आलोचना
From जैनकोष
= प्रतिक्षण उदित होनोवाली कषायों जनित जो अन्तरंग व बाह्य दोष साधककी प्रतीतिमें आते हैं, जीवन शोधनके लिए उनका दूर करना अत्यन्त आवश्यक है इस प्रयोजनकी सिद्धिके लिए आलोचना सबसे उत्तम मार्ग है। गुरुके समक्ष निष्कप्ट भावसे अपने सर्व छोटे या बड़े दोषोंको कह देवा आलोचना कहलाता है। यह वीतरागी गुरुके समक्ष ही की जाती है, रागी व्यक्तिके समक्ष नहीं।
1. भेद व लक्षण
1. आलोचना सामान्यके लक्षण
स.सा./मू.व.आ/385 जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडिय अणेयवित्थरविसेसं। तं दोसं जो चेयइ सो खलु आलोयणं चेया ॥385॥
= जो वर्तमान कालमें शुभ अशुभ कर्म रूप अनेक प्रकार ज्ञानावरणादि विस्तार रूप विशेषोंको लिए हुए उदय आया है उस दोषको जो ज्ञानी अनुभव करता है, वह आत्मा निश्चयसे आलोचना स्वरूप है।
( समयसार / आत्मख्याति गाथा 385)
नियमसार / मूल या टीका गाथा .109 जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणामं। आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं ॥109॥
= जो (जीव) परिणामकी समभावमें स्थाप कर (निज) आत्माको देखता है, वह आलोचन है ऐसा परम जिनेन्द्रका उपदेश जानना।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/22/440/6 तत्र गुरवे प्रमादनिवेदनं दशदोषविवर्जितमालोचनम्।
= गुरुके समक्ष दश दोषोंको टाल कर अपने प्रमादका निवेदन करना (व्यवहार) आलोचना है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/22/2/620), ( तत्त्वार्थसार अधिकार 7/22), ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/38)
धवला पुस्तक 13/5,4/36/60/7 गुरुणमपरिस्सवाणं सुहरहस्साणं वीयराया तिरयणे मेरु व्व थिराणं सगदोसणिवेयणमालोयणा णाम पायच्छित्तं।
= अपरिस्रव अर्थात् आस्रवसे रहित, श्रुतके रहस्यको जाननेवाले, वीतराग और रत्नत्रयमें मेरुके समान स्थिर ऐसे गुरुओंके सामने अपने दोषोंका निवेदन करना (व्यवहार) आलोचना नामका प्रायश्चित है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 6/32/2 स्वकृतापराधगूपनत्यजनम् आलोचना।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 10/49/9 कृतातिचारजुगुप्सापुरःसरं वचनमालोचनेति ।
= अपने द्वारा किये गये अपराधों या दोषोंको दबानेका प्रयत्न न करके अर्थात् छिपानेका प्रयत्न न करके उसका त्याग करना निश्चय आलोचना है। तथा चारित्राचरण करते समय जो अतिचार होते हैं। उसकी पश्चात्ताप पूर्वक निन्दा करना व्यवहार आलोचना है।
2. आलोचनाके भेद
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 533 आलोयणाहु दुविहा आघेण य होदि पदविभागीय। आघेण मूलपत्तस्स पयविभागी य इदरस्स ॥533॥
