा#2 | रत्नप्रभा - 2]]। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> लोक में मेरू के तलभाग से उसकी चोटी पर्यंत 1,00,000 योजन ऊँचा व 1 राजू प्रमाण विस्तार युक्त मध्यलोक है। इतना ही तिर्यक्लोक है। - देखें [[ तिर्यंच#3.1 | तिर्यंच - 3.1 ]])। मनुष्यलोक चित्रा पृथिवी के ऊपर से मेरु की चोटी तक 99,000 योजन विस्तार तथा अढाई द्वीप प्रमाण 45,00,000 योजन विस्तार युक्त है। -देखें [[ मनुष्य#4.1 | मनुष्य - 4.1]]।</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> चित्रा पृथिवी के नीचे खर व पंक भाग में 1,00,000 यो. तथा चित्रा पृथिवी के ऊपर मेरु की चोटी तक 99,000 योजन ऊँचा और एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त भावनलोक है। - देखें [[ भावन लोक#4.15 | भावन लोक - 4.15]]। इसी प्रकार व्यंतरलोक भी जानना। - देखें [[ व्यंतर#4.1 | व्यंतर - 4.1]]-5। चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर जाकर 110 योजन बाहल्य व 1 राजू विस्तार युक्त ज्योतिष लोक है। -देखें [[ ज्योतिषि लोक#1.2.6 | ज्योतिषि लोक - 1.2.6 ]]</span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> मध्यलोक के ऊपरी भाग से सौधर्म विमान का ध्वजदंड 1,00,000 योजन कम 1½राजू प्रमाण ऊँचा है।158। इसके आगे 1½ राजू प्रमाण ऊँचा है। 158। इसके आगे 1½ राजू माहेंद्र व सनत्कुमार स्वर्ग के ऊपरी भाग में, 1/2 राजू ब्रह्मोत्तर के ऊपरी भाग में।159। 1/2 राजू कापिष्ठ के ऊपीर भाग में, 1/2 राजू महाशुक्र के ऊपरी भाग में, 1/2 राजु सहस्रार के ऊपरी भाग में।160। 1/2 राजू आनत के ऊपरी भाग में और 1/2 राजू आरण-अच्युत के ऊपरी भाग में समाप्त हो जाता है।161। उसके ऊपर एक राजू की ऊँचाई में नवग्रैवेयक, नव अनुदिश, और 5 अनुत्तर विमान हैं। इस प्रकार ऊर्ध्वलोक में 7 राजू का विभाग कहा गया।162। अपने-अपने अंतिम इंद्रक -विमान समन्बधी ध्वजदंड के अग्रभाग तक उन-उन स्वर्गों का अंत समझना चाहिए। और कल्पातीत भूमि का जो अंत है वही लोक का भी अंत है।163। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"> (लोक शिखर के नीचे 425 धनुष और 21 योजन मात्र जाकर अंतिम सर्वार्थसिद्धि इंद्रक स्थित है। (देखें [[ स्वर्ग_देव#5.1;| स्वर्ग_देव - 5.1;]]) सर्वार्थसिद्धि इंद्रक के ध्वजदंड से 12 योजन मात्र ऊपर जाकर अष्टम पृथिवी है। वह 8 योजन मोटी व एक राजू प्रमाण विस्तृत है। उसके मध्य ईषत् प्राग्भार क्षेत्र है। वह 45,00,000 योजन विस्तार युक्त है। मध्य में 8 योजन और सिरों पर केवल अंगुल प्रमाण मोटा है। इस अष्टम पृथिवी के ऊपर 7050 धनुष जाकर सिद्धिलोक है। (देखें [[ मोक्ष#1.7 | मोक्ष - 1.7]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> वातवलयों का परिचय</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4.1" id="2.4.1"> वातवलय सामान्य परिचय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/268 </span><span class="PrakritGatha"> गोमुत्तमुग्गवण्णा धणोदधी तह धणाणिलओ वाऊ। तणु वादो बहुवण्णो रुक्खस्स तयं व वलयातियं।268।</span> = <span class="HindiText">गोमूत्र के समान वर्णवाला घनोदधि, मूंग के समान वर्णवाला घनवात तथा अनेक वर्णवाला तनुवात। इस प्रकार ये तीनों वातवलय वृक्ष की त्वचा के समान (लोकको घेरे हुए) हैं।268। | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/268 </span><span class="PrakritGatha"> गोमुत्तमुग्गवण्णा धणोदधी तह धणाणिलओ वाऊ। तणु वादो बहुवण्णो रुक्खस्स तयं व वलयातियं।268।</span> = <span class="HindiText">गोमूत्र के समान वर्णवाला घनोदधि, मूंग के समान वर्णवाला घनवात तथा अनेक वर्णवाला तनुवात। इस प्रकार ये तीनों वातवलय वृक्ष की त्वचा के समान (लोकको घेरे हुए) हैं।268। <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/1/8/160/16 )</span>; <span class="GRef">( त्रिलोकसार/123 )</span>; (देखें [[ चित्र सं#9 | चित्र सं - 9 ]]पृ. 439)।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4.2" id="2.4.2"> तीन वलयों का अवस्थान क्रम</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/269 </span><span class="PrakritGatha">पढमो लोयाधारो घणोवही इह घणाणिलो ततो। तप्परदो तणुवादो अंतम्मि णहंणिआधारं।269। </span>= <span class="HindiText">इनमें से प्रथम घनोदधि वातवलय लोक का आधारभूत है, इसके पश्चात् घनवातवलय, उसके पश्चात् तनुवातवलय और फिर अंत में निजाधार आकाश है।269। | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/269 </span><span class="PrakritGatha">पढमो लोयाधारो घणोवही इह घणाणिलो ततो। तप्परदो तणुवादो अंतम्मि णहंणिआधारं।269। </span>= <span class="HindiText">इनमें से प्रथम घनोदधि वातवलय लोक का आधारभूत है, इसके पश्चात् घनवातवलय, उसके पश्चात् तनुवातवलय और फिर अंत में निजाधार आकाश है।269। <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/3/1/204/3 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/1/8/160/14 )</span>; <span class="GRef">(तत्त्वार्थ वृत्ति/3/1/श्लोक 1-2/112 )</span>।</span><br /> | ||
तत्त्वार्थ वृत्ति /3/1/111/19<span class="SanskritText"> सर्वाः सप्तापि भूमयो घनातप्रतिष्ठा वर्तंते। स च घनवातः अंबुवातप्रतिष्ठोऽस्ति। स चांबुवातस्तनुवातस्तनृप्रतिष्ठो वर्तते। स च तनुवात आकाशप्रतिष्ठो भवति। आकाशस्यालंबनं किमपि नास्ति। </span>= <span class="HindiText">दृष्टि नं. 2- ये सभी सातों भूमियाँ घनवात के आश्रय स्थित हैं। वह घनवात भी अंबु (घनोदधि) वात के आश्रय स्थित है और वह अंबुवात तनुवात के आश्रय स्थित है। वह तनुवात आकाश के आश्रय स्थित है, तथा आकाश का कोई भी आलंबन नहीं है।<br /> | तत्त्वार्थ वृत्ति /3/1/111/19<span class="SanskritText"> सर्वाः सप्तापि भूमयो घनातप्रतिष्ठा वर्तंते। स च घनवातः अंबुवातप्रतिष्ठोऽस्ति। स चांबुवातस्तनुवातस्तनृप्रतिष्ठो वर्तते। स च तनुवात आकाशप्रतिष्ठो भवति। आकाशस्यालंबनं किमपि नास्ति। </span>= <span class="HindiText">दृष्टि नं. 2- ये सभी सातों भूमियाँ घनवात के आश्रय स्थित हैं। वह घनवात भी अंबु (घनोदधि) वात के आश्रय स्थित है और वह अंबुवात तनुवात के आश्रय स्थित है। वह तनुवात आकाश के आश्रय स्थित है, तथा आकाश का कोई भी आलंबन नहीं है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4.3" id="2.4.3"> पृथिवियों के सात वातवलयों का स्पर्श</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/2/24 </span><span class="PrakritGatha">सत्तच्चिय भूमीओ णवदिसभाएण घणोवहिविलग्गा। अट्ठमभूमीदसदिस भागेसु घणोवहिं छिवदि।24। </span><br /> | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/2/24 </span><span class="PrakritGatha">सत्तच्चिय भूमीओ णवदिसभाएण घणोवहिविलग्गा। अट्ठमभूमीदसदिस भागेसु घणोवहिं छिवदि।24। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति 8/206-207 </span><span class="PrakritGatha">सोहम्मदुगविमाणा घणस्सरूवस्स उवरि सलिलस्स। चेट्ठंते पवणोवरि माहिंदसणक्कुमाराणिं।