पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 117 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
खीणे पुव्वणिबद्धे गदिणामे आउसे च ते वि खलु । (117)
पापुण्णंति य अण्णं गदिमाउस्सं सलेस्सवसा ॥127॥
अर्थ:
पूर्व-बद्ध गति नाम-कर्म और आयु-कर्म क्षीण होने पर वे ही जीव अपनी लेश्या के वश से वास्तव में अन्य गति और अन्य आयु को प्राप्त होते हैं ।
समय-व्याख्या:
गत्यायुर्नामोदयनिर्वृत्तत्वाद्देवत्वादीनामनात्मस्वभावत्वोद्योतनमेतत् ।
क्षीयते हि क्रमेणारब्धफ लो गतिनामविशेष आयुर्विशेषश्च जीवानाम् । एवमपितेषां गत्यन्तरस्यायुरन्तरस्य च कषायानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या भवति बीजं, ततस्तदुचितमेव गत्यन्तरमायुरन्तरञ्च ते प्राप्नुवन्ति । एवं क्षीणाक्षीणाभ्यामपि पुनः पुनर्नवी-भूताभ्यां गतिनामायुःकर्मभ्यामनात्मस्वभावभूताभ्यामपि चिरमनुगम्यमानाः संसरन्त्यात्मानम-चेतयमाना जीवा इति ॥११७॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ, गति-नाम-कर्म और आयु-नाम-कर्म के उदय से निष्पन्न होते हैं इसलिये देवत्वादि अनात्म-स्वभाव-भूत हैं (अर्थात् देवत्व, मनुष्यत्व, तिर्यंचत्व और नारकत्व आत्मा का स्वभाव नहीं है) ऐसा दर्शाया गया है ।
जीवों को, जिसका फ़ल प्रारम्भ हो जाता है ऐसा अमुक गति-नाम-कर्म और अमुक आयु-नाम-कर्म क्रमशः क्षय को प्राप्त होता है । ऐसा होने पर भी उन्हें १कषाय-अनुरंजित योग-प्रवृत्ति-रूप लेश्या अन्य गति और अन्य आयुष का बीज होती है (अर्थात् लेश्या अन्य गति-नाम-कर्म और अन्य आयुष-कर्म का कारण होती है), इसलिये उसके उचित ही अन्य गति तथा अन्य आयुष वे प्राप्त करते हैं । इस प्रकार २क्षीण-अक्षीणपने को प्राप्त होने पर भी पुनः-पुनः नवीन उत्पन्न होने वाले गतिनामकर्म और आयुषकर्म (प्रवाहरूप से) यद्यपि वे अनात्म-स्वभाव-भूत हैं तथापि चिरकाल (जीवों के) साथ साथ रहते हैं इसलिये, आत्मा को नहीं चेतने वाले जीव संसरण करते हैं (अर्थात् आत्मा का अनुभव नहीं करने वाले जीव संसार में परिभ्रमण करते हैं) ॥११७॥
१कषाय-अनुरंजित = कषायरंजित, कषाय से रंगी हुई (कषाय से अनुरंजित योग-प्रवृत्ति सो लेश्या है) ।
२पहले के कर्म क्षीण होते हैं और बाद के अक्षीण-रूप से वर्तते हैं ।