पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 45 - समय-व्याख्या: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 11: | Line 11: | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 46 - समय-व्याख्या | अगला पृष्ठ ]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 46 - समय-व्याख्या | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र गाथा 45 - तात्पर्य-वृत्ति | इसी गाथा की तात्पर्य-वृत्ति टीका]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 45 - तात्पर्य-वृत्ति | इसी गाथा की तात्पर्य-वृत्ति टीका]] | ||
[[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - समय-व्याख्या अनुक्रमणिका | समय-व्याख्या अनुक्रमणिका ]] | [[ ग्रन्थ:पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - समय-व्याख्या अनुक्रमणिका | समय-व्याख्या अनुक्रमणिका ]] |
Latest revision as of 13:26, 30 June 2023
ववदेसा संठाणा संखा विसया य होंति ते बहुगा । (45)
ते तेसिमणण्णत्ते अण्णत्ते चावि विज्जन्ते ॥52॥
अर्थ:
वे व्यपदेश, संस्थान, संख्या और विषय अनेक हैं; तथापि वे उनके (द्रव्य-गुणों के) अनन्यत्व-अन्यत्व में भी विद्यमान रहते हैं ।
समय-व्याख्या:
व्यपदेशादीनामेकांतेन द्रव्यगुणान्यत्वनिबंधनत्वमत्र प्रत्याख्यातम् । यथा देवदत्तस्य गौरित्यन्यत्वे षष्ठीव्यपदेश:, तथा वृक्षस्य शाखा द्रव्यस्य गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि । यथा देवदत्त: फलमंकुशेन धनदत्ताय वृक्षाद्वाटिकायामवचिनोतीत्यन्यत्वे कारकव्यपदेश:, तथा मृत्तिका घटभावं स्वयं स्वेन स्वस्मै स्वस्मात् स्वस्मिन् करोतीत्यात्मात्मानमात्मात्मने आत्मन आत्मनि जानातीत्यनन्यत्वेऽपि । यथा प्रांशोर्देवदत्तस्य प्रांशुगौंरित्यन्यत्वे संस्थानं, तथा प्रांशोर्वृक्षस्य प्रांशु: शाखाभरो मूर्तद्रव्यस्य मूर्ता गुणा इत्यन्यत्वेपि । यथैकस्य देवदत्तस्य दश गाव इत्यन्यत्वे संख्या, तथैकस्य वृक्षस्य दश शाखा: एकस्य द्रव्यस्यानंता गुणा इत्यनन्यत्वेऽपि । यथा गोष्ठे गाव इत्यन्यत्वे विषय:, तथा वृक्षे शाखा: द्रव्ये गुणा इत्यन्यत्वेऽपि । ततो न व्यपदेशादयो द्रव्यगुणानां वस्तुत्वेन भेदं साधयंतीति ॥४५॥
समय-व्याख्या हिंदी :
यहाँ व्यपदेश आदि एकान्त से द्रव्य-गुणों के अन्यपने का कारण होने का खण्डन किया है ।
- जिस प्रकार 'देवदत्त की गाय' इस प्रकार अन्यपने में षष्ठी-व्यपदेश (छठवीं विभक्ति का कथन) होता है, उसी प्रकार 'वृक्ष की शाखा', 'द्रव्य के गुण' ऐसे अनन्यपने में भी (षष्ठी-व्यपदेश) होता है ।
- जिस प्रकार 'देवदत्त फल को अंकुश द्वारा धनदत्त के लिए वृक्ष पर से बगीचे में तोड़ता है' ऐसे अन्यपने में कारक-व्यपदेश होता है, उसी प्रकार 'मिट्टी स्वयं घाट-भाव को (घडा-रूप परिणाम को) अपने द्वारा अपने लिए अपने में से अपने में करती है', 'आत्मा आत्म को आत्मा द्वारा आत्मा के लिए आत्मा में से आत्मा में जानता है' ऐसे अनन्यपने में भी (कारक-व्यपदेश) होता है ।
- जिस प्रकार 'ऊँचे देवदत्त की ऊँची गाय' ऐसा अन्यपने में संस्थान होता है, उसी प्रकार 'विशाल वृक्ष का विशाल शाखा-समुदाय', 'मूर्त द्रव्य के मूर्त गुण' ऐसे अनन्यपने में भी (संस्थान) होता है ।
- जिस प्रकार 'एक देवदत्त की दस गायें', ऐसे अन्यपने में संख्या होती है, उसी प्रकार 'एक वृक्ष की दस शाखाएं', 'एक द्रव्य के अनन्त गुण' ऐसे अनन्यपने में भी (संख्या) होती है ।
- जिस प्रकार 'बाड़े में गायें' ऐसे अन्यपने में विषय (आधार) होता है, उसी प्रकार 'वृक्ष में शाखायें', 'द्रव्य में गुण' एसे अनन्यपने में भी (विषय) होता है ।