206। बम्हाई चत्तारो कप्पा चेट्ठंति सलिलवादढं। आणदपाणदपहुदीसेसा सुद्धम्मि गयणयले।207। </span>= <span class="HindiText">सातों (नरक) पृथिवियाँ ऊर्ध्वदिशा को छोड़कर शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हई हैं, परंतु आठवीं पृथिवी दशों दिशाओं में ही वातवलय को छूती है। 24। सौधर्म युगल के विमान घनस्वरूप जल के ऊपर तथा माहेंद्र व सनत्कुमार कल्प के विमान पवन के ऊपर स्थित हैं।206। ब्रह्मादि चार कल्प जल व वायु दोनों के ऊपर, तथा आनत प्राणत आदि शेष विमान शुद्ध आकाशतल में स्थित हैं।207।<br /> | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति 8/206-207 </span><span class="PrakritGatha">सोहम्मदुगविमाणा घणस्सरूवस्स उवरि सलिलस्स। चेट्ठंते पवणोवरि माहिंदसणक्कुमाराणिं।206। बम्हाई चत्तारो कप्पा चेट्ठंति सलिलवादढं। आणदपाणदपहुदीसेसा सुद्धम्मि गयणयले।207। </span>= <span class="HindiText">सातों (नरक) पृथिवियाँ ऊर्ध्वदिशा को छोड़कर शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हई हैं, परंतु आठवीं पृथिवी दशों दिशाओं में ही वातवलय को छूती है। 24। सौधर्म युगल के विमान घनस्वरूप जल के ऊपर तथा माहेंद्र व सनत्कुमार कल्प के विमान पवन के ऊपर स्थित हैं।206। ब्रह्मादि चार कल्प जल व वायु दोनों के ऊपर, तथा आनत प्राणत आदि शेष विमान शुद्ध आकाशतल में स्थित हैं।207।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4.4" id="2.4.4"> वातवलयों का विस्तार</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/270-281 </span><span class="PrakritGatha">जोयणवीससहस्सां बहलंतम्मारुदाण पत्तेक्कं। अट्ठाखिदीणं हेट्ठेलोअतले उवरि जाव इगिरज्जू।270। सगपण चउजोयणयं सत्तमणारयम्मि पुहविपणधीए। पंचचउतियपमाणं तिरीयखेत्तस्स पणिधोए।271। सगपंचचउसमाणा पणिधीए होंति बम्हकप्पस्स। पणचउतिय जोयणया उवरिमलोयस्स यंतम्मि।272। कोसदुगमेक्ककोसं किंचूणेक्कं च लोयसिहरम्मि। ऊणपमाणं दंडा चउस्सया पंचवीस जुदा।273। तीसं इगिदालदलं कोसा तियभाजिदा य उणवणया। सत्तमखिदिपणिधीए वम्हजुदे वाउबहुलत्तं।280। दो छब्बारस भागब्भहिओ कोसो कमेण वाउघणं। लोयउवरिम्मि एवं लोय विभायम्मि पण्णत्तं।281।</span> =<span class="HindiText">दृष्टि नं. 1- आठ पृथिवियों के नीचे लोक के तलभाग से एक राजू की ऊँचाई तक इन वायुमंडलों में से प्रत्येक की मोटाई 20,000 योजन प्रमाण है।270। सातवें नरक में पृथिवियों के पार्श्व भाग में क्रम से इन तीनों वातवलयों की मोटाई 7,5 और 4 तथा इसके ऊपर तिर्यग्लोक (मर्त्यलोक ) के पार्श्वभाग में 5,4 और 3 योजन प्रमाण है।271। इसके आगे तीनों वायुओं की मोटाई ब्रह्म स्वर्ग के पार्श्व भाग में क्रम से 7,5 और 4 योजन प्रमाण, तथा ऊर्ध्वलोक के अंत में (पार्श्व भाग में) 5, 4 और 3 योजन प्रमाण है।272। लोक के शिखर पर (पार्श्व भाग में) उक्त तीनों वातवलयों का बाहल्य क्रमशः 2 कोस, 1 कोस और कुछ कम 1 कोस है। यहाँ कुछ कम का प्रमाण 2425 धनुष समझना चाहिए।273। (शिखर पर प्रत्येक की मोटाई 20,000 योजन है - देखें [[ मोक्ष#1.7 | मोक्ष - 1.7]]) | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/270-281 </span><span class="PrakritGatha">जोयणवीससहस्सां बहलंतम्मारुदाण पत्तेक्कं। अट्ठाखिदीणं हेट्ठेलोअतले उवरि जाव इगिरज्जू।270। सगपण चउजोयणयं सत्तमणारयम्मि पुहविपणधीए। पंचचउतियपमाणं तिरीयखेत्तस्स पणिधोए।271। सगपंचचउसमाणा पणिधीए होंति बम्हकप्पस्स। पणचउतिय जोयणया उवरिमलोयस्स यंतम्मि।272। कोसदुगमेक्ककोसं किंचूणेक्कं च लोयसिहरम्मि। ऊणपमाणं दंडा चउस्सया पंचवीस जुदा।273। तीसं इगिदालदलं कोसा तियभाजिदा य उणवणया। सत्तमखिदिपणिधीए वम्हजुदे वाउबहुलत्तं।280। दो छब्बारस भागब्भहिओ कोसो कमेण वाउघणं। लोयउवरिम्मि एवं लोय विभायम्मि पण्णत्तं।281।</span> =<span class="HindiText">दृष्टि नं. 1- आठ पृथिवियों के नीचे लोक के तलभाग से एक राजू की ऊँचाई तक इन वायुमंडलों में से प्रत्येक की मोटाई 20,000 योजन प्रमाण है।270। सातवें नरक में पृथिवियों के पार्श्व भाग में क्रम से इन तीनों वातवलयों की मोटाई 7,5 और 4 तथा इसके ऊपर तिर्यग्लोक (मर्त्यलोक ) के पार्श्वभाग में 5,4 और 3 योजन प्रमाण है।271। इसके आगे तीनों वायुओं की मोटाई ब्रह्म स्वर्ग के पार्श्व भाग में क्रम से 7,5 और 4 योजन प्रमाण, तथा ऊर्ध्वलोक के अंत में (पार्श्व भाग में) 5, 4 और 3 योजन प्रमाण है।272। लोक के शिखर पर (पार्श्व भाग में) उक्त तीनों वातवलयों का बाहल्य क्रमशः 2 कोस, 1 कोस और कुछ कम 1 कोस है। यहाँ कुछ कम का प्रमाण 2425 धनुष समझना चाहिए।273। (शिखर पर प्रत्येक की मोटाई 20,000 योजन है - देखें [[ मोक्ष#1.7 | मोक्ष - 1.7]]) <span class="GRef">( त्रिलोकसार/124-126 )</span>। दृष्टि नं. 2- सातवीं पृथिवी और ब्रह्म युगल के पार्श्वभाग में तीनों वायुओं की मोटाई क्रम से 30, 41/2 और 49/3 कोस हैं।280। लोक शिखर पर तीनों वातवलयों की मोटाई क्रम से 1(1/3), 1(1/2) और 1 (1/12) कोस प्रमाण है। ऐसा लोक विभाग में कहा गया है।281। - विशेष देखें [[ चित्र सं#9 | चित्र सं - 9 ]]पृ. 439.<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> लोक के आठ रुचक प्रदेश </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/20/12/76/13 </span><span class="SanskritText"> मेरुप्रतिष्ठवज्रवैडूर्यपटलांतररुचकसंस्थिता अष्टावाकाशप्रदेशलोकमध्यम्। </span>= <span class="HindiText">मेरू पर्वत के नीचे वज्र व वैडूर्य पटलों के बीच में चौकोर संस्थानरूप से अवस्थित आकाश के आठ प्रदेश लोक का मध्य हैं। <br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/20/12/76/13 </span><span class="SanskritText"> मेरुप्रतिष्ठवज्रवैडूर्यपटलांतररुचकसंस्थिता अष्टावाकाशप्रदेशलोकमध्यम्। </span>= <span class="HindiText">मेरू पर्वत के नीचे वज्र व वैडूर्य पटलों के बीच में चौकोर संस्थानरूप से अवस्थित आकाश के आठ प्रदेश लोक का मध्य हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> लोक विभाग निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/136 </span><span class="PrakritGatha">सयलो एस य लोओ णिप्पण्णो सेढिविदंमाणेण। तिवियप्पो णादव्वो हेट्ठिममज्झिल्लउड्ढ भेएण।136।</span> = <span class="HindiText">श्रेणी वृंद्र के मान से अर्थात् जगश्रेणी के घन प्रमाण से निष्पन्न हुआ यह संपूर्ण लोक अधोलोक मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से तीन प्रकार का है।136। | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/136 </span><span class="PrakritGatha">सयलो एस य लोओ णिप्पण्णो सेढिविदंमाणेण। तिवियप्पो णादव्वो हेट्ठिममज्झिल्लउड्ढ भेएण।136।</span> = <span class="HindiText">श्रेणी वृंद्र के मान से अर्थात् जगश्रेणी के घन प्रमाण से निष्पन्न हुआ यह संपूर्ण लोक अधोलोक मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से तीन प्रकार का है।136। <span class="GRef">( बारस अणुवेक्खा/39 )</span>; <span class="GRef">( धवला 13/5,5,50/288/4 )</span>।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> त्रस व स्थावर लोक निर्देश</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> त्रस व स्थावर लोक निर्देश</strong> <br /> | ||
