पाप: Difference between revisions
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सर्वार्थसिद्धि/6/3/320/3 <span class="SanskritText"> पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम्। तद सद्वेद्यादि।</span> = <span class="HindiText">जो आत्मा को शुभ से बचाता है, वह पाप है। जैसे - असाता वेदनीयादि। ( राजवार्तिक/6/3/5/507/14 )। </span><br /> | |||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/21 <span class="SanskritText">पापं नाम अनभिमतस्य प्रापकं।</span> = <span class="HindiText">अनिष्ट पदाथो की प्राप्ति जिससे होती है, ऐसे कर्म को (भावों को) पाप कहते हैं। <br /> | |||
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प्रवचनसार/181 <span class="PrakritText">सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं त्ति भण्यिमण्णेसु। </span>= <span class="HindiText">पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है, और अशुभ परिणाम पाप है। </span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह मु./38 <span class="PrakritText">असुहभावजुत्ता... पावं हवंति खलु जीवा। 38।</span> =<span class="HindiText"> अशुभ परिणामों से युक्त जीव पाप रूप होते हैं। </span><br /> | |||
स.म./27/302/17 <span class="SanskritText">पापं हिंसादिक्रियासाध्यमशुभं कर्म। </span>= <span class="HindiText">पाप हिंसादि से होनेवाले अशुभकर्म रूप होता है। <br /> | स.म./27/302/17 <span class="SanskritText">पापं हिंसादिक्रियासाध्यमशुभं कर्म। </span>= <span class="HindiText">पाप हिंसादि से होनेवाले अशुभकर्म रूप होता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">निन्दित आचरण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">निन्दित आचरण</strong> </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय/140 <span class="PrakritGatha">सण्णांओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अत्तरुद्दाणि। णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होंति। 140।</span> = <span class="HindiText">चारों संज्ञाएँ, तीन लेश्याएँ, इन्द्रिय वशता, आर्त रौद्रध्यान, दुःप्रयुक्त ज्ञान और मोह - यह भाव पाप प्रद हैं। 140। </span><br /> | |||
नयचक्र बृहद्/162 <span class="PrakritGatha">अहवा कारणभूदा तेसिं च वयव्वयाइ इह भणिया। ते खलु पुण्णं पावं जाण इमं पवयणे भणियं। 162।</span> = <span class="HindiText">अशुभ वेदादि के कारण जो अव्रतादि भाव हैं उनको शास्त्र में पाप कहा गया है। </span><br /> | |||
योगसार (अमितगति)/4/38 <span class="SanskritGatha"> निन्दकत्वं प्रतीक्ष्येषु नैर्वृण्यं सर्वजन्तुषु। निन्दिते चरणे रागः पापबन्धविधायकः। 38।</span> = <span class="HindiText">अर्हन्तादि पूज्य पुरुषों की निन्दा करना, समस्त जीवों में निर्दय भाव रहना, और निन्दित आचरणों में प्रेम रखना आदि बंध का कारण हैं। <br /> | |||
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सर्वार्थसिद्धि/6/11/330/1 <span class="SanskritText"> परमकरुणाशयस्य निःशल्यस्य संयतस्योपरि गण्डं पाटयतो दुःखहेतुत्वे स्त्यपि न पापबन्धो बाह्यनिमित्तमात्रादेव भवति। </span>= <span class="HindiText">अत्यन्त दयालु किसी वैद्य के फोड़े की चीर-फाड़ और मरहम पट्टी करते समय निःशल्य संयत को दुःख देने में निमित्त होने पर भी केवल बाह्य निमित्त मात्र से पाप बन्ध नहीं होता। <br /> | |||
