चल: Difference between revisions
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गो.जी./जी.प्र./ | <span class="HindiText"><strong>सम्यग्दर्शन का चल दोष </strong></span><br> | ||
अन.ध./ | गो.जी./जी.प्र./25/51/5 में उद्धृत–<span class="SanskritText">नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं स्मृतम् । लसत्कल्लोलमालासु जलमेकमवस्थितम् । नानात्मीयविशेषेषु आप्तागमपदार्थं श्रद्धानविकल्पेषु चलतीति चलं स्मृतं। तद्यथास्वकारितेऽर्हच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते। अन्यस्यायमिति भ्राम्यन् मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते।</span>=<span class="HindiText">नानाप्रकार अपने ही विशेष कहिए आप्तआगमपदार्थरूप श्रद्धान के भेद तिनिविषै जो चलै चंचल होइ सो चल कह्या है सोई कहिए है। अपना कराया अर्हंतप्रतिबिंबादिकविषैं यहु मेरा देव है ऐसे ममत्वकरि, बहुरि अन्यकरि कराया अर्हंतप्रतिबिंबादिकविषै यहु अन्य का है ऐसे पर का मानकरि भेदरूप करै है तातै चल कह्या है। इहा̐ दृष्टान्त कहै हैं–जैसे नाना प्रकार कल्लोल तरंगनि की पंक्तिविषैं जल एक ही अवस्थित है, तथापि नानारूप होइ चल है तैसैं मोह जो सम्यक्त्व प्रकृति का उदय तातैं श्रद्धान हैं सो भ्रमणरूप चेष्टा करै है ? भावार्थ–जैसे जल तरंगनिविषैं चंचल होइ परन्तु अन्यभाव कौं न भजैं, तैसे वेदक सम्यग्दृष्टि अपना वा अन्य का कराया जिनबिंबादि विषैं यहु मेरा यहु अन्य का इत्यादि विकल्प करै परन्तु अन्य देवादिकौं नाहीं भजै है। (अन.ध./2/60/61/183)।</span><br> | ||
अन.ध./2/61/184 पर उद्धृत-<span class="SanskritText">कियन्तमपि यत्कालं स्थित्वा चलति तच्चलम् ।</span>=<span class="HindiText">जो कुछ काल तक स्थिर रहकर चलायमान हो जाता है उसको चल कहते हैं। </span> | |||
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Revision as of 21:40, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
सम्यग्दर्शन का चल दोष
गो.जी./जी.प्र./25/51/5 में उद्धृत–नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं स्मृतम् । लसत्कल्लोलमालासु जलमेकमवस्थितम् । नानात्मीयविशेषेषु आप्तागमपदार्थं श्रद्धानविकल्पेषु चलतीति चलं स्मृतं। तद्यथास्वकारितेऽर्हच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते। अन्यस्यायमिति भ्राम्यन् मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते।=नानाप्रकार अपने ही विशेष कहिए आप्तआगमपदार्थरूप श्रद्धान के भेद तिनिविषै जो चलै चंचल होइ सो चल कह्या है सोई कहिए है। अपना कराया अर्हंतप्रतिबिंबादिकविषैं यहु मेरा देव है ऐसे ममत्वकरि, बहुरि अन्यकरि कराया अर्हंतप्रतिबिंबादिकविषै यहु अन्य का है ऐसे पर का मानकरि भेदरूप करै है तातै चल कह्या है। इहा̐ दृष्टान्त कहै हैं–जैसे नाना प्रकार कल्लोल तरंगनि की पंक्तिविषैं जल एक ही अवस्थित है, तथापि नानारूप होइ चल है तैसैं मोह जो सम्यक्त्व प्रकृति का उदय तातैं श्रद्धान हैं सो भ्रमणरूप चेष्टा करै है ? भावार्थ–जैसे जल तरंगनिविषैं चंचल होइ परन्तु अन्यभाव कौं न भजैं, तैसे वेदक सम्यग्दृष्टि अपना वा अन्य का कराया जिनबिंबादि विषैं यहु मेरा यहु अन्य का इत्यादि विकल्प करै परन्तु अन्य देवादिकौं नाहीं भजै है। (अन.ध./2/60/61/183)।
अन.ध./2/61/184 पर उद्धृत-कियन्तमपि यत्कालं स्थित्वा चलति तच्चलम् ।=जो कुछ काल तक स्थिर रहकर चलायमान हो जाता है उसको चल कहते हैं।
पुराणकोष से
रावण का एक पराक्रमी नृप । पद्मपुराण 57.58