(पूर्वोक्त वेत्रासन व मृदंगाकार लोक के बहु मध्य भाग में, लोक शिखर से लेकर उसके अंत पर्यंत 13 राजू लंबी व मध्यलोक समान एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त नाड़ी है। त्रस जीव इस नाड़ी से बाहर नहीं रहते इसलिए यह त्रसनाली नाम से प्रसिद्ध है। (देखें [[ त्रस#2.3 | त्रस - 2.3]],4)। परंतु स्थावर जीव इस लोक में सर्वत्र पाये जाते हैं। (देखें [[ स्थावर#9 | स्थावर - 9]]) तहाँ भी सूक्ष्म जीव तो लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हैं, पर बादर जीव केवल त्रसनाली में होते हैं (देखें [[ सूक्ष्म#3.7 | सूक्ष्म - 3.7]]) उनमें भी तेजस्कायिक जीव केवल कर्मभूमियों में ही पाये जाते हैं अथवा अधोलोक व भवनवासियों के विमानों में पाँचों कायों के जीव पाये जाते हैं, पर स्वर्ग लोक में नहीं - देखें [[ काय#2.5 | काय - 2.5]]। विशेष देखें [[ चित्र सं#9 | चित्र सं - 9 ]]पृ. 439।<br /> | (पूर्वोक्त वेत्रासन व मृदंगाकार लोक के बहु मध्य भाग में, लोक शिखर से लेकर उसके अंत पर्यंत 13 राजू लंबी व मध्यलोक समान एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त नाड़ी है। त्रस जीव इस नाड़ी से बाहर नहीं रहते इसलिए यह त्रसनाली नाम से प्रसिद्ध है। (देखें [[ त्रस#2.3 | त्रस - 2.3]],[[ त्रस#2.4| त्रस - 2.4]])। परंतु स्थावर जीव इस लोक में सर्वत्र पाये जाते हैं। (देखें [[ स्थावर#9 | स्थावर - 9]]) तहाँ भी सूक्ष्म जीव तो लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हैं, पर बादर जीव केवल त्रसनाली में होते हैं (देखें [[ सूक्ष्म#3.7 | सूक्ष्म - 3.7]]) उनमें भी तेजस्कायिक जीव केवल कर्मभूमियों में ही पाये जाते हैं अथवा अधोलोक व भवनवासियों के विमानों में पाँचों कायों के जीव पाये जाते हैं, पर स्वर्ग लोक में नहीं - देखें [[ काय#2.5 | काय - 2.5]]। विशेष देखें [[ चित्र सं#9 | चित्र सं - 9 ]]पृ. 439।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> अधोलोक सामान्य परिचय</strong> <br /> | ||
(सर्वलोक तीन भागों में विभक्त है - अधो, मध्य व ऊर्ध्व - देखें [[ लोक#2.2 | लोक - 2.2]],3 मेरु तल के नीचे का क्षेत्र अधोलोक है, जो वेत्रासन के आकार वाला है। 7 राजू ऊँचा व 7 राजू मोटा है। नीचे 7 राजू व ऊपर 1 राजू प्रमाण चौड़ा है। इसमें ऊपर से लेकर नीचे तक क्रम से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा व महातमप्रभा नामकी 7 पृथिवियाँ लगभग एक राजू अंतराल से स्थित हैं। प्रत्येक पृथिवी में यथायोग्य 13,11 आदि पटल 1000 योजन अंतराल से अवस्थित हैं। कुल पटल 49 हैं। प्रत्येक पटल में अनेकों बिल या गुफाएँ हैं। पटल का मध्यवर्ती बिल इंद्रक कहलाता है। इसकी चारों दिशाओं व विदिशाओं में एक श्रेणी में अवस्थित बिल श्रेणीबद्ध कहलाते हैं और इनके बीच में रत्नराशिवत् बिखरे हुए बिल प्रकीर्णक कहलाते हैं। इन बिलों में नारकी जीव रहते हैं। (देखें [[ नरक#5.1 | नरक - 5.1]]-3)। सातों पृथिवियों के नीचे अंत में एक राजू प्रमाण क्षेत्र खाली है। (उसमें केवल निगोद जीव रहते हैं)- देखें [[ चित्र सं#10 | चित्र सं - 10 ]]पृ. 441।<br /> | (सर्वलोक तीन भागों में विभक्त है - अधो, मध्य व ऊर्ध्व - देखें [[ लोक#2.2 | लोक - 2.2]],3 मेरु तल के नीचे का क्षेत्र अधोलोक है, जो वेत्रासन के आकार वाला है। 7 राजू ऊँचा व 7 राजू मोटा है। नीचे 7 राजू व ऊपर 1 राजू प्रमाण चौड़ा है। इसमें ऊपर से लेकर नीचे तक क्रम से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा व महातमप्रभा नामकी 7 पृथिवियाँ लगभग एक राजू अंतराल से स्थित हैं। प्रत्येक पृथिवी में यथायोग्य 13,11 आदि पटल 1000 योजन अंतराल से अवस्थित हैं। कुल पटल 49 हैं। प्रत्येक पटल में अनेकों बिल या गुफाएँ हैं। पटल का मध्यवर्ती बिल इंद्रक कहलाता है। इसकी चारों दिशाओं व विदिशाओं में एक श्रेणी में अवस्थित बिल श्रेणीबद्ध कहलाते हैं और इनके बीच में रत्नराशिवत् बिखरे हुए बिल प्रकीर्णक कहलाते हैं। इन बिलों में नारकी जीव रहते हैं। (देखें [[ नरक#5.1 | नरक - 5.1]]-3)। सातों पृथिवियों के नीचे अंत में एक राजू प्रमाण क्षेत्र खाली है। (उसमें केवल निगोद जीव रहते हैं)- देखें [[ चित्र सं#10 | चित्र सं - 10 ]]पृ. 441।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> भावनलोक निर्देश</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> भावनलोक निर्देश</strong> <br /> | ||
(उपरोक्त सात पृथिवियों में जो रत्नप्रभा नाम की प्रथम पृथिवी है, वह तीन भागों में विभक्त है - खरभाग, पंकभाग व अब्बहुल भाग। खरभाग भी चित्र, वैडूर्य, लोहितांक आदि 16 प्रस्तरों में विभक्त है। प्रत्येक प्रस्तर 1000 योजन मोटा है। उनमें चित्र नाम का प्रथम प्रस्तर अनेकों रत्नों व धातुओं की खान है। (देखें [[ रत्नप्रभा ]] | (उपरोक्त सात पृथिवियों में जो रत्नप्रभा नाम की प्रथम पृथिवी है, वह तीन भागों में विभक्त है - खरभाग, पंकभाग व अब्बहुल भाग। खरभाग भी चित्र, वैडूर्य, लोहितांक आदि 16 प्रस्तरों में विभक्त है। प्रत्येक प्रस्तर 1000 योजन मोटा है। उनमें चित्र नाम का प्रथम प्रस्तर अनेकों रत्नों व धातुओं की खान है। (देखें [[ रत्नप्रभा#2|रत्नप्रभा- 2]])। तहाँ खर व पंकभाग में भावनवासी देवों के भवन हैं और अब्बहुल भाग में नरक पटल है। (देखें [[ भवन#4 | भवन - 4]]/1 चित्र)। इसके अतिरिक्त तिर्यक् लोक में भी यत्र-तत्र-सर्वत्र उनके पुर, भवन व आवास हैं। (देखें [[ व्यंतर#4.1 | व्यंतर - 4.1]]-5)। (विशेष देखें [[ भवन#4 | भवन - 4]])।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> व्यंतरलोक निर्देश</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> व्यंतरलोक निर्देश</strong> <br /> | ||
(चित्रा पृथिवी के तल भाग से लेकर सुमेरु की चोटी तक तिर्यग् लोक प्रमाण विस्तृत सर्वक्षेत्र व्यंतरों के रहने का स्थान है। इसके अतिरिक्त खर व पंकभाग में भी उनके भवन हैं। मध्यलोक के सर्व द्वीप-समुद्रों की वेदिकाओं पर, पर्वतों के कूटों पर, नदियों के तटों पर इत्यादि अनेक स्थलों पर यथायोग्य रूप में उनके पुर, भवन व आवास हैं। (विशेष देखें [[ व्यंतर#4.1 | व्यंतर - 4.1]]-5)।<br /> | (चित्रा पृथिवी के तल भाग से लेकर सुमेरु की चोटी तक तिर्यग् लोक प्रमाण विस्तृत सर्वक्षेत्र व्यंतरों के रहने का स्थान है। इसके अतिरिक्त खर व पंकभाग में भी उनके भवन हैं। मध्यलोक के सर्व द्वीप-समुद्रों की वेदिकाओं पर, पर्वतों के कूटों पर, नदियों के तटों पर इत्यादि अनेक स्थलों पर यथायोग्य रूप में उनके पुर, भवन व आवास हैं। (विशेष देखें [[ व्यंतर#4.1 | व्यंतर - 4.1]]-5)।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.11" id="2.11">मध्यलोक निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.11.1" id="2.11.1"> द्वीप-सागर आदि निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/8-10,27 </span><span class="PrakritGatha">सब्वे दीवसमुद्दा संखादीदा भवंति समवट्टा। पढमो दीओ उवही चरिमो मज्झम्मि दीउवही।8। चित्तोवरि बहुमज्झे रज्जूपरिमाणदीहविक्खंभे। चेट्ठंति दीवउवही एक्केक्कं वेढिऊणं हु प्परिदो।9। सव्वे वि वाहिणीसा चित्तखिदिं खंडिदण चेट्ठंति। वज्जखिदीए उवरिं दीवा वि हु चित्ताए।10। जंबूदीवे लवणो उवही कालो त्ति धादईसंडे। अवसेसा वारिणिही वत्तव्वा दीवसमणामा।28। </span>= | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/8-10,27 </span><span class="PrakritGatha">सब्वे दीवसमुद्दा संखादीदा भवंति समवट्टा। पढमो दीओ उवही चरिमो मज्झम्मि दीउवही।8। चित्तोवरि बहुमज्झे रज्जूपरिमाणदीहविक्खंभे। चेट्ठंति दीवउवही एक्केक्कं वेढिऊणं हु प्परिदो।9। सव्वे वि वाहिणीसा चित्तखिदिं खंडिदण चेट्ठंति। वज्जखिदीए उवरिं दीवा वि हु चित्ताए।10। जंबूदीवे लवणो उवही कालो त्ति धादईसंडे। अवसेसा वारिणिही वत्तव्वा दीवसमणामा।28। </span>= | ||