= आलोचनाके दो ही प्रकार हैं - एक ओघालोचना दूसरी पदविभागी आलोचना अर्थात् समान्य आलोचना और विशेष आलोचना ऐसे इनके और भी दो नाम हैं। वचन सामान्य और विशेष, इन धर्मोंका आश्रय लेकर प्रवृत्त होता है, अतः आलोचना के उपर्युक्त दो भेद हैं।
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 619 आलोचणं दिवसियं रादिअ इरियाबंध च बोधव्वं। पक्खिय चादुम्मासिय संवच्छरमुत्तमट्ठं च ॥619॥
= गुरुके समीप अपराधका कहना आलोचना है। वह दैवसिक, रात्रिक, ईर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक सांवत्सरिक, उत्तमार्थ - इस तरह सात प्रकारकी है।
नियमसार / मूल या टीका गाथा .208 आलोयणमालंच्छणवियडीकरणं च भावसुद्धी य। चउविहमिह परिकहियं आलोयण लक्खणं समए ॥208॥
= आलोचना का स्वरूप आलोचन, आलुंच्छन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि ऐसे चार प्रकार शास्त्रमें कहा है।
3. आलोचनाके भेदोंके लक्षण
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 534-535 ओघेणालोचेदि हु अपरिमिदवराधसव्वघादी वा। अज्जोपाए इत्थं सामण्णमहं खु तुच्छेति ॥534॥ पव्वज्जादी सव्व कमेण ज जत्थ जेण भावेण। पडिसेविदं तहा तं आलोचिंतो पदविभागी ॥535॥
= जिसने अपरिमित अपराध किये हैं अथवा जिसके रत्नत्रयका-सर्व व्रतोंका नाश हुआ है, वह मुनि सामान्य रीतिसे अपराधका निवेदन करता है। आजसे में पुनः मुनिहोने की इच्छा करता हूँ मैं तुच्छ हूँ अर्थात् मैं रत्नत्रयसे आप लोगोंसे छोटा हूँ ऐसा कहना सामान्य आलोचना है ॥535॥ तीन कालमें, जिस देशमें, जिस परिणाम से जो दोष हो गया है उस दोषकी मैं आलोचना करता हूँ। ऐसा कहकर जो दोष क्रमसे आचार्य के आगे क्षपक कहता है उसकी वह पदविभागी आलोचना है ॥536॥
नियमसार / मूल या टीका गाथा .110-112 कम्ममहोरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो साहीणो समभावो आलुंच्छणमिदि समुद्दिट्ठं ॥110॥ कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं मज्झत्थ भावणाए वियडीकरणं त्ति। विण्णेयं ॥111॥ मदमाणमायालोहविवज्जिय भावो दु भावसुद्धि त्ति। परिकहिदं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं ॥112॥
= कर्म रूपी वृक्षका मूल छेदनमें समर्थ ऐसा जो समभाव रूप स्वाधीन निज परिणाम उसे आलंच्छन कहा है ॥110॥ जो मध्यस्थ भावनामें कर्मसे भिन्न आत्माको-कि जो विमल गुणोंका निवास है उसे भाता है उस जीवको अविकृति करण जानना ॥111॥ मद, मान, माया और लोभ रहित भाव वह भावशुद्धि है। ऐसा भव्योंका लोकके द्रष्टाओंने कहा है ॥112॥
2. आलोचना के अतिचार व लक्षण
1. आलोचनाके 10 अतिचार
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 562 आकंपिय अणुमाणिय जं दिट्ठं बादर च सुहुमं च। छण्णं सद्दाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी।
= आलोचनाके दश दोष हैं-आकंपित, अनुमानित, यद्दृष्ट, स्थूल, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त, तत्सेवी।
( मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 1030), ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/22/440/4), ( चारित्रसार पृष्ठ 138/2)
2. आलोचनाके अतिचारोंके लक्षण
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 563-603 भत्तेण व पाणेण व उवकरणेण किरियकम्मकरणेण। अणकंपेऊण गणिं करेइ आलोयणं कोई ॥563॥ गणह य मज्झ थाम अंगाणं दुव्बलदा अणारोगं। णेव समत्थोमि अहं तवं विकट्ठं पि कादुंजे ॥570॥ आलोचेमि य सव्वं जइ मे पच्छा अणुग्गहं कुणह। तुज्झ सिरीए इच्छं सोधी जह णिच्छरेज्जामि ॥571॥ अणुमाणेदूण गुरुं एवं आलोचणं तदो पच्छा। कुणइ ससल्लो सो से विदिओ आलोयणा दोसो ॥572॥ जो होदि अण्णदिट्ठं तं आलोचेदि गुरुसयासम्मि। अद्दिट्ठं गूहंतो मायिल्लो होदि णायव्वो ॥574॥ दिट्ठं वा अदिट्ठं बा जदि ण कहेइ परमेण विणएण। आयरियपायमूले तदिओ आलोयणा दोसो ॥575॥ बादरमालोचंतो जत्तो जत्तो वदाओ पडिभग्गो। सुहुमं पच्छादेंतो जिणवयणपरंमुहो होइ ॥577॥ इह जो दोसं लहुगं समालोचेदि गूहदे चूलं। भयमयमायाहिदओ जिणपयणपरंमुहो होदि ॥581॥ जदि मूलगुणे उत्तरगुणे य कस्सइ तदिए चुणत्थए पंचमे च वदे ॥584॥ को तस्स दिज्जइ तवो केण उवाएण वा हवदि मुद्धो। इय पच्छण्णं पुच्छदि पायच्छित्तं करिस्सदि ॥585॥
पच्छण्णं पुच्छिय साधु जो कुणइ अप्पणो सुद्धिं। तो सो जणेहिं वुत्तो छट्ठो आलोयणा दोसो ॥586॥ पक्खियचडमासिय संवच्छरिएसु सोधिकालेसु। बहु जण सद्दाउलए कहेदि दोसो जहिच्छाए ॥590॥ इय अव्वत्तं जइ सावेंतो दोसो कहेइ सगुरुणं। आलोचणाए दोसो सत्तमओ सो गुरुसयासे ॥591॥ तेसिं असद्दहंतो आइरियाणं पुणोवि अण्णाणं। जइ पुच्छइ सो आलोयणाए दोसो हु अट्ठमओ ॥596॥ आलोचिदं असेसं सव्वं एदं मएत्ति जाणादि। बालस्सालोचेंतो णवमो आलोचणाए दोसो ॥599॥ पासत्थो पासत्थस्स अणुगदो दुक्कडं परिकहेइ। एसो वि मज्झसरिसो सव्वत्थविदोस संचइओ ॥601॥ जाणादि मज्झ एसो सुहसीलत्तं च सव्वदोसे य। तो एस मे ण दाहिदि पायच्छित्तं महल्लित्ति ॥602॥ आलोचिदं असेसं सव्वं एदं मएत्ति जाणादि। सोपवयणपडिकुद्धो दसमो आलोचणा दोसो ॥603॥
= 1. आकंपित-स्वतः भिक्षालब्धिसे युक्त होने से आचार्यकी प्रासुक और उद्गमादि दोषोंसे रहित आहार-पानीके द्वारा वैयावृत्त्य करना, पिंछी, कमण्डलु वगैरह उपकरण देना, कृतिकर्म वन्दना करना इत्यादि प्रकारसे गुरुके मनमें दया उत्पन्न करके दोषो कहता है सो आकंपित दोषसे दूषित है ॥563॥ 2. अनुमानित-हे प्रभो! आप मेरा सामर्थ्य कितना है यह तो जानते ही हैं, मेरी उदराग्नि अतिशय दुर्बल है, मेरे अंगके अवयव कृश हैं, इसलिए मैं उत्कृष्ट तप करनेमें असमर्थ हूं, मेरा शरीर हमेशा रोगी रहता है। यदि मेरे ऊपर आप अनुग्रह करेंगे, अर्थात् मेरेको आप यदि थोड़ा-सा प्रायश्चित्त देंगे तो मैं अपने सम्पूर्ण अतिचारोंका कथन करूँगा और आपकी कृपासे शुद्धि युक्त होकर मैं अपराधोंसे मुक्त होऊँगा ॥