अस्तित्व नय
From जैनकोष
पंचाध्यायी/पूर्वार्ध/श्लोक‒अस्ति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्यायस्तत्त्रयं मिथोऽनेकम् । व्यवहारैकविशिष्टो नय: स वानेकसंज्ञको न्यायात् ।७५२। एकं सदिति द्रव्यं गुणोऽथवा पर्ययोऽथवा नाम्ना। इतरद्वयमन्यतरं लब्धमनुक्तं स एकनयपक्ष:।७५३। परिणममानेऽपि तथाभूतैर्भावैर्विनश्यमानेऽपि। नायमपूर्वों भाव: पर्यायार्थिकविशिष्टभावनय:।७६५। अभिनवभावपरिणतेर्योऽयं वस्तुन्यपूर्वसमयो य:। इति यो वदति स कश्चित्पर्यायार्थिकनयेष्वभावनय:।७६४। अस्तित्वं नामगुण: स्यादिति साधारण: स तस्य। तत्पर्ययश्च नय: समासतोऽस्तित्वनय इति वा।५९३। कर्तृत्वं जीवगुणोऽस्त्वथ वैभाविकोऽथवा भाव:। तत्पर्यायविशिष्ट: कर्तृत्वनयो यथा नाम।५९४।=३७. व्यवहार नय से द्रव्य, गुण, पर्याय अपने अपने स्वरूप से परस्पर में पृथक्-पृथक् हैं, ऐसी अनेकनय है।७५२। ३८. नाम की अपेक्षा पृथक्-पृथक् हुए भी द्रव्य गुण पर्याय तीनों सामान्यरूप से एक सत् हैं, इसलिए किसी एक के कहने पर शेष अनुक्त का ग्रहण हो जाता है। यह एकनय है।७५३। ३९. परिणमन होते हुए पूर्व पूर्व परिणमन का विनाश होने पर भी यह कोई अपूर्व भाव नहीं है, इस प्रकार का जो कथन है वह पर्यायार्थिक विशेषण विशिष्ट भावनय है।७६५। ४०. तथा नवीन पर्याय उत्पन्न होने पर जो उसे अपूर्वभाव कहता ऐसा पर्यायार्थिक नय रूप अभाव नय है।७६४। ४१. अस्तित्वगुण के कारण द्रव्य सत् है, ऐसा कहने वाला अस्तित्व नय है।५९३। ४२. जीव का वैभाविक गुण ही उसका कर्तृत्वगुण है। इसलिए जीव को कर्तृत्व गुणवाला कहना सो कर्तृत्व नय है।५९४।
देखें नय - I.5।