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<li class="HindiText"> सब द्वीपसमुद्र असंख्यात एवं समवृत्त हैं। इनमें से पहला द्वीप, अंतिम समुद्र और मध्य में द्वीप समुद्र हैं।8। चित्रा पृथिवी के ऊपर बहुमध्य भाग में एकराजू लंबे-चौड़े क्षेत्र के भीतर एक-एक को चारों ओर से घेरे हुए द्वीप व समुद्र स्थित हैं। 9। सभी समुद्र चित्रा पृथिवी खंडित कर वज्रा पृथिवी के ऊपर, और सब द्वीप चित्रा पृथिवी के ऊपर स्थित हैं।10। ( | <li class="HindiText"> सब द्वीपसमुद्र असंख्यात एवं समवृत्त हैं। इनमें से पहला द्वीप, अंतिम समुद्र और मध्य में द्वीप समुद्र हैं।8। चित्रा पृथिवी के ऊपर बहुमध्य भाग में एकराजू लंबे-चौड़े क्षेत्र के भीतर एक-एक को चारों ओर से घेरे हुए द्वीप व समुद्र स्थित हैं। 9। सभी समुद्र चित्रा पृथिवी खंडित कर वज्रा पृथिवी के ऊपर, और सब द्वीप चित्रा पृथिवी के ऊपर स्थित हैं।10। <span class="GRef">(मूलाचार./1076)</span>; <span class="GRef">( तत्त्वार्थसूत्र/3/7-8 )</span>; <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/5/2,626-627 )</span>; <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/19 )</span>। </li> | ||
<li | <li class="HindiText"> जंबूद्वीप में लवणोदधि और धातकीखंड में कालोद नामक समुद्र है। शेष समुद्रों के नाम द्वीपों के नाम के समान ही कहना चाहिए।28। (<span class="GRef>मूलाचार/1077)</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/3/38/7/208/17 )</span>; <span class="GRef">( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/183 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> त्रिलोकसार/886 </span><span class="PrakritGatha">वज्जमयमूलभागा वेलुरियकयाइरम्मा सिहरजुदा। दीवो वहीणमंते पायारा होंति सव्वत्थ।886।</span> = <span class="HindiText">सभी द्वीप व समुद्रों के अंत में परिधि रूप से वैडूर्यमयी जगती होती है, जिनका मूल वज्रमयी होता है तथा जो रमणीक शिखरों में संयुक्त हैं। (-विशेष देखें [[ लोक#3.2 | लोक - 3.2 ]]तथा 4 | <span class="GRef"> त्रिलोकसार/886 </span><span class="PrakritGatha">वज्जमयमूलभागा वेलुरियकयाइरम्मा सिहरजुदा। दीवो वहीणमंते पायारा होंति सव्वत्थ।886।</span> = <span class="HindiText">सभी द्वीप व समुद्रों के अंत में परिधि रूप से वैडूर्यमयी जगती होती है, जिनका मूल वज्रमयी होता है तथा जो रमणीक शिखरों में संयुक्त हैं। (-विशेष देखें [[ लोक#3.2 | लोक - 3.2 ]]तथा [[ लोक#4.1 | लोक - 4.1 ]])।<br /> | ||
नोट - (द्वीप-समुद्रों के नाम व समुद्रों के जल का स्वाद - देखें [[ लोक#5.1 | लोक - 5.1]],2)।<br /> | नोट - (द्वीप-समुद्रों के नाम व समुद्रों के जल का स्वाद - देखें [[ लोक#5.1 | लोक - 5.1]],[[ लोक#5.2 | लोक - 5.]])।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.11.2" id="2.11.2"> तिर्यक्लोक, मनुष्यलोक आदि विभाग</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1, 3,1/9/3 </span><span class="PrakritText">देसभेएण तिविहो, मंदरचिलियादो, उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति।</span> = <span class="HindiText">देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है। मंदराचल (सुमेरु पर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है। मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है। मंदराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है।</span><br /> | <span class="GRef"> धवला 4/1, 3,1/9/3 </span><span class="PrakritText">देसभेएण तिविहो, मंदरचिलियादो, उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति।</span> = <span class="HindiText">देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है। मंदराचल (सुमेरु पर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है। मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है। मंदराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/1 </span><span class="SanskritGatha">तनुवातांतपर्यंतस्तिर्यग्लोको व्यवस्थितः। लक्षितावधिरूर्ध्वाधो मेरुयोजनलक्षया।1। </span>= | <span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/1 </span><span class="SanskritGatha">तनुवातांतपर्यंतस्तिर्यग्लोको व्यवस्थितः। लक्षितावधिरूर्ध्वाधो मेरुयोजनलक्षया।1। </span>= | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.12" id="2.12">ज्योतिषलोक सामान्य निर्देश</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="2.12" id="2.12">ज्योतिषलोक सामान्य निर्देश</strong> <br /> | ||
पूर्वोक्त चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर जाकर 110 योजन पर्यंत आकाश में एक राजू प्रमाण विस्तृत ज्योतिष लोक है। नीचे से ऊपर की ओर क्रम से तारागण, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि व शेष अनेक ग्रह अवस्थित रहते हुए अपने-अपने योग्य संचार-क्षेत्र में मेरु की प्रदक्षिणा देते रहते हैं। इनमें से चंद्र इंद्र है और सूर्य प्रतींद्र। 1 सूर्य, 88 ग्रह, 28 नक्षत्र व 66,975 तारे, ये एक चंद्रमा का परिवार है। जंबूद्वीप में दो, लवणसागर में 4, धातकी खंड में 12, कालोद में 42 और पुष्करार्ध में 72 चंद्र हैं। ये सब तो चर अर्थात् चलने वाले ज्योतिष विमान हैं। इससे आगे पुष्कर के परार्ध में 8, पुष्करोद में 32, वारुणीवर द्वीप में 64 और इससे आगे सर्व द्वीप समुद्रों में उत्तरोत्तर दुगुने चंद्र अपने परिवार सहित स्थित हैं। ये अचर ज्योतिष विमान हैं - देखें [[ ज्योतिष लोक#5 | ज्योतिष लोक - 5]]।<br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="2.13" id="2.13"> ऊर्ध्वलोक सामान्य परिचय<br> | <li class="HindiText"><strong name="2.13" id="2.13"> ऊर्ध्वलोक सामान्य परिचय<br> | ||