570-571॥ इस प्रकार गुरु मेरेको थोड़ा सा प्रायश्चित देकर मेरे ऊपर अनुग्रह करेंगे, ऐसा अनुमान करके माया भावसे जो मुनि पश्चात् आलोचना करता है, वह अनुमानित नामक आलोचनाका दूसरा दोष है। 3. यद्दृष्ट-जो अपराध अन्य जनोंने देखे हैं, उतने ही गुरुके पास जाकर कोई मुनि कहता है और अन्यसे न देखे गये अपराधोंको छिपाता है, वह मायावी है ऐसा समझना चाहिए। दूसरोंके द्वारा देखे गये हों अथवा न देखे गये हों सम्पूर्ण अपराधोंका कथन गुरुके पास जाकर अतिशय विनयसे कहना चाहिए, परन्तु जो मुनि ऐसा नहीं करता है वह आलोचनाके तीसरे दोषसे लिप्त होता है, ऐसा समझना चाहिए ॥574-575॥ 4. बादर-जिन-जिन व्रतोंमें अतिचार लगे होंगे उन-उन व्रतोंमें स्थूल अतिचारोंकी तो आलोचना करके सूक्ष्म अतिचारोंको छिपाने वाला मुनि जिनेन्द्र भगवान् के वचनों से पराङ्मुख हुआ है ऐसा समझना चाहिए ॥577॥ 5. सूक्ष्म-जो छोटे-छोटे दोष कहकर बड़े दोष छिपाता है, वह मुनि भय, मद और कपट इन दोषोंसे भरा हुआ जिनवचनसे पराङ्मुख होता है। बड़े दोष यदि मैं कहूँगा तो आचार्य मुझे महा प्रायश्चित्त देंगे, अथवा मेरा त्याग कर देंगे, ऐसे भयसे कोई बड़े दोष नहीं कहता है। मैं निरतिचार चारित्र हूं ऐसा समझ कर स्थूल दोषोंको कोई मुनि कहता नहीं, कोई मुनि स्वभावसे ही कपटी रहता है अतः वह भी बड़े दोष कहता नहीं, वास्तवमें ये मुनि जिनवचनसे पराङ्मुख हैं ॥581॥ 6. प्रच्छन्न-यदि किसी मुनिको मूलगुणोंमें अर्थात् पाँच महाव्रतोंमें और उत्तर गुणोमें तपश्चरणमें अनशनादि बारह तपोंमें अतिचार लगेगा तो उसको कौनसा तप दिया जाता है, अथवा किस उपायसे उसकी शुद्धि होती है ऐसा प्रच्छन्न रूपसे पूछता है, अर्थात् मैंने ऐसा-ऐसा अपराध किया है उसका क्या प्रायश्चित्त है? ऐसा न पूछकर प्रच्छन्न पूछता है, प्रच्छन्न पूछकर तदनन्तर मैं उस प्रायश्चित्तका आचरण कहूँगा, ऐसा हेतु उसके मनमें रहता है। ऐसा गुप्त रीतिसे पूछ कर जो साधु अपनी शुद्धि कर लेता है वह आलोचनाका छठा दोष है ॥584-586॥ 7. शब्दाकुलित अथवा बहुजन-पाक्षिक दोषोंकी आलोचना, चातुर्मासिक दोषों की आलोचना, और वार्षिक दोषोंकी आलोचना, सब यति समुदाय मिलकर जब करते हैं तब अपने दोष स्वेच्छासे कहना यह बहुजन नामका दोष है। यदि अस्पष्ट रीतिसे गुरुको सुनाता हुआ अपने दोष मुनि कहेगा तो गुरुके चरण सान्निध्य में उसने सातवाँ शब्दाकुलिक दोष किया है। ऐसा समझना ॥590-591॥ 8. बहुजन पृच्छा-परन्तु उनके द्वारा (आचार्यके द्वारा) दिये हुए प्रायश्चित् में अश्रद्धान करके यह आलोचक मुनि यदि अन्यको पूछेगा अर्थात् आचार्य महाराजने दिया हुआ प्रायश्चित्त योग्य है या अयोग्य है ऐसा पूछेगा तो यह आलोचनाका बहुजन पृच्छा नामक आठवाँ दोष होगा ॥596॥ 9. अव्यक्त-और मैंने इसके (आगम बाल वा चारित्र बाल मुनिके) पास सम्पूर्ण अपराधोंकी आलोचनाकी है मन, वचन, कायसे और कृत, कारित, अनुमानोसे किये हुए अपराधोंकी मैनें आलोचना की है ऐसे जो समझता है उसकी यह आलोचना करना नौवें दोषसे दृष्ट हैं ॥599॥ 10. तत्सेवी-पार्श्वस्थ मुनि पार्श्वस्थ मुनिके पास जाकर उसको अपने दोष कहता है, क्योंकि यह मुनि भी सर्व व्रतोंमे मेरे समान दोषोंसे भरा हुआ है ऐसा वह समझता है। यह मेरे सुखिया स्वभावको और व्रतोंके अतिराचोंको जानता है, इसका और मेरा आचरण समान है, इसलिए यह मेरेको बड़ा प्रायश्चित न देगा ऐसा विचार कर वह पार्श्वस्थ मुनि गुरुको अपने अतिचार करता नहीं और समान शीलको अपने दोष बताता है। यह पार्श्वस्थ मुनि कहे हुए सम्पूर्ण अतिचारोंके स्वरूपको जानता है, ऐसा समज कर व्रत भ्रष्टोंसे प्रायश्चित्त लेना यह आगम निषिद्ध तत्सेवी नामका दसवाँ दोष हैं ॥601-603॥
(राजवार्तिक अध्याय 9/22/2/621/1), ( चारित्रसार पृष्ठ 138/3), (द.पा/टी.9में उद्धृत), ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/40/44)
3. आलोचना निर्देश
1. आलोचना वीतरागी गुरुके ही समक्ष की जानी चाहिए
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा /686..। आलोयणा वि हु पसत्थमेव कादव्विया तत्थ ॥586॥ ...आलोचनागोचाराद्यतिचारविषया। तथा क्षपकसमीपे। परत्थमेव कादव्वा यथासौ न शृणोति तथा कार्यो। बहुषु युक्ताचारेषु सूरिषु सत्सु।
= योग्य आचारोंको जाननेवाले आचार्योंके पास ही सूक्ष्म अतिचार विषयक आलोचना करना हो तो वह भी प्रशस्त ही करनी चाहिए अर्थात् वह क्षपक सुन न सके ऐसी आलोचना करनी चाहिए।
2. आलोचना सुननेकी विधि
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 560 पाचीणोदीचिमुहो आयदणमुहो व सुहणिसण्णो हु ।..॥560॥ निर्व्याकुलमासीनस्य यत् श्रवणं तदालोचयितुः सम्माननं। यथा कथंचिच्छ्रवणे मयि अनादरो गुरोरिति नोत्साहः परस्य स्यात्।
= पूर्वाभिमुख, उत्तराभिमुख अथवा जिनमन्दिराभिमुख होकर सुखसे बैठकर आचार्य आलोचना सुनते हैं। अथवा निर्व्याकुल बैठकर गुरु आलोचना सुनते हैं, इस प्रकारसे सुननेसे आलोचना करनेवाले का सम्मान होता है। इधर-उधर लक्ष देकर सुननेसे गुरुका मेरे सम्बन्धमें अनादर भाव है ऐसी आलोचककी समझ होगी, जिससे दोष कहनेमें आलोचना करेवालेका उत्साह नष्ट होगा।
3. एक आचार्यको एक ही शिष्यकी आलोचना सुननी चाहिए
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 560...आलोयण पडिच्छदि एक्कस्स विरहम्मि। एक एव शृणुयात्सुरिर्लज्जापरो बहूनां मध्ये नात्मदोषं प्रकटयितुमीहते। चित्तखेदश्चास्य भवति। तथा कथयतः एकस्यैवालोचनां शृणुयात्। दुःखधारत्वाद्यु गमदनेकवचनसंदर्भस्य। तद्दोषनिग्रहं नायं वराक प्रतीच्छति।