देखें [[ पुण्य#1.4 | पुण्य - 1.4 ]](पुण्य व पाप में अन्तरङ्ग प्रधान है)। <br /> | देखें [[ पुण्य#1.4 | पुण्य - 1.4 ]](पुण्य व पाप में अन्तरङ्ग प्रधान है)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong>पाप (अशुभ नामकर्म) के बन्ध योग्य परिणाम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong>पाप (अशुभ नामकर्म) के बन्ध योग्य परिणाम</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/6/3,22 ....<span class="SanskritText">अशुभः पापस्य। 3। योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः। 22। </span>= <span class="HindiText">अशुभ योग पापास्रव का कारण है। 3। योग वक्रता और विसंवाद ये अशुभ नामकर्म के आस्रव हैं। 22। </span><br /> | |||
पंचास्तिकाय/139 <span class="PrakritGatha"> चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा य विसयेसु। परपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि। 139।</span> = <span class="HindiText">बहु प्रमादवाली चर्या, कलुषता, विषयों के प्रति लोलुपता, पर को परिताप करना तथा पर के अपवाद बोलना - वह पाप का आस्रव करता है। 139। </span><br /> | |||
मू.आ./235 <span class="PrakritGatha">पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो। विवरीदं पावस्स दु आसवहेउं वियाणादि। 235।</span> = <span class="HindiText">... शुभ से विपरीत निर्दयपना मिथ्याज्ञानदर्शनरूप उपयोग पापकर्म के आस्रव के कारण हैं। 235। </span><br /> | मू.आ./235 <span class="PrakritGatha">पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो। विवरीदं पावस्स दु आसवहेउं वियाणादि। 235।</span> = <span class="HindiText">... शुभ से विपरीत निर्दयपना मिथ्याज्ञानदर्शनरूप उपयोग पापकर्म के आस्रव के कारण हैं। 235। </span><br /> | ||
राजवार्तिक/6/22/4/528/18 <span class="SanskritText">चशब्दः क्रियते अनुक्तस्यास्रवस्य समुच्चयार्थः। कः पुनरसौ। मिथ्यादर्शन-पिशुनताऽस्थिरचित्तस्वभावता-कूटमानतुलाकरण-सुवर्णमणिरत्नाद्यकृति-कुटिलसाक्षित्वाङ्गोपाङ्ग - च्यावनवर्णगन्धरसस्पर्शान्यथाभावन-यन्त्रपञ्जरक्रियाद्रव्यान्तरविषय - संबन्धनिकृतिभूयिष्ठता - परनिन्दात्मप्रशंसा-नृतवचन परद्रब्यादान - महारम्भपरिग्रह - उज्ज्वलवेषरूपमद - परूषासभ्यप्रलाप - आक्रोश - मौखर्य - सौभाग्योपयोगवशीकरणप्रयोगपरकुतूहलोत्पादनालकारा - दर - चैतन्यप्रदेशगन्धमाल्यधूपादिमोषण - विलम्बनोपहास - इष्टिकापाक - दवाग्निप्रयोग - प्रतिमायतनप्रतिश्रयारामोद्यानविनाशनतीवक्रोधमान - मायालोभ - पापकर्मोपजीवनादिलक्षणः। स एष सर्वोऽशुभस्य नाम्न आस्रवः। </span>=<span class="HindiText"> च शब्द अनुक्त के समुच्चयार्थ है। मिथ्यादर्शन, पिशुनता, अस्थिरचित्तस्वभावता, झूठे बाट तराजू आदि रखना, कृत्रिम सुवर्ण मणि रत्न आदि बनाना, झूठी गवाही, अंग उपांगों का छेदन, वर्ण गन्ध रस और स्पर्श का विपरीतपना, यन्त्र पिंजरा आदि बनाना, माया बाहुल्य, परनिन्दा, आत्म प्रशंसा, मिथ्या भाषण, पर द्रव्यहरण, महारंभ, महा परिग्रह, शौकीन वेष, रूप का घमण्ड, कठोर असभ्य भाषण, गाली बकना, व्यर्थ बकवास करना, वशीकरण प्रयोग, सौभाग्योपयोग, दूसरे में कौतूहल उत्पन्न करना, भूषणों में रुचि, मंदिर के गन्धमाल्य या धूपादि का चुराना, लम्बी हँसी, ईंटों का भट्टा लगाना, वन