</strong> | </strong>सुमेरु पर्वत की चोटी से एक बाल मात्र अंतर से ऊर्ध्वलोक प्रारंभ होकर लोक-शिखर पर्यंत 100400 योजनकम 7 राजू प्रमाण ऊर्ध्वलोक है। उसमें भी लोक शिखर से 21 योजन 425 धनुष नीचे तक तो स्वर्ग है और उससे ऊपर लोक शिखर पर सिद्धलोक है। स्वर्गलोक में ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित हैं। इन पटलों में दो विभाग हैं - कल्प व कल्पातीत। इंद्र सामानिक आदि 10 कल्पनाओं युक्त देव कल्पवासी हैं और इन कल्पनाओं से रहित अहमिंद्र कल्पातीत विमानवासी हैं। आठ युगलोंरूप से अवस्थित कल्प पटल 16 हैं - सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेंद्र, बह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत। इनसे ऊपर ग्रैवेयेक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन पटल कल्पातीत हैं। प्रत्येक पटल लाखों योजनों के अंतराल से ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं। प्रत्येक पटल में असंख्यात योजनों के अंतराल से अन्य क्षुद्र पटल हैं। सर्वपटल मिलकर 63 हैं। प्रत्येक पटल में विमान हैं। नरक के बिलोंवत् ये विमान भी इंद्रक श्रेणीबद्ध व प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकारों में विभक्त हैं। प्रत्येक क्षुद्रपटल में एक - एक इंद्रक है और अनेकों श्रेणीबद्ध व प्रकीर्णक। प्रथम महापटल में 33 और अंतिम में केवल एक सर्वार्थसिद्धि नाम का इंद्रक है, इसकी चारों दिशाओं में केवल एक-एक श्रेणीबद्ध है। इतना यह सब स्वर्गलोक कहलाता है। (नोट— चित्र सहित विस्तार के लिए देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]]) सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदंड से 29 योजन 425 धनुष ऊपर जाकर सिद्ध लोक है। जहाँ मुक्तजीव अवस्थित हैं। तथा इसके आगे लोक का अंत हो जाता है (देखें [[ मोक्ष#1.7 | मोक्ष - 1.7]])। </li> | ||
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Latest revision as of 20:56, 6 June 2024
- लोकसामान्य निर्देश
- लोक का लक्षण
- लोक का आकार
- लोक का विस्तार
- वातवलयों का परिचय
- वातवलय सामान्य परिचय
- तीन वलयों का अवस्थान क्रम
- पृथिवियों के सात वातवलयों का स्पर्श
- वातवलयों का विस्तार
- लोक के आठ रुचक प्रदेश
- लोक विभाग निर्देश
- त्रस व स्थावर लोक निर्देश
- अधोलोक सामान्य परिचय
- भावनलोक निर्देश
- व्यंतरलोक निर्देश
- मध्यलोक निर्देश
- ज्योतिषलोक सामान्य निर्देश
- ऊर्ध्वलोक सामान्य परिचय
- लोकसामान्य निर्देश
- लोक का लक्षण
देखें आकाश - 1.3 (1. आकाशके जितने भाग में जीव, पुद्गल आदि षट् द्रव्य देखे जायें सो लोक है और उसके चारों तरफ शेष अनंत आकाश अलोक है, ऐसा लोकका निरुक्ति अर्थ है। 2. अथवा षट् द्रव्यों का समवाय लोक है )
देखें लौकांतिक - 1। (3.जन्म-जरामरणरूप यह संसार भी लोक कहलाता है।)
राजवार्तिक/5/12/10-13/455/20 यत्र पुण्यपापफललोकनं स लोकः।10।.... कः पुनरसौ। आत्मा। लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति लोक:।11।... सर्वज्ञेनानंताप्रतिहतकेवलदर्शनेन लोक्यते यः स लोकः। तेन धर्मादीनामपि लोकत्वं सिद्धम्।13।= जहाँ पुण्य व पाप का फल जो सुख-दु:ख वह देखा जाता है सो लोक है इस व्युत्पत्ति के अनुसार लोक का अर्थ आत्मा होता है। जो पदार्थो को देखे व जाने सो लोक इस व्युत्पत्ति से भी लोक का अर्थ आत्मा है। आत्मा स्वयं अपने स्वरूप का लोकन करता है अतः लोक है। सर्वज्ञ के द्वारा अनंत व अप्रतिहत केवलदर्शन से जो देखा जाये सो लोक है, इस प्रकार धर्म आदि द्रव्यों का भी लोकपना सिद्ध है।
- लोक का आकार
तिलोयपण्णत्ति/1/137-138 हेटि्ठमलोयायारो वेत्तासणसण्णिहो सहावेण। मज्झिमलोयायारो उब्भियमुर अद्धसारिच्छो।137। उवरिमलोयाआरो उब्भियमुरवेण होइ सरिसत्तो। संठाणो एदाणं लोयाणं एण्हिं साहेमि।138।= इन (उपरोक्त) तीनों में से अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासनके सदृश है, और मध्यलोकका आकार खड़े किये हुए आधे मृदंग के ऊर्ध्व भाग के समान है। ऊर्ध्वलोक का आकार खडे किए हुए मृदंग के सदृश है।138। ( धवला 4/1,3.2/गाथा 6/11) ( त्रिलोकसार/6 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/4-9 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/112/11 )।
धवला 4/1,3,2/गाथा 7/11 तलरुक्खसंठाणो।7।= यह लोक तालवृक्षके आकारवाला है।
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/प्र.24 प्रो. लक्षमीचंद - मिस्रदेशके गिरजे में बने हुए महास्तूप से यह लोकाकाशका आकार किंचिंत् समानता रखता प्रतीत होता है।
- लोक का विस्तार
तिलोयपण्णत्ति/1/149-163 सेढिपमाणायामं भागेसु दक्खिणुत्तरेसु पुढं। पुव्बावरेसु वासं भूमिमुहे सत्त येक्कपंचेक्का।149। चोद्दसरज्जुपमाणो उच्छेहो होदि सयललोगस्स।अद्धमुरज्जस्सुदवो समग्गमुखोदयसरिच्छो।150। व हेट्ठिममज्धिमउवरिमलोउच्छेहो कमेण रज्जू वो। सत्त य जोयणलक्खं जोयणलक्खूणसगरज्जू।151। इहरयणसक्करावालुपंकधूमतममहातमादिपहा। सुरवद्धम्मि महीओ सत्त च्चिय रज्जुअंतरिआ।152।धम्मावंसामेघाअंजणरिट्ठाणउब्भमघवीओ। माघविया इय ताणं पुढवीणं वोत्तणामाणि।153।मज्झिमजगस्स हेट्ठिमभागादो णिग्गदो पढमरज्जू। सक्करपहपुढवीए हेट्ठिमभागम्मि णिट्ठादि।154। तत्तो दोइरज्जू वालुवपहहेट्ठि समप्पेदि। तह य तइज्जारज्जूपंकपहहेट्ठास्स भागम्मि।155। धूमपहाए हेट्ठिमभागम्मि समप्पदे तुरियरज्जू। तह पंचमिया रज्जू तमप्पहाहेट्ठिमपएसे।156। महतमहेट्ठिमयंते छट्ठी हि समप्पदे रज्जू। तत्तो सत्तमरज्जू लोयस्स तलम्मि णिट्ठादि।157। मज्झिमजगस्स उवरिमभागादु दिवड्ढरज्जुपरिमाणं। इगिजोयणलक्खूणं सोहम्मविमाणधयदंडे।158। वच्चदि दिवड्ढरज्जू माहिंदसणक्कुमारउवरिम्मि। णिट्ठादि अद्धरज्जूबंभुत्तर उड्ढभागम्मि।159। अवसादि अद्धरज्जू काविट्ठस्सोवरिट्ठभागम्मि। स च्चियमहसुक्कोवरि सहसारोवरि अ स च्चेय।160। तत्तो य अद्धरज्जू आणदकप्पस्स उवरिमपएसे। स य आरणस्स कप्पस्स उवरिमभागम्मि गेविज्जं।161। तत्तो उवरिमभागे णवाणुत्तरओ होंति एक्करज्जूवो। एवं उवरिमलोए रज्जुविभागो समुद्दिट्ठं।162। णियणिय चरिमिंदयधयदंडग्गं कप्पभूमिअवसाणं कप्पादीदमहीए विच्छेदो लोयविच्छेदो।169। =- दक्षिण और उत्तर भाग में लोक का आयाम जगश्रेणी प्रमाण अर्थात् सात राजू है। पूर्व और पश्चिम भाग में भूमि और मुख का व्यास क्रम से सात, एक, पाँच और एक राजू है। तात्पर्य यह है कि लोक की मोटाई सर्वत्र सात राजू है, और विस्तार क्रम से लोक के नीचे सात राजू, मध्यलोक में एक राजू, ब्रह्म स्वर्ग पर पाँच राजू और लोक के अंत में एक राजू है।149।
- संपूर्ण लोक की ऊँचाई 14 राजू प्रमाण है। अर्धमृदंग की ऊँचाई संपूर्ण मृदंग की ऊँचाई के सदृश है। अर्थात् अर्धमृदंग सदृश अधोलोक जैसे सात राजू ऊँचा है उसी प्रकार ही पूर्ण मृदंग के सदृश ऊर्ध्वलोक भी सात ही राजू ऊँचा है।150। क्रम से अधोलोक की ऊँचाई सात राजू, मध्यलोक की ऊँचाई 1,00,000 योजन, और ऊर्ध्वलोक की ऊँचाई एक लाख योजन कम सात राजू है।151। ( धवला 4/1,3,2/गाथा 8/11 ); ( त्रिलोकसार/113 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/11,16-17 )।