= आचार्य एक क्षपककी ही आलोचना सुनता है। एक ही आचार्य एकके दोष सुने, यदि बहुत गुरु सुनने बैठेंगे तो आलोचना करनेवाला क्षपक लज्जित होकर अपने दोष कहनेके लिए तैयार होनेपर भी उसके मनमें खेद उत्पन्न होगा। अतः एक ही आचार्य एक ही के दोष सुने, एक कालमें एक आचार्य अनेक क्षपकोंकी आलोचना सुननेकी इच्छा न करें, क्योंकि अनेकोंका वचन ध्यानमें रखना बड़ा कठिन कार्य है। इसलिए उनके दोष सुनकर योग्य प्रायश्चित्त नहीं दे सकेगा।
4. आलोचना एकान्तमें सुननी चाहिए
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 560...आलोयणं पडिच्छदि..विरहम्मि ॥569॥ इत्यनेनैव गत्वाद्विरहम्मि इति वचनं निरर्थकं। यद्यन्येऽपि तत्र स्युर्न एकेकैव श्रुतं स्यात्। न लज्जत्ययमस्य अपराधश्चास्य अनेनावगत एवेति नान्यस्य सकाशे शृणुयात् इति। एतत्सूच्यते विरहम्मि एकान्ते आचार्यशिक्षेति।
= एकान्तमें ही आचार्य आलोचना सुनता है ॥560॥ प्रश्न - (एक समयमें एक ही शिष्यकी तथा एक ही आचार्य आलोचना सुने उपरोक्त) इतने विवेचनसे ही एकान्तमें गुरुके बिना अन्य कोई नहीं होगा ऐसे समयमें आलोचना सुननी चाहिए तथा करनी चाहिए' ऐसा सिद्ध होता है अतः `विरहम्मि' यह पद व्यर्थ हैं? उत्तर - यदि वहाँ अन्य भी होंगे तो आलचकके दोष बाहर फूटने सम्भव हैं, एक गुरु यदि होंगे तो उस स्थानमें प्रच्छन्न रीतिसे दूसरेका प्रवेश होना योग्य नहीं है, यह सूचित करनेके लिए आचार्य ने `विरहम्मि' ऐसा पद दिया है।
5. आलोचना का माहात्म्य
राजवार्तिक अध्याय 9/22/2/621/13 लज्जापरपरिभवादिगणनया निवेद्यातिचारं यदि न शोधयेद् अपरोक्षितायव्ययाधमर्णवदवसीदति। महदपि तपस्कर्म अनालोचनपूर्वकम् नाभिप्रेतफलप्रदम् आविरिक्तकायगतौषधवत् कृतानालोचनस्यापि गुरुमतप्रायश्चित्तमकुर्वतोऽपरिकर्मसस्यवत् महाफलं न स्यात्। कृतालोचनचित्तगतं प्रायश्चित्तं परिमृष्टदर्पणतलरूपवत् परिभ्राजते।
= लज्जा और पर तिरस्कार आदिके कारण दोषोंका निवेदन करके भी यदि उनका शोधन नहीं किया जाता है तो अपनी आमदनी और खर्चका हिसाब न रखनेवाले कर्जदारकी तरह दुःखका पात्र होना पड़ता है। बड़ी भारी दुष्कर तपस्याएँ भी आलोचनाके बिना उसी तरह इष्ट फल नहीं दे सकती जिस प्रकार विवेचनसे शरीर मलकी शुद्धि किये बिना खायी गयी औषधि। आलोचना करके भी यदि गुरुके द्वारा दिये गेय प्रायश्चित्तका अनुष्ठान नहीं किया जाता है। तो वह बिना सँवारे ध्यानकी तरह महाफलदायक नहीं हो सकता। आलोचना युक्त चित्तसे किया गया प्रायश्चित्त माँजे हुए दर्पणके रूपकी तरह निखरकर चमक जाता है।
6. अन्य सम्बन्धित विषय
• निश्चय व्यवहार आलोचनाकी मुख्यता गौणता - देखें चारित्र
• सातिचार आलोचना मायाचारी है - देखें माया - 2
• किस अपराधमें आलोचना प्रायश्चित किया जाता है - देखें प्रायश्चित्त ?
• तदुभय प्रायश्चित्त - देखें प्रायश्चित्त