में दावाग्नि जलवाना, प्रतिमायतन विनाश, आश्रय-विनाश, आराम-उद्यान विनाश, तीव्र क्रोध, मान, माया व लोभ और पापकर्म जीविका आदि भी अशुभ नाम के आस्रव के कारण हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/6/22/337/5 ); ( ज्ञानार्णव/2/7/4-7 )<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong>पाप का फल दुःख व कुगतियों की प्राप्ति</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong>पाप का फल दुःख व कुगतियों की प्राप्ति</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/7/9-10 <span class="SanskritText">हिंसादिष्विहामुत्रापायवद्यदर्शनम्। 9। दुःखमेव वा। 10।</span> = <span class="HindiText">हिंसादिक पाँच दोषों का ऐहिक और पारलौकिक उपाय और अवद्य का दर्शन भावने योग्य है। 9। अथवा हिंसादिक दुःख ही हैं ऐसी भावना करनी चाहिए। 10। </span><br /> | |||
प्रवचनसार/12 <span class="PrakritGatha">असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो। दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्चंता। 12।</span> = <span class="HindiText">अशुभ उदय से कुमानुष, तिर्यंच, और नारकी होकर हजारों दुखों से सदा पीड़ित होता हुआ (संसार में) अत्यन्त भ्रमण करता है। 12। </span><br /> | |||
धवला 1/1,1,2/105/5 <span class="PrakritText">काणि पावफलाणि। णिरय-तिरियकुमाणुस-जोणीसु जाइ-जरा-मरण-वाहि-बेयणा-दालिद्दादीणि।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> पाप के फल कौन से हैं? <strong>उत्तर -</strong> नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong>पाप अत्यन्त हेय है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong>पाप अत्यन्त हेय है </strong> </span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/306 <span class="SanskritText">यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादिः स शुद्धात्मसिद्धयाभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापराधत्वाद्विषकुम्भ एव।</span> = <span class="HindiText">प्रथम तो जो अज्ञानजनसाधारण (अज्ञानी लोगों को साधारण ऐसे) अप्रतिक्रमणादि हैं वे तो शुद्ध आत्मा की सिद्धि के अभाव रूप स्वभाववाले हैं इसलिए स्वयमेव अपराध स्वरूप होने से विषकुम्भ ही हैं। (क्योंकि वे तो प्रथम ही त्यागने योग्य हैं।)</span><br /> | |||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/12 <span class="SanskritText">ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यन्तहेय एवायमशुभोपयोग इति।</span> =<span class="HindiText"> चारित्र के लेशमात्र का भी अभाव होने से यह अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है। <br /> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="6" id="6">अन्य सम्बन्धित विषय </strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="6" id="6">अन्य सम्बन्धित विषय </strong> <br /> |
Revision as of 19:12, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- निरुक्तिः
सर्वार्थसिद्धि/6/3/320/3 पाति रक्षति आत्मानं शुभादिति पापम्। तद सद्वेद्यादि। = जो आत्मा को शुभ से बचाता है, वह पाप है। जैसे - असाता वेदनीयादि। ( राजवार्तिक/6/3/5/507/14 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/21 पापं नाम अनभिमतस्य प्रापकं। = अनिष्ट पदाथो की प्राप्ति जिससे होती है, ऐसे कर्म को (भावों को) पाप कहते हैं।