- तहाँ भी - तीनों लोकों में से अर्धमृदंगाकार अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा, महातमप्रभा ये सात पृथिवियाँ एक-एक राजू के अंतराल से हैं।152। धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये इन उपर्युक्त पृथिवियों के अपरनाम हैं।153। मध्यलोक के अधोभाग से प्रारंभ होकर पहला राजू शर्कराप्रभा पृथिवी के अधोभाग में समाप्त होता है।154। इसके आगे दूसरा राजू प्रारंभ होकर बालुकाप्रभा के अधोभाग में समाप्त होता है। तथा तीसरा राजू पंकप्रभा के अधोभाग में।155। चौथा धूमप्रभा के अधोभाग में, पाँचवाँ तमःप्रभा के अधोभाग में।156। और छठा राजू महातमःप्रभा के अंत में समाप्त होता है। इससे आगे सातवाँ राजू लोक के तलभाग में समाप्त होता है।157। (इस प्रकार अधोलोक की 7 राजू ऊँचाई का विभाग है।)
- रत्नप्रभा पृथिवी के तीन भागों में खरभाग 16000 यो., पंक भाग 84000 यो. और अब्बहुल भाग 80,000 योजन मोटे हैं। देखें रत्नप्रभा - 2।
- लोक में मेरू के तलभाग से उसकी चोटी पर्यंत 1,00,000 योजन ऊँचा व 1 राजू प्रमाण विस्तार युक्त मध्यलोक है। इतना ही तिर्यक्लोक है। - देखें तिर्यंच - 3.1 )। मनुष्यलोक चित्रा पृथिवी के ऊपर से मेरु की चोटी तक 99,000 योजन विस्तार तथा अढाई द्वीप प्रमाण 45,00,000 योजन विस्तार युक्त है। -देखें मनुष्य - 4.1।
- चित्रा पृथिवी के नीचे खर व पंक भाग में 1,00,000 यो. तथा चित्रा पृथिवी के ऊपर मेरु की चोटी तक 99,000 योजन ऊँचा और एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त भावनलोक है। - देखें भावन लोक - 4.15। इसी प्रकार व्यंतरलोक भी जानना। - देखें व्यंतर - 4.1-5। चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर जाकर 110 योजन बाहल्य व 1 राजू विस्तार युक्त ज्योतिष लोक है। -देखें ज्योतिषि लोक - 1.2.6
- मध्यलोक के ऊपरी भाग से सौधर्म विमान का ध्वजदंड 1,00,000 योजन कम 1½राजू प्रमाण ऊँचा है।158। इसके आगे 1½ राजू प्रमाण ऊँचा है। 158। इसके आगे 1½ राजू माहेंद्र व सनत्कुमार स्वर्ग के ऊपरी भाग में, 1/2 राजू ब्रह्मोत्तर के ऊपरी भाग में।159। 1/2 राजू कापिष्ठ के ऊपीर भाग में, 1/2 राजू महाशुक्र के ऊपरी भाग में, 1/2 राजु सहस्रार के ऊपरी भाग में।160। 1/2 राजू आनत के ऊपरी भाग में और 1/2 राजू आरण-अच्युत के ऊपरी भाग में समाप्त हो जाता है।161। उसके ऊपर एक राजू की ऊँचाई में नवग्रैवेयक, नव अनुदिश, और 5 अनुत्तर विमान हैं। इस प्रकार ऊर्ध्वलोक में 7 राजू का विभाग कहा गया।162। अपने-अपने अंतिम इंद्रक -विमान समन्बधी ध्वजदंड के अग्रभाग तक उन-उन स्वर्गों का अंत समझना चाहिए। और कल्पातीत भूमि का जो अंत है वही लोक का भी अंत है।163।
- (लोक शिखर के नीचे 425 धनुष और 21 योजन मात्र जाकर अंतिम सर्वार्थसिद्धि इंद्रक स्थित है। (देखें स्वर्ग_देव - 5.1;) सर्वार्थसिद्धि इंद्रक के ध्वजदंड से 12 योजन मात्र ऊपर जाकर अष्टम पृथिवी है। वह 8 योजन मोटी व एक राजू प्रमाण विस्तृत है। उसके मध्य ईषत् प्राग्भार क्षेत्र है। वह 45,00,000 योजन विस्तार युक्त है। मध्य में 8 योजन और सिरों पर केवल अंगुल प्रमाण मोटा है। इस अष्टम पृथिवी के ऊपर 7050 धनुष जाकर सिद्धिलोक है। (देखें मोक्ष - 1.7)।
- वातवलयों का परिचय
- वातवलय सामान्य परिचय
तिलोयपण्णत्ति/1/268 गोमुत्तमुग्गवण्णा धणोदधी तह धणाणिलओ वाऊ। तणु वादो बहुवण्णो रुक्खस्स तयं व वलयातियं।268। = गोमूत्र के समान वर्णवाला घनोदधि, मूंग के समान वर्णवाला घनवात तथा अनेक वर्णवाला तनुवात। इस प्रकार ये तीनों वातवलय वृक्ष की त्वचा के समान (लोकको घेरे हुए) हैं।268। ( राजवार्तिक/3/1/8/160/16 ); ( त्रिलोकसार/123 ); (देखें चित्र सं - 9 पृ. 439)।
- तीन वलयों का अवस्थान क्रम
तिलोयपण्णत्ति/1/269 पढमो लोयाधारो घणोवही इह घणाणिलो ततो। तप्परदो तणुवादो अंतम्मि णहंणिआधारं।269। = इनमें से प्रथम घनोदधि वातवलय लोक का आधारभूत है, इसके पश्चात् घनवातवलय, उसके पश्चात् तनुवातवलय और फिर अंत में निजाधार आकाश है।269। ( सर्वार्थसिद्धि/3/1/204/3 ); ( राजवार्तिक/3/1/8/160/14 ); (तत्त्वार्थ वृत्ति/3/1/श्लोक 1-2/112 )।
तत्त्वार्थ वृत्ति /3/1/111/19 सर्वाः सप्तापि भूमयो घनातप्रतिष्ठा वर्तंते। स च घनवातः अंबुवातप्रतिष्ठोऽस्ति। स चांबुवातस्तनुवातस्तनृप्रतिष्ठो वर्तते। स च तनुवात आकाशप्रतिष्ठो भवति। आकाशस्यालंबनं किमपि नास्ति। = दृष्टि नं. 2- ये सभी सातों भूमियाँ घनवात के आश्रय स्थित हैं। वह घनवात भी अंबु (घनोदधि) वात के आश्रय स्थित है और वह अंबुवात तनुवात के आश्रय स्थित है। वह तनुवात आकाश के आश्रय स्थित है, तथा आकाश का कोई भी आलंबन नहीं है।
- पृथिवियों के सात वातवलयों का स्पर्श
तिलोयपण्णत्ति/2/24 सत्तच्चिय भूमीओ णवदिसभाएण घणोवहिविलग्गा। अट्ठमभूमीदसदिस भागेसु घणोवहिं छिवदि।24।
तिलोयपण्णत्ति 8/206-207 सोहम्मदुगविमाणा घणस्सरूवस्स उवरि सलिलस्स। चेट्ठंते पवणोवरि माहिंदसणक्कुमाराणिं।206। बम्हाई चत्तारो कप्पा चेट्ठंति सलिलवादढं। आणदपाणदपहुदीसेसा सुद्धम्मि गयणयले।207। = सातों (नरक) पृथिवियाँ ऊर्ध्वदिशा को छोड़कर शेष नौ दिशाओं में घनोदधि वातवलय से लगी हई हैं, परंतु आठवीं पृथिवी दशों दिशाओं में ही वातवलय को छूती है। 24। सौधर्म युगल के विमान घनस्वरूप जल के ऊपर तथा माहेंद्र व सनत्कुमार कल्प के विमान पवन के ऊपर स्थित हैं।206। ब्रह्मादि चार कल्प जल व वायु दोनों के ऊपर, तथा आनत प्राणत आदि शेष विमान शुद्ध आकाशतल में स्थित हैं।207।
- वातवलयों का विस्तार
तिलोयपण्णत्ति/1/270-281 जोयणवीससहस्सां बहलंतम्मारुदाण पत्तेक्कं। अट्ठाखिदीणं हेट्ठेलोअतले उवरि जाव इगिरज्जू।270। सगपण चउजोयणयं सत्तमणारयम्मि पुहविपणधीए। पंचचउतियपमाणं तिरीयखेत्तस्स पणिधोए।271। सगपंचचउसमाणा पणिधीए होंति बम्हकप्पस्स। पणचउतिय जोयणया उवरिमलोयस्स यंतम्मि।272। कोसदुगमेक्ककोसं किंचूणेक्कं च लोयसिहरम्मि। ऊणपमाणं दंडा चउस्सया पंचवीस जुदा।273। तीसं इगिदालदलं कोसा तियभाजिदा य उणवणया। सत्तमखिदिपणिधीए वम्हजुदे वाउबहुलत्तं।280। दो छब्बारस भागब्भहिओ कोसो कमेण वाउघणं। लोयउवरिम्मि एवं लोय विभायम्मि पण्णत्तं।281। =दृष्टि नं. 1- आठ पृथिवियों के नीचे लोक के तलभाग से एक राजू की ऊँचाई तक इन वायुमंडलों में से प्रत्येक की मोटाई 20,000 योजन प्रमाण है।270। सातवें नरक में पृथिवियों के पार्श्व भाग में क्रम से इन तीनों वातवलयों की मोटाई 7,5 और 4 तथा इसके ऊपर तिर्यग्लोक (मर्त्यलोक ) के पार्श्वभाग में 5,4 और 3 योजन प्रमाण है।271। इसके आगे तीनों वायुओं की मोटाई ब्रह्म स्वर्ग के पार्श्व भाग में क्रम से 7,5 और 4 योजन प्रमाण, तथा ऊर्ध्वलोक के अंत में (पार्श्व भाग में) 5, 4 और 3 योजन प्रमाण है।272। लोक के शिखर पर (पार्श्व भाग में) उक्त तीनों वातवलयों का बाहल्य क्रमशः 2 कोस, 1 कोस और कुछ कम 1 कोस है। यहाँ कुछ कम का प्रमाण 2425 धनुष समझना चाहिए।273। (शिखर पर प्रत्येक की मोटाई 20,000 योजन है - देखें मोक्ष - 1.7) ( त्रिलोकसार/124-126 )। दृष्टि नं. 2- सातवीं पृथिवी और ब्रह्म युगल के पार्श्वभाग में तीनों वायुओं की मोटाई क्रम से 30, 41/2 और 49/3 कोस हैं।280। लोक शिखर पर तीनों वातवलयों की मोटाई क्रम से 1(1/3), 1(1/2) और 1 (1/12) कोस प्रमाण है। ऐसा लोक विभाग में कहा गया है।281। - विशेष देखें चित्र सं - 9 पृ. 439.
- वातवलय सामान्य परिचय
- लोक के आठ रुचक प्रदेश
राजवार्तिक/1/20/12/76/13 मेरुप्रतिष्ठवज्रवैडूर्यपटलांतररुचकसंस्थिता अष्टावाकाशप्रदेशलोकमध्यम्। = मेरू पर्वत के नीचे वज्र व वैडूर्य पटलों के बीच में चौकोर संस्थानरूप से अवस्थित आकाश के आठ प्रदेश लोक का मध्य हैं।
- लोक विभाग निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/1/136 सयलो एस य लोओ णिप्पण्णो सेढिविदंमाणेण। तिवियप्पो णादव्वो हेट्ठिममज्झिल्लउड्ढ भेएण।136। = श्रेणी वृंद्र के मान से अर्थात् जगश्रेणी के घन प्रमाण से निष्पन्न हुआ यह संपूर्ण लोक अधोलोक मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक के भेद से तीन प्रकार का है।136। ( बारस अणुवेक्खा/39 ); ( धवला 13/5,5,50/288/4 )।
- त्रस व स्थावर लोक निर्देश
(पूर्वोक्त वेत्रासन व मृदंगाकार लोक के बहु मध्य भाग में, लोक शिखर से लेकर उसके अंत पर्यंत 13 राजू लंबी व मध्यलोक समान एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त नाड़ी है। त्रस जीव इस नाड़ी से बाहर नहीं रहते इसलिए यह त्रसनाली नाम से प्रसिद्ध है। (देखें त्रस - 2.3, त्रस - 2.4)। परंतु स्थावर जीव इस लोक में सर्वत्र पाये जाते हैं। (देखें स्थावर - 9) तहाँ भी सूक्ष्म जीव तो लोक में सर्वत्र ठसाठस भरे हैं, पर बादर जीव केवल त्रसनाली में होते हैं (देखें सूक्ष्म - 3.7) उनमें भी तेजस्कायिक जीव केवल कर्मभूमियों में ही पाये जाते हैं अथवा अधोलोक व भवनवासियों के विमानों में पाँचों कायों के जीव पाये जाते हैं, पर स्वर्ग लोक में नहीं - देखें काय - 2.5। विशेष देखें चित्र सं - 9 पृ. 439।
- अधोलोक सामान्य परिचय
(सर्वलोक तीन भागों में विभक्त है - अधो, मध्य व ऊर्ध्व - देखें लोक - 2.2,3 मेरु तल के नीचे का क्षेत्र अधोलोक है, जो वेत्रासन के आकार वाला है। 7 राजू ऊँचा व 7 राजू मोटा है। नीचे 7 राजू व ऊपर 1 राजू प्रमाण चौड़ा है। इसमें ऊपर से लेकर नीचे तक क्रम से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा व महातमप्रभा नामकी 7 पृथिवियाँ लगभग एक राजू अंतराल से स्थित हैं। प्रत्येक पृथिवी में यथायोग्य 13,11 आदि पटल 1000 योजन अंतराल से अवस्थित हैं। कुल पटल 49 हैं। प्रत्येक पटल में अनेकों बिल या गुफाएँ हैं। पटल का मध्यवर्ती बिल इंद्रक कहलाता है। इसकी चारों दिशाओं व विदिशाओं में एक श्रेणी में अवस्थित बिल श्रेणीबद्ध कहलाते हैं और इनके बीच में रत्नराशिवत् बिखरे हुए बिल प्रकीर्णक कहलाते हैं। इन बिलों में नारकी जीव रहते हैं। (देखें नरक - 5.1-3)। सातों पृथिवियों के नीचे अंत में एक राजू प्रमाण क्षेत्र खाली है। (उसमें केवल निगोद जीव रहते हैं)- देखें चित्र सं - 10 पृ. 441।
- भावनलोक निर्देश
(उपरोक्त सात पृथिवियों में जो रत्नप्रभा नाम की प्रथम पृथिवी है, वह तीन भागों में विभक्त है - खरभाग, पंकभाग व अब्बहुल भाग। खरभाग भी चित्र, वैडूर्य, लोहितांक आदि 16 प्रस्तरों में विभक्त है। प्रत्येक प्रस्तर 1000 योजन मोटा है। उनमें चित्र नाम का प्रथम प्रस्तर अनेकों रत्नों व धातुओं की खान है। (देखें रत्नप्रभा- 2)। तहाँ खर व पंकभाग में भावनवासी देवों के भवन हैं और अब्बहुल भाग में नरक पटल है। (देखें भवन - 4/1 चित्र)। इसके अतिरिक्त तिर्यक् लोक में भी यत्र-तत्र-सर्वत्र उनके पुर, भवन व आवास हैं। (देखें व्यंतर - 4.1-5)। (विशेष देखें भवन - 4)।
- व्यंतरलोक निर्देश
(चित्रा पृथिवी के तल भाग से लेकर सुमेरु की चोटी तक तिर्यग् लोक प्रमाण विस्तृत सर्वक्षेत्र व्यंतरों के रहने का स्थान है। इसके अतिरिक्त खर व पंकभाग में भी उनके भवन हैं। मध्यलोक के सर्व द्वीप-समुद्रों की वेदिकाओं पर, पर्वतों के कूटों पर, नदियों के तटों पर इत्यादि अनेक स्थलों पर यथायोग्य रूप में उनके पुर, भवन व आवास हैं। (विशेष देखें व्यंतर - 4.1-5)।
- मध्यलोक निर्देश
- द्वीप-सागर आदि निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/5/8-10,27 सब्वे दीवसमुद्दा संखादीदा भवंति समवट्टा। पढमो दीओ उवही चरिमो मज्झम्मि दीउवही।8। चित्तोवरि बहुमज्झे रज्जूपरिमाणदीहविक्खंभे। चेट्ठंति दीवउवही एक्केक्कं वेढिऊणं हु प्परिदो।9। सव्वे वि वाहिणीसा चित्तखिदिं खंडिदण चेट्ठंति। वज्जखिदीए उवरिं दीवा वि हु चित्ताए।10। जंबूदीवे लवणो उवही कालो त्ति धादईसंडे। अवसेसा वारिणिही वत्तव्वा दीवसमणामा।28। =- सब द्वीपसमुद्र असंख्यात एवं समवृत्त हैं। इनमें से पहला द्वीप, अंतिम समुद्र और मध्य में द्वीप समुद्र हैं।8। चित्रा पृथिवी के ऊपर बहुमध्य भाग में एकराजू लंबे-चौड़े क्षेत्र के भीतर एक-एक को चारों ओर से घेरे हुए द्वीप व समुद्र स्थित हैं। 9। सभी समुद्र चित्रा पृथिवी खंडित कर वज्रा पृथिवी के ऊपर, और सब द्वीप चित्रा पृथिवी के ऊपर स्थित हैं।10। (मूलाचार./1076); ( तत्त्वार्थसूत्र/3/7-8 ); ( हरिवंशपुराण/5/2,626-627 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/1/19 )।
- जंबूद्वीप में लवणोदधि और धातकीखंड में कालोद नामक समुद्र है। शेष समुद्रों के नाम द्वीपों के नाम के समान ही कहना चाहिए।28। (मूलाचार/1077); ( राजवार्तिक/3/38/7/208/17 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/183 )।
त्रिलोकसार/886 वज्जमयमूलभागा वेलुरियकयाइरम्मा सिहरजुदा। दीवो वहीणमंते पायारा होंति सव्वत्थ।886। = सभी द्वीप व समुद्रों के अंत में परिधि रूप से वैडूर्यमयी जगती होती है, जिनका मूल वज्रमयी होता है तथा जो रमणीक शिखरों में संयुक्त हैं। (-विशेष देखें लोक - 3.2 तथा लोक - 4.1 )।
नोट - (द्वीप-समुद्रों के नाम व समुद्रों के जल का स्वाद - देखें लोक - 5.1, लोक - 5.)।
- तिर्यक्लोक, मनुष्यलोक आदि विभाग
धवला 4/1, 3,1/9/3 देसभेएण तिविहो, मंदरचिलियादो, उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो त्ति। = देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है। मंदराचल (सुमेरु पर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है। मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है। मंदराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है।