- अशुभ उपयोग
प्रवचनसार/181 सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं त्ति भण्यिमण्णेसु। = पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है, और अशुभ परिणाम पाप है।
द्रव्यसंग्रह मु./38 असुहभावजुत्ता... पावं हवंति खलु जीवा। 38। = अशुभ परिणामों से युक्त जीव पाप रूप होते हैं।
स.म./27/302/17 पापं हिंसादिक्रियासाध्यमशुभं कर्म। = पाप हिंसादि से होनेवाले अशुभकर्म रूप होता है।
- निन्दित आचरण
पंचास्तिकाय/140 सण्णांओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अत्तरुद्दाणि। णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होंति। 140। = चारों संज्ञाएँ, तीन लेश्याएँ, इन्द्रिय वशता, आर्त रौद्रध्यान, दुःप्रयुक्त ज्ञान और मोह - यह भाव पाप प्रद हैं। 140।
नयचक्र बृहद्/162 अहवा कारणभूदा तेसिं च वयव्वयाइ इह भणिया। ते खलु पुण्णं पावं जाण इमं पवयणे भणियं। 162। = अशुभ वेदादि के कारण जो अव्रतादि भाव हैं उनको शास्त्र में पाप कहा गया है।
योगसार (अमितगति)/4/38 निन्दकत्वं प्रतीक्ष्येषु नैर्वृण्यं सर्वजन्तुषु। निन्दिते चरणे रागः पापबन्धविधायकः। 38। = अर्हन्तादि पूज्य पुरुषों की निन्दा करना, समस्त जीवों में निर्दय भाव रहना, और निन्दित आचरणों में प्रेम रखना आदि बंध का कारण हैं।
- अशुभ उपयोग
- पाप का आधार बाह्य द्रव्य नहीं
सर्वार्थसिद्धि/6/11/330/1 परमकरुणाशयस्य निःशल्यस्य संयतस्योपरि गण्डं पाटयतो दुःखहेतुत्वे स्त्यपि न पापबन्धो बाह्यनिमित्तमात्रादेव भवति। = अत्यन्त दयालु किसी वैद्य के फोड़े की चीर-फाड़ और मरहम पट्टी करते समय निःशल्य संयत को दुःख देने में निमित्त होने पर भी केवल बाह्य निमित्त मात्र से पाप बन्ध नहीं होता।
देखें पुण्य - 1.4 (पुण्य व पाप में अन्तरङ्ग प्रधान है)।
- पाप (अशुभ नामकर्म) के बन्ध योग्य परिणाम
तत्त्वार्थसूत्र/6/3,22 ....अशुभः पापस्य। 3। योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः। 22। = अशुभ योग पापास्रव का कारण है। 3। योग वक्रता और विसंवाद ये अशुभ नामकर्म के आस्रव हैं। 22।
पंचास्तिकाय/139 चरिया पमादबहुला कालुस्सं लोलदा य विसयेसु। परपरितावपवादो पावस्स य आसवं कुणदि। 139। = बहु प्रमादवाली चर्या, कलुषता, विषयों के प्रति लोलुपता, पर को परिताप करना तथा पर के अपवाद बोलना - वह पाप का आस्रव करता है। 139।
मू.आ./235 पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्ध एव उवओगो। विवरीदं पावस्स दु आसवहेउं वियाणादि। 235। = ... शुभ से विपरीत निर्दयपना मिथ्याज्ञानदर्शनरूप उपयोग पापकर्म के आस्रव के कारण हैं। 235।
राजवार्तिक/6/22/4/528/18 चशब्दः क्रियते अनुक्तस्यास्रवस्य समुच्चयार्थः। कः पुनरसौ। मिथ्यादर्शन-पिशुनताऽस्थिरचित्तस्वभावता-कूटमानतुलाकरण-सुवर्णमणिरत्नाद्यकृति-कुटिलसाक्षित्वाङ्गोपाङ्ग - च्यावनवर्णगन्धरसस्पर्शान्यथाभावन-यन्त्रपञ्जरक्रियाद्रव्यान्तरविषय - संबन्धनिकृतिभूयिष्ठता - परनिन्दात्मप्रशंसा-नृतवचन परद्रब्यादान - महारम्भपरिग्रह - उज्ज्वलवेषरूपमद - परूषासभ्यप्रलाप - आक्रोश - मौखर्य - सौभाग्योपयोगवशीकरणप्रयोगपरकुतूहलोत्पादनालकारा - दर - चैतन्यप्रदेशगन्धमाल्यधूपादिमोषण - विलम्बनोपहास - इष्टिकापाक - दवाग्निप्रयोग - प्रतिमायतनप्रतिश्रयारामोद्यानविनाशनतीवक्रोधमान - मायालोभ - पापकर्मोपजीवनादिलक्षणः। स एष सर्वोऽशुभस्य नाम्न आस्रवः। = च शब्द अनुक्त के समुच्चयार्थ है। मिथ्यादर्शन, पिशुनता, अस्थिरचित्तस्वभावता, झूठे बाट तराजू आदि रखना, कृत्रिम सुवर्ण मणि रत्न आदि बनाना, झूठी गवाही, अंग उपांगों का छेदन, वर्ण गन्ध रस और स्पर्श का विपरीतपना, यन्त्र पिंजरा आदि बनाना, माया बाहुल्य, परनिन्दा, आत्म प्रशंसा, मिथ्या भाषण, पर द्रव्यहरण, महारंभ, महा परिग्रह, शौकीन वेष, रूप का घमण्ड, कठोर असभ्य भाषण, गाली बकना, व्यर्थ बकवास करना, वशीकरण प्रयोग, सौभाग्योपयोग, दूसरे में कौतूहल उत्पन्न करना, भूषणों में रुचि, मंदिर के गन्धमाल्य या धूपादि का चुराना, लम्बी हँसी, ईंटों का भट्टा लगाना, वन में दावाग्नि जलवाना, प्रतिमायतन विनाश, आश्रय-विनाश, आराम-उद्यान विनाश, तीव्र क्रोध, मान, माया व लोभ और पापकर्म जीविका आदि भी अशुभ नाम के आस्रव के कारण हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/6/22/337/5 ); ( ज्ञानार्णव/2/7/4-7 )
- पाप का फल दुःख व कुगतियों की प्राप्ति
तत्त्वार्थसूत्र/7/9-10 हिंसादिष्विहामुत्रापायवद्यदर्शनम्। 9। दुःखमेव वा। 10। = हिंसादिक पाँच दोषों का ऐहिक और पारलौकिक उपाय और अवद्य का दर्शन भावने योग्य है। 9। अथवा हिंसादिक दुःख ही हैं ऐसी भावना करनी चाहिए। 10।
प्रवचनसार/12 असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो। दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्चंता। 12। = अशुभ उदय से कुमानुष, तिर्यंच, और नारकी होकर हजारों दुखों से सदा पीड़ित होता हुआ (संसार में) अत्यन्त भ्रमण करता है। 12।
धवला 1/1,1,2/105/5 काणि पावफलाणि। णिरय-तिरियकुमाणुस-जोणीसु जाइ-जरा-मरण-वाहि-बेयणा-दालिद्दादीणि। = प्रश्न - पाप के फल कौन से हैं? उत्तर - नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं।
- पाप अत्यन्त हेय है
समयसार / आत्मख्याति/306 यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादिः स शुद्धात्मसिद्धयाभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापराधत्वाद्विषकुम्भ एव। = प्रथम तो जो अज्ञानजनसाधारण (अज्ञानी लोगों को साधारण ऐसे) अप्रतिक्रमणादि हैं वे तो शुद्ध आत्मा की सिद्धि के अभाव रूप स्वभाववाले हैं इसलिए स्वयमेव अपराध स्वरूप होने से विषकुम्भ ही हैं। (क्योंकि वे तो प्रथम ही त्यागने योग्य हैं।)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/12 ततश्चारित्रलवस्याप्यभावादत्यन्तहेय एवायमशुभोपयोग इति। = चारित्र के लेशमात्र का भी अभाव होने से यह अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- व्यवहार धर्म परमार्थतः पाप है। - देखें धर्म - 4।
- पापानुबन्धी पुण्य। - देखें मिथ्यादृष्टि - 4।
- पुण्य व पाप में कथंचित् भेद व अभेद। - देखें पुण्य - 2,4।
- पाप की कथंचित् इष्टता। - देखें पुण्य - 3।
- पाप प्रकृतियों के भेद। - देखें प्रकृतिबन्ध - 2।
- पाप का आस्रव व बन्ध तत्त्व में अन्तर्भाव। - देखें पुण्य - 2/4।
- पूजादि में कथंचित् सावद्य हैं फिर भी वे उपादेय हैं। - देखें धर्म - 5.1।
- मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है। - देखें मिथ्यादर्शन ।
- मोह-राग-द्वेष में पुण्य-पाप का विभाग। - देखें राग - 2।
पुराणकोष से
दुश्चरित । इसके पाँच भेद हैं― हिंसा, अनृत (झूठ), चोरी, अन्यरामारति और आरम्भ-परिग्रह । महापुराण 2.23, हरिवंशपुराण 58.127-133
(2) राम का शार्दूलवाही एक योद्धा । पद्मपुराण 58. 6-7
(3) एक अस्त्र । यह धर्मास्त्र से नष्ट होता है । पद्मपुराण 74.104