हरिवंशपुराण/5/1 तनुवातांतपर्यंतस्तिर्यग्लोको व्यवस्थितः। लक्षितावधिरूर्ध्वाधो मेरुयोजनलक्षया।1। =- तनुवातवलय के अंतभाग तक तिर्यग्लोक अर्थात् मध्यलोक स्थित है। मेरु पर्वत एक लाख योजन वाला विस्तारवाला है। उसी मेरु पर्वत द्वारा ऊपर तथा नीचे इस तिर्यग्लोक की अवधि निश्चित हैं।1। (इसमें असंख्यात द्वीप, समुद्र एक दूसरे को वेष्टित करके स्थित हैं देखें लोक - 2.11। यह सारा का सारा तिर्यग्लोक कहलाता है, क्योंकि तिर्यंच जीव इस क्षेत्र में सर्वत्र पाये जाते हैं।
- उपरोक्त तिर्यग्लोक के मध्यवर्ती, जंबूद्वीप से लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक अढाई द्वीप व दो सागर से रुद्ध 45,00,000 योजन प्रमाण क्षेत्र मनुष्यलोक है। देवों आदि के द्वारा भी उनका मानुषोत्तर पर्वत के पर भाग में जाना संभव नहीं है। (-देखें मनुष्य - 4.1)।
- मनुष्य लोक के इन अढाई द्वीपों में से जंबूद्वीप में 1 और घातकी व पुष्करार्ध में दो-दो मेरु हैं। प्रत्येक मेरु संबंधी 6 कुलधर पर्वत होते हैं, जिनसे वह द्वीप 7 क्षेत्रों में विभक्त हो जाता है। मेरु के प्रणिधि भाग में दो कुरु तथा मध्यवर्ती विदेह क्षेत्र के पूर्व व पश्चिमवर्ती दो विभाग होते हैं। प्रत्येक में 8 वक्षार पर्वत, 6 विभंगा नदियाँ तथा 16 क्षेत्र हैं। उपरोक्त 7 व इन 32 क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो प्रधान नदियाँ हैं। 7 क्षेत्रों में से दक्षिणी व उत्तरीय दो क्षेत्र तथा 32 विदेह इन सबके मध्य में एक-एक विजयार्ध पर्वत हैं, जिनपर विद्याधरों की बस्तियाँ हैं। (देखें लोक - 3.5)।
- इस अढाई द्वीप तथा अंतिम द्वीप व सागर में ही कर्मभूमि है, अन्य सर्व द्वीप व सागर में सर्वदा भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। कृष्यादि षट्कर्म तथा धर्म-कर्म संबंधी अनुष्ठान जहाँ पाये जायें वह कर्मभूमि है, और जहाँ जीव बिना कुछ किये प्राकृतिक पदार्थों के आश्रय पर उत्तम भोगभोगते हुए सुखपूर्वक जीवन-यापन करें वह भोगभूमि है। अढाई द्वीप के सर्व क्षेत्रों में भी सर्व विदेह क्षेत्रों में त्रिकाल उत्तम प्रकार की कर्मभूमि रहती है। दक्षिणी व उत्तरी दो-दो क्षेत्रों में षट्काल परिवर्तन होता है। तीन कालों में उत्तम,मध्यम व जघन्य भोगभूमि और तीन कालों में उत्तम, मध्यम व जघन्य भोगभूमि और तीन कालों में उत्तम, मध्यम व जघन्य कर्मभूमि रहती है। दोनों कुरुओं में सदा उत्तम भोगभूमि रहती है, इनके आगे दक्षिण व उत्तरवर्ती दो क्षेत्रों में सदा मध्यम भोगभूमि और उनसे भी आगे के शेष दो क्षेत्रों में सदा जघन्य भोगभूमि रहती है (देखें भूमि - 3) भोगभूमि में जीव की आयु, शरीरोत्सेध, बल व सुख क्रम से वृद्धिंगत होता है और कर्मभूमि में क्रमशः हानिगत होता है। - देखें काल - 4 .18। 5. मनुष्यलोक व अंतिम स्वयंप्रभ द्वीप व सागर को छोड़कर शेष सभी द्वीप, सागरों में विकलेंद्रिय व जलचर नहीं होते हैं। इसी प्रकार सर्व ही भोगभूमियों में भी वे नहीं होते हैं। वैर वश देवों के द्वारा ले जाये गये वे सर्वत्र संभव हैं। - देखें तिर्यंच - 3.7।
- द्वीप-सागर आदि निर्देश
- ज्योतिषलोक सामान्य निर्देश
पूर्वोक्त चित्रा पृथिवी से 790 योजन ऊपर जाकर 110 योजन पर्यंत आकाश में एक राजू प्रमाण विस्तृत ज्योतिष लोक है। नीचे से ऊपर की ओर क्रम से तारागण, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि व शेष अनेक ग्रह अवस्थित रहते हुए अपने-अपने योग्य संचार-क्षेत्र में मेरु की प्रदक्षिणा देते रहते हैं। इनमें से चंद्र इंद्र है और सूर्य प्रतींद्र। 1 सूर्य, 88 ग्रह, 28 नक्षत्र व 66,975 तारे, ये एक चंद्रमा का परिवार है। जंबूद्वीप में दो, लवणसागर में 4, धातकी खंड में 12, कालोद में 42 और पुष्करार्ध में 72 चंद्र हैं। ये सब तो चर अर्थात् चलने वाले ज्योतिष विमान हैं। इससे आगे पुष्कर के परार्ध में 8, पुष्करोद में 32, वारुणीवर द्वीप में 64 और इससे आगे सर्व द्वीप समुद्रों में उत्तरोत्तर दुगुने चंद्र अपने परिवार सहित स्थित हैं। ये अचर ज्योतिष विमान हैं - देखें ज्योतिष लोक - 5।
- ऊर्ध्वलोक सामान्य परिचय
सुमेरु पर्वत की चोटी से एक बाल मात्र अंतर से ऊर्ध्वलोक प्रारंभ होकर लोक-शिखर पर्यंत 100400 योजनकम 7 राजू प्रमाण ऊर्ध्वलोक है। उसमें भी लोक शिखर से 21 योजन 425 धनुष नीचे तक तो स्वर्ग है और उससे ऊपर लोक शिखर पर सिद्धलोक है। स्वर्गलोक में ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित हैं। इन पटलों में दो विभाग हैं - कल्प व कल्पातीत। इंद्र सामानिक आदि 10 कल्पनाओं युक्त देव कल्पवासी हैं और इन कल्पनाओं से रहित अहमिंद्र कल्पातीत विमानवासी हैं। आठ युगलोंरूप से अवस्थित कल्प पटल 16 हैं - सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेंद्र, बह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत। इनसे ऊपर ग्रैवेयेक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन पटल कल्पातीत हैं। प्रत्येक पटल लाखों योजनों के अंतराल से ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं। प्रत्येक पटल में असंख्यात योजनों के अंतराल से अन्य क्षुद्र पटल हैं। सर्वपटल मिलकर 63 हैं। प्रत्येक पटल में विमान हैं। नरक के बिलोंवत् ये विमान भी इंद्रक श्रेणीबद्ध व प्रकीर्णक के भेद से तीन प्रकारों में विभक्त हैं। प्रत्येक क्षुद्रपटल में एक - एक इंद्रक है और अनेकों श्रेणीबद्ध व प्रकीर्णक। प्रथम महापटल में 33 और अंतिम में केवल एक सर्वार्थसिद्धि नाम का इंद्रक है, इसकी चारों दिशाओं में केवल एक-एक श्रेणीबद्ध है। इतना यह सब स्वर्गलोक कहलाता है। (नोट— चित्र सहित विस्तार के लिए देखें स्वर्ग - 5) सर्वार्थसिद्धि विमान के ध्वजदंड से 29 योजन 425 धनुष ऊपर जाकर सिद्ध लोक है। जहाँ मुक्तजीव अवस्थित हैं। तथा इसके आगे लोक का अंत हो जाता है (देखें मोक्ष - 1.7)।
- लोक